Monday, March 8, 2010

क्या वाकई विश्वास के काबिल नहीं पत्रकार!


रीडर डाइजेस्ट का सर्वे तो यही कह रहा है

-राजेश त्रिपाठी

इंडिया टुडे ग्रुप की पत्रिका ‘रीडर डाइजेस्ट’ की ओर से कराया यह गया सर्वे चौंकानेवाला है। यह सर्वे चीख-ची कर कह रहा है कि –ऐ पत्रकारो! अपनी औकात पहचानो, जानों की समाज की नजरों में तुम कहां खड़े हो। लोगों का विश्वास तुम पर से उठ गया है। तुमसे ज्यादा विश्वसनीय तो समाज को नाई, बस ड्राइवर, ट्रेन ड्राइवर और प्लंबर हैं। पत्रिका रीडर डाइजेस्ट ने यह आनलाइन सर्वे कराया है। इसमें 40 पेशों से जुड़े लोगों के बारे में सर्वे कराया गया है जिसमें पत्रकारों को 100 में से 30 वां स्थान मिला है। इस सर्वे से खुद पत्रिका रीडर डाइजेस्ट के संपादक मोहन शिवानंद तक खुश नहीं हैं। जो खुद मानते हैं कि पत्रकारिता को उत्कृष्ट और दार्शनिकता भरा काम मानते थे लेकिन अफसोस कि पत्रकारों को 40 पेशेवरों में से 30वें नंबर की निचली पायदान पर पाया गया।
इस सर्वे ने पत्रकारों को आईना दिखा दिया है कि सन्मार्ग, सत्पथ से विमुख होकर कितनी बदरंग हो चुकी है उनकी सूरत (हालांकि कहना यह चाहिए कि इनमें से कुछ का जमीर भी बिक चुका है)। इस सर्वे ने अगर पत्रकारिता के पुनीत कार्य पर शक किया है, उस पर से उठते विश्वास का सवाल उठाया है तो इसके लिए पत्रकार भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। उनके धत् कर्मों ने लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की विश्वसनीयता को ठेस पहुंचायी है। पेड न्यूज के जघन्य पापकर्म में लिप्त कुछ पत्रकार (?) और पत्र समूहों ने पत्रकारिता जैसे दायित्वशील व पुनीत कार्य को पंकमय, कलुषित और दूषित कर दिया है। पत्रिका का सर्वे शायद ऐसे धत्कर्मियों की करतूतों की सजा पूरी पत्रकार बिरादरी को दे बैठा है। इसमें पत्रकारों की विश्वसनीयता का ग्राफ बहुत नीचे बताया गया है। उनसे ज्यादा विश्वास तो समाज नाइयों, बस ड्राइवरों और प्लंबरों पर करता है। जिन वर्गों को पत्रकारों से ज्यादा विश्वसनीय बताया गया है उनकी समाज के प्रति सेवा और सहयोग अनन्य और अनुपम है। उनको हम पूरा सम्मान देते हैं। जहां तक विश्वास का सवाल है तो इस वर्ग का व्यवसाय या कार्य ही विश्वास पर आधारित है।
वापस उस लानत पर आते हैं जो रीडर डाइजेस्ट के सर्वे ने पत्रकारों पर उछाली है। इसमें पूर्व राष्ट्पति एपीजे अब्दुल कलाम को नंबर एक और रतन टाटा को नंबर दो पर पाया गया है और मायावती को नंबर 100 पर पाया गया है। पत्रकार इस बात पर संतोष कर सकते हैं कि उनको मायावती से ज्यादा नंबर मिले हैं। पत्रकारों को इस तरह से नंबर दिये गये हैं-कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण (9), डा. प्रणव राय (28), स्वामिनाथन अय्यर (37), एन राम (43), जयदीप बोस (46), प्रभु चावला (54), पी साईंनाथ (59), राजदीप सरदेसाई (61), बरखा दत्त (65), तरुण तेजपाल (85), पत्रकार से राजनेता बने अरुण शौरी को 79 वां नंबर मिला है।
पहले तो इस सर्वे की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठते हैं कि यह सर्वे किस तरह से कराया गया है। देश के 30 शहरों के जिन 761 लोगों ने इस सर्वे में अपनी राय दी है वे किस वर्ग से आते हैं? उनकी पत्रकारिता, पत्रकारों के बारे में जानकारी कितनी है? क्या 30 शहरों के 761 लोगों का अर्थ पूरे देश की राय होती है? 761 लोग पत्रकारों को इतनी बड़ी बिरादरी को अविश्वासी करार देंगे और उनके फैसले को ही आखिरी मान लिया जायेगा? माना कि पत्रकार भी समाज का अंग हैं, इसके बीच से ही आते हैं लेकिन क्या उनकी विश्वसनीयता को मापने का यही पैमाना है?यह कैसा सर्वेक्षण है जो प्रभु चावला (जिनके ग्रुप ने यह सर्वेक्षण कराया है) को तरुण तेजपाल जैसे धाकड़ और जुझारू पत्रकार से बहुत-बहुत आगे बताता है।
माना कि कभी स्वाधीनता आंदोलन का सजग-सशक्त हिस्सा रही पत्रकारिता अब चंद दिशाहीन, कमाऊ-खाऊ, चंद सिक्कों के लिए अपना जमीर बेचनेवाले पत्रकारों (?) के चलते पंक में डूब गयी है। समाज में इसका अब वह आदर नहीं रहा, जो पहले था लेकिन अनास्था, अविश्वास के इस पंक में आज भी कुछ पंकज खिले हैं। उन्हें आदर भले न दीजिए पर उन्हें लानत तो न भेजिए। अगर आज भी सत्ता पूरी तरह निरंकुश नहीं हो पायी, देश का एक वर्ग समाचार पत्रों और पत्रकारों को आदर देता है तो इसका श्रेय उन पत्रकारों को जाता है जिनका जमीर बिकाऊ नहीं है। जो राजसत्ता या किसी और ताकत के सामने झुकने को तैयार नहीं हैं। वे सच को बिना लाग-लपेट सीना तान (और ठोक कर भी) कहने से पीछे नहीं हटते। यह और बात है कि उन्हें कभी-कभी उस सत्ता या व्यक्ति का कोपभाजन बनना पड़ता है जिसे यह सच चुभता है या उसके धत्कर्मों पर चोट करता है। वे अपने पुनीत कर्म , सन्मार्ग और समाज के प्रति अपने दायित्व से विमुख नहीं होते। कलम के ऐसे सिपाहियों को शतशत नमन।
रीडर डाइजेस्ट के जिस सर्वे का यहां जिक्र हो रहा है उसे मैंने exchange4media.com में देखा। यह नहीं पता कि यह सर्वे किस मकसद से कराया गया है पर सर्वे करानेवालों को यह नहीं भूलना चाहिए चांद पर थूका अपने ही सिर पड़ता है। सर्वे करानेवालों, आपने जिन पत्रकारों को अविश्वासी साबित कराया है, उस बिरादरी का आप भी तो एक हिस्सा हैं। यह गाली तो आप पर भी पड़ी।
अफसोस इस बात का है कि अपने ही कुछ भाइयों की करतूतों के चलते सारे पत्रकारों पर ‘अविश्वासी’ होने की गाली पड़ रही है। न वे बिकते न समाज का पत्रकारों से विश्वास उठता। अब वक्त आ गया है कि सभी पत्रकार बंधु जिनका जमीर जिंदा है, वे आगे आयें और इस मुद्दे पर व्यापक बहस में हिस्सा लें। इस प्रश्न पर गहन पड़ताल और आत्मालोचन करें कि क्या वाकई भारतीय पत्रकारिता पर से समाज का विश्वास उठ गया है। क्या पत्रकारिता अपने धर्म अपने लक्ष्य से भ्रष्ट और इतनी पतित हो गयी है कि इस पर उंगली उठने लगे। ये और ऐसे ही कई मुद्दों पर सोचने की जरूरत है। जरूरी है कि इस पर बहस का एक सिलसिला शुरू हो। अगर पत्रकारों पर से समाज का विश्वास वाकई उठ गया है तो यह न सिर्फ भारतीय पत्रकारिता अपितु समाज के लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है। जनवाणी को उठाने सत्ता के शिखर तक को सचेत आगाह करने वाला माध्यम ही अगर अपनी विश्वसनीयता खो देगा तो लोकतंत्र ही खतरे में पड़ जायेगा। अभी भी वक्त है हमें सोचना चाहिए कि-हम क्या थे क्या हो गये, और क्या होंगे अभी, आओ विचारें बैठ कर ये समस्याएं सभी।

