-राजेश त्रिपाठी
गांव इन दो शब्दों में ऐसी मिठास और आत्मीयता भरी है कि इन दो अक्षरों में जैसे खुशियों का संसार समाया है। आप जितने भी बड़े हो गये हों, देश में हों या विदेश में, छोटे कस्बे में हों या किसी महानगर में, अगर आपका जन्म गांव का है तो आपकी स्मृति में स्थायीभाव से गांव शामिल होगा। आपको तीज-त्योहारों में गांव अवश्य याद आयेगा और वहां की हरीतिमा, प्रकृति की गोद में बिताये क्षण आपको कचोटेंगे। शहरों में कंक्रीट के जंगलों और डीजल-पेट्रोल के धुएं में घुटती जिंदगी गांव की स्वच्छ हवा के लिए तरस उठेगी। वे गांव जहां कभी भारत की आत्मा बसती थी। महात्मा गांधी ने भी कहा था कि असली भारत तो गांवों में बसता है। उन्होंने गांवों को ही आत्मनिर्भर और विकसित करने का सपना देखा था। उन्होंने चाहा था कि विकास का सूत्रपात गांवों से हो और गांवों को किसी भी चीज के लिए शहरों का मुहताज न होना पड़े। लेकिन हमने गांधी के सपने को दरकिनार कर दिया उन्हें उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर याद कर अपने कर्तव्य और गांधी-भक्ति की इतिश्री मान लेते हैं। शायद यही वजह है कि शहर और भी आधुनिक और गांव पहले भी अधिक लाचार और असहाय होते जा रहे हैं। एक तरह से देखा जाये तो विकास शहरों तक ही सीमित हो ठिठक गया है। कुछ राज्यों को छोड़ दें तो आज भी प्रायः गांव साधनहीन हैं। वहां न सही स्वास्थ्य व्यवस्था है और न ही रोजगार के समुचित साधन ही हैं। इसके चलते हो यह रहा है कि गांव की अधिकांश आबादी रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर भागती है और इसके चलते शहरों में भी आबादी का बोझ बढ़ता है। एक सीमित आबादी की सुख-सुविधा के लिए बसाये गये ये शहर अतिरिक्त आबादी को थामने में असमर्थ होते हैं और इस तरह फुटपाथों पर बसने लगती हैं बस्तियां। अगर इन लोगों को गांव में ही काम मुहैया करा दिया जाता तो ये अपनों को छोड़ दूर शहरों में बदतर जिंदगी जीने क्यों आते। पढ़े-लिखे या किसी की पैरवी से शहरों में आगे बढ़ गये और अच्छी नौकरियां कर रहे लोगों की बात छोड़ दें गांव से आये अधिकांश गरीब लोग या तो मेहनत मजदूरी कर रहे हैं या फिर छोटे-मोटे खोमचे लगा कर अपना पेट पालते हैं। इन्हें इनके गांवों में कुटरी उद्योग स्थापित कर काम मुहैया करा दिया जाता तो शहरों के लिए पलायन रुकता और ये अपनी जमीन, अपने घर गांव में चैन की जिंदगी जी रहे होते।
सुना है चीन में कम्यून पद्धति है। इसमें हर गांव में सारी सुविधाएं मुहैया करायी गयी हैं। कई गांवों को मिला कर एक कम्यून बनाया गया है जो उस क्षेत्र के कुटीर या लघु उद्योगों के उत्पादन आदि के विपणन की व्यवस्था करता है। जहां जो फसल होती है उसी पर कृषि आधारित उद्योग लगाये गये हैं और उसकी उपज के प्रसंस्करण या विपणन की व्यवस्था भी कम्यून करता है। इस तरह वहां गांव सुखी और संपन्न हैं। यह पद्धति हमारे यहां भी अपनायी जा सकती थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया। पता नहीं इसके पीछे क्या वजह है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अगर देश समस्या मुक्त हो जायेगा तो फिर किस समस्या को मिटाने का नाम लेकर नेता वोट मांगेगे। गरीबी मिटाने का नारा वर्षों पहले लगाया गया था लेकिन देश के गरीब अब तक गरीब हैं। यह हम नहीं कहते सरकार भी मानती है यही वजह है कि उसने बीपीएल ( गरीबी रेखा से नीचे वाले) श्रेणी बनायी है। यानी गरीबों का तो उद्धार हुआ ही नहीं कुछ गरीबी के मानक के भी नीचे चले गये। यह और बात है कि विश्व के बड़े रईसों की सूची में कुछ और भारतीयों के नाम जुड़ गये हैं। इस पर हम गर्व कर सकते हैं लेकिन अपने गांवों की बदहाली और गरीबों की दुर्गति पर हमें शर्मिंदा भी होना चाहिए। वे हमारे लोग हैं, हमारे अपने लोग, समाज और सरकार की जिम्मेदारी हैं वे। उनके जीवन स्तर को आगे बढ़ाना बहुत जरूरी है। हमारे विकास के सारे दावे खोखले और थोथे हैं अगर गांव और गरीबों की आंखों में आंसू हैं।
गांवों में आज बिजली नहीं, पेयजल नहीं, स्वास्थ्य सेवाएं नहीं, शिक्षा का समुचित आधार नहीं। ऐसे में गांव धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं, मर रहे हैं गांव। ये जहां-तहां खड़े हैं लेकिन लगता है जैसे इनमें जीवन नहीं रहा। न इनमें पहले सा एहसास रहा। उपेक्षा और बदहाली ने इनकी रंगत बिगाड़ दी है। आज जरूरत है इनकी ओर मुड़ कर देखने की। नेताओं की जो युवा पीढ़ी आयी है उसमें गांवों से जुड़ने की ललक देखी जा रही है। भला हो राहुल गांधी जी का जिन्होंने अपने देश भ्रमण के दौरान भारत के गांवों को जाना और उनकी मुसीबतों को पहचाना। सुदूर बुंदेलखंड में उनका गरमी में तपते हुए श्रमदान करना प्रेरणादायक लगा और इससे यह उम्मीद भी जगी कि शायद उनके जैसे युवा नेता ही गांवों के भले की बात सोचें या इस दिशा में पहल करें। यह पहल राजनीतिक लाभ की मंशा से हो या निस्वार्थ अगर इसके चलते गांवों को बचाने विकसित करने का सार्थक प्रयास हो पाया तो इससे भला गांवों का ही होगा। गांव बच जायें, गरीबों को रोज-रोटी मिले फिर किसी को राज मिल जाये या ताज क्या फर्क पड़ता है। फर्क तो तब पड़ता है जब राज और ताज बदलते रहते हैं और गांव मुसलसल अपनी बदहाली के लिए रोते रहते हैं। पड़े रहते हैं दीन-हीन से किसी और मसीहा, किसी और हितचिंतक की उम्मीद में कि वह आये और इनकी सुध ले, इन्हें संवारे इन्हें प्रगति की वह दिशा से कि यह भी सीना तान कर कह सकें जरा हमारी शान भी देखो, हम हैं हिंदुस्तान के गांव, हम में बसता है असली भारतवर्ष। हर सच्चे देशवासी का कर्तव्य है कि वह भारत की इस पहचान को बचाये, सजाये संवारे क्योंकि अगर इनका अस्तित्व ही मिट गया तो मुमकिन है देश की पहचान ही खो जाये।
गाँव बचाना जरूरी है।
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