Saturday, November 12, 2011

लता मंगेशकर

छोटी-सी गुड़िया की सुनो लंबी कहानी
-राजेश त्रिपाठी
जिंदगी में जो पहली हिंदी फिल्म सीमा देखी थी उसमें लता मंगेशकर का गाया एक प्यारा गीत था- छोटी-सी गुड़िया की सुनो लंबी कहानी। लता का अपना लंबा सुरीला सफर