कविता
-राजेश त्रिपाठी
उसने सोचा
चलो खेलते हैं
एक अनोखा खेल
खेल राजा-प्रजा का
खेल ईनाम-सजा का।
वैसा ही
जैसे खेलते हैं बच्चे।
उसने सुना था
चाणक्य ने
राजा का खेल खेलते देख
किसी बच्चे को
बना दिया था चंद्रगुप्त मौर्य
दूर-दूर तक फैला था
जिसका शौर्य
उसने बनाया एक दल
कुछ हां-हुजूरों का
मिल गया बल
उनसे कहा,
आओ राजनीति-राजनीति खेले
सब हो गये राजी
बिछ गयीं राजनीति की बिसातें
राज करने को चाहिए था
एक देश
शायद वह भारत था
चाहें तो फिर कह सकते हैं इंडिया
या फिर हिंदुस्तान
यहीं परवान चढ़े
उस व्यक्ति के अरमान
राजनीति की सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ता रहा
यानी अपने एक नयी दुनिया गढ़ता रहा।
दुनिया जहां है फरेब,
जिसने ऊपर चढ़ने को दिया कंधा
उसे धकिया ऊपर चढ़ने का
यानी शातिर नेता बने रहने की राह में
कदम दर कदम चढ़ने का।
आज वह ‘राजा’ है
हर ओर बज रहा डंका है।
अब वह आदमी को नहीं
पैसे को पहचानता है,
जिनकी मदद से आगे बढ़ा
उन्हें तो कतई नहीं जानता,
इस मुकाम पर पहुंच
वह बहुत खुश है
राजनीति का खेल
बुरा तो नहीं,
उसने सोचा।
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