Friday, March 11, 2011

चाबुक बगैर क्यों नहीं चेततीं सरकारें?

      न्यायपालिका को क्यों लगानी पड़ती है फटकार
-राजेश त्रिपाठी
 इसे भारत का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि यहां कुछ ऐसा आलम है जहां बिना झटका दिये या चाबुक जड़े न हाकिम चेतता है न सरकारें। ऐसा अभी हो रहा है यह बात नहीं पता नहीं क्यों यह देश की नियति बन गयी है कि बड़े से बड़ा अपराध कर के भी कुछ लोग आजाद घूम रहे हैं, कुछ संसद और विधानसभाओं की शोभा बढ़ा रहे हैं और गणतंत्र के इन मंदिरों को अपवित्र कर रहे हैं। चुनाव आयोग ने लाख कोशिश की लेकिन आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का प्रवेश अब भी बेधड़क संसद-विधानसभाओं में हो रहा है। ऐसा होने से न विभिन्न राजनीतिक दल रोक पा रहे हैं और न ही कानून ही इनकी राह में कोई बाधा बन पाता है। अगर किसी पर कोई आपराधिक आरोप लगा भी है तो उसे कोई भी कानून तब तक चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकता जब तक कि उसका अपराध साबित नहीं हो जाता। कई ऐसे मामले सामने आये हैं कि किसी दागदार नेता ने चुनाव ल़ड़ा, बाकायदा जीत गया और संसद या विधानसभा की शोभा बढ़ाने का गौरव पाता रहा लेकिन जब अपराध साबित हुआ तो पद छोड़ना पड़ा। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जो नेता दागदार है वह पहले कानून की मदद से अपना वह कलंक दूर करे फिर चुनाव जैसी पुनीत गणतांत्रिक प्रक्रिया का सम्मान के साथ एक हिस्सा बने। शायद देश का हर नागरिक यही सोच रखता होगा।
 हम बात कर रहे थे सरकारों के चाबुक पड़ने पर चेतने या सक्रिय होने की। चाहे घोड़ों के व्यवसायी हसन अली का करोड़ों का कर न चुकाने और दूसरे कई मामलों में फंसे होने का प्रसंग हो या ऐसे ही दूसरे मुद्दे, अक्सर सरकारें इसकी तह तक जाने में या तो उदासीनता बरतती रहीं। जांच इस कदर कच्छप गति से चलाती रहीं कि वे बेमानी सी हो गयीं।भला हो अपनी न्यायपालिकाओं का कि वे अपना दायित्व बखूबी निभा रही हैं और जहां कहीं भी सरकारें अपने लोकतांत्रिक दायित्व से चूकती या उदासीन होती हैं वहां उन्हें तुरत आदेश का ऐसा चाबुक लगाती हैं कि सरकारों को आनन-फानन सजग होना पड़ता है। जो काम वर्षों से नहीं हो पाया होता वह ऐसी चाबुक पड़ने से तुरत हो जाता है। हसन अली के कारनामों के चर्चे वर्षों से मीडिया में थे। ऐसा नहीं है कि सरकार को उसके किये की खबर नहीं थी लेकिन पता नहीं कि ऐसी क्या मजबूरी है कि सरकार ने उसके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया। उच्चतम न्यायालय की लताड़ पड़ी तो सारे महकमे सतर्क हो गये, उनकी नींद हराम हो गयी और वही हसन अली जो महीनों से आजाद घूम रहा था, कानून की गिरफ्त में आ गया। किसी गणतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण नहीं कि उसका प्रशासन न्यायपालिकाओं के चाबुक से ही जागे। उसे तो स्वतः अपने कर्तव्य का सम्यक और सम्मान पूर्वक पालन करना चाहिए। उसका ध्येय उस जनता, उस देश का हित चिंतन होना चाहिए जिसने उस पर विश्वास कर उसे देश की सत्ता का भार सौंपा है। उसकी प्राथमिकता यही होनी चाहिए बाकी सारी चीजें गौण।