3 comments:

  1. जब हर कोई गाड़ी, बंगला, बैंक बैलेंस चाहे तो पत्रकार क्यों पीछे रहें??

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  2. आज का छुटभैया पत्रकार भी केवल ब्‍लेकमेल करने की फिराक में रहता है। सच तो इनसे कोसो दूर हो गया है। आज यदि सबसे घृणित इंसान कोई है तो वे पत्रकार हैं। मैं इतनी कटुता से इसलिए लिख रही हूँ कि मैंने इनको बहुत करीब से देखा है। आप यदि पूरे देश से भी वोट कराएंगे तब इन्‍हें 30 नम्‍बर भी नहीं मिलेंगे। हाँ कुछ लोग अच्‍छे हो सकते हैं लेकिन जब इनका उद्देश्‍य ही नकारात्‍मक समाचार देना और कैसे करके भी पैसा बनाना हो तब कोई भी कुछ नहीं कर सकता। ये केवल कीचड उछालना जानते हैं। ये किसी भी भले इंसान का चरित्र हनन करना ही जानते हैं। ऐसा कहना चाहिए कि बन्‍दर के हाथ में उस्‍तरा आ गया है।

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  3. a well written verse, the misdeed of some of the jorno has created this concept,
    अफसोस इस बात का है कि अपने ही कुछ भाइयों की करतूतों के चलते सारे पत्रकारों पर ‘अविश्वासी’ होने की गाली पड़ रही है। न वे बिकते न समाज का पत्रकारों से विश्वास उठता।...
    still the work and role of journoulists cannot be ignored, it is due to them the corrupt politicians and burocrates have been brought into control. they hesitate to practice corruption.
    I think Dr. Smt. ajit gupta has a bitter experience about a particular journo, her comments are very personal.

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