      हमारे सांसद कई बार इस बात पर भी भौंहें तरेर चुके हैं कि न्यायापिलका को कार्यपालिका के कार्य में अनावश्यक दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए। हम भी इस बात के पक्षधर हैं। ईश्वर करे मेरे देश में ऐसे दिन भी आयें जब कार्यपालिका,  देश की संसद सुचारु रूप से चले, जनता के द्वारा जनता के लिए चुनी सरकारें जनता के प्रति पूरी तरह से अपनी जवाबदेही महसूस करें और न्यायपालिका को इन कार्यपालिकाओं को नींद से जगाने के लिए अतिरिक्त श्रम न करना पड़े। कार्यपालिका के कार्य में न्यायपालिकाएं अनावश्यक छेड़छाड़ नहीं करतीं। ऐसा तभी होता है जब देश का कोई सुधी नागरिक सरकारी उदासीनता से ऊब कर न्यायपालिकाओं की शरण लेता है कि वे सरकार को बाध्य करें कि वह अपना दायित्व सही ढंग से पालन करे। अब सच हो या झूठ हसन अली के तार दूर-दूर तक जुड़े बताये जा रहे हैं। शक यहां तक किया जा रहा है कि अगर वह इतने दिनों तक कानून की गिरफ्त से बचता रहा तो इसकी वजह यह है कि उसे किसी बड़े ‘हाथ’  का संरक्षण प्राप्त है। यह बड़ा हाथ किसी राजनेता या किसी सक्षम अधिकारी का भी हो सकता है। उसी की कृपा से जनाब हसन अली अब तक महफूज रहे और शायद भविष्य में भी रहते अगर न्यायपालिका का चाबुक पड़ने से सरकार उनके खिलाफ कदम उठाने को बाध्य नहीं होती। उस पर पासपोर्ट की धोखाधड़ी का आरोप लगाया गया है जबकि न्यायालय का कहना है कि यह शख्स देश की सुरक्षा के लिए भी खतरा हो सकता है। उसके बारे में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए संभावित खतरे के संदर्भ में भी जांच होनी चाहिए। न्यायपालिका ने हसन के मामले में चल रही धीमी जांच पर भी असंतोष जताया है। हसन अली के तार बड़ो-बड़ों से जुड़े होने की आशंका के साथ ही यह भी पता चला है कि उसका धन स्विस बैंक से लेकर दूसरे कई जगह हो सकता है।
      पता नहीं ऐसा क्या है कि बड़ा-बड़ा अपराध करने वाले आजाद घूमते रहते हैं और कई निर्दोष सालों-साल जेल में सड़ते रहते हैं। जब उनके निर्दोष होने का पता चलता है, जिंदगी के अहम साल गुजर चुके होते हैं और उनके पास उस पाप जो उन्होंने किया ही नहीं, वह सजा जो उनके हिस्से की नहीं थी भोगने की ग्लानि और मौत के दिन गिनने के अलावा कुछ भी नहीं बचता। ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक धन-बल नैतिक बल पर भारी रहेगा। सुनते आये हैं कि किसी धनबली ने कोई अपराध किया और उसके एवज में पैसा लेकर कोई और सजा काट आया। जिसने किया वह दूध का धुला बना रहा और कोई निर्दोष पैसे की खातिर वह पाप अपने सिर पर लेने को मजबूर हुआ, जो उसने किया ही नहीं। कभी-कभी कोई दबंग अपराध खुद करता है और पैसे के जोर पर उसे ऐसे व्यक्ति के सिर पर थोप देता है जो दबा-कुचला है, दीन-हीन है कानून के दावंपेंच नहीं जानता। वह बेचारा किसी और के किये सजा भोगता है और जिंदगी भर बिनकिये अपराध की ग्लानि से घुटता रहता है। कई ऐसे रसूख वाले, धनबली हैं जो अपराध करते हैं और कानून की पकड़ में कभी नहीं आते। शहरों की छोड़ दें गांवों में कई लोग कत्ल कर देते हैं और वह कत्ल थाने में एक दुर्घटना के रूप में दर्ज हो जाती है कि फलां-फलां पेड़ से गिर कर मारा गया। बस मामला वहीं खत्म, न जार्च सीट बनेगी न मामला आगे बढ़ेगा। कत्ल हुआ पर वह पैसे के जोर पर दुर्घटना में बदल दिया गया। जिनका व्यक्ति मारा गया अगर वे भी रसूख और पैसे वाले हुए तो संभव है वे मामला आगे बढ़वा सकें कोई दीन-हीन हुआ तो फिर उसे तो महुए के पेड़ ने मारा और उसकी मौत (कत्ल) का मामला हमेशा के लिए ठप हो गया। इन सारी स्थितियों के खिलाफ ही न्यायपालिकाएं सजगता और सतर्कता से काम कर रही हैं। राष्ट्रीय धन की जिस तरह से लूट मच रही है उस पर भी अगर अंकुश लगेगा तो उसका श्रेय भी न्यायपालिकाओं को ही जायेगा। हम शुक्रगुजार और आभारी हैं हमारे न्याय के इन मंदिरों के जो आज भी स्वच्छ और सशक्त हैं। हम सम्मान करते हैं गणतंत्र के मंदिर संसद और विधानसभाओं का क्योंकि गणतांत्रिक पद्धति की बदौलत ही हम आज विश्व भर में इज्जत और आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं। जहां गणतांत्रिक व्यवस्था नहीं है वहां के नागरिकों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। उन्हें वैसी सहूलियतें प्राप्त नहीं हैं जैसी कि गणतांत्रिक देशों के नागरिकों को प्राप्त हैं। हमारी आकांक्षा है कि देश की न्यायपालिका और कार्यपालिका में सामंजस्य हो और इनमें कभी भी टकराव की स्थिति न आये क्योंकि ऐसा किसी के हित में नहीं है। यदि कोई भी भ्रम या संदेह की स्थिति पैदा होती है तो फिर उस बारे में जो भी निर्णय लिया जाये वह विधि सम्मत होना चाहिये। कारण, न्याय से बड़ा कुछ भी नहीं होता। देश में न्याय का शासन होगा तो यह सभी के हित में होगा। संभव है न्यायपालिका के कुछ निर्णयों से किसी के हितों पर चोट होती हो पर इसके लिए न्याय की गरिमा को तो ठेस नहीं पहुंचायी जा सकती। न्याय का पलड़ा हर हाल में भारी है क्योंकि अगर न्याय ही नहीं रहा तो कहां रहेगी नीति, और फिर कौन कैसे करेगा राज। राजनीति में तो नीति शामिल है। इससे यह अलग हुई तो फिर राजनीति अपना अर्थ ही खो बैठेगी और एक निरंकुश सत्ता बन बैठेगी जहां जनहित गौण हो जायेगा और स्वजन पोषण या सत्ता को बचाने के लिए हर काले-सियाह दांव आजमाये जाने लगेंगे। ऐसे में कहां बचेगा गणतंत्र और कहां उस पर गर्व करने वालों का सुख-चैन। यह वक्त का तकाजा है कि गणतंत्र के सही अर्थ को समझा और उस पर अमल किया जाये। जनता की सरकार की प्रथामिकता जनता होती है उसके बाद और कुछ। हमारे हुक्मरानों को इस बात को जानना-मानना होगा क्योंकि वे सत्ता संभालते वक्त ऐसी शपथ भी लेते हैं। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वे हमारे हुक्मरानों-हाकिमों को यह विवेक दे कि वे सत्पथ पर चलें और देश के प्रति अपनी जवाबदेही के प्रति हमेशा सतर्क रहें। आमीन।

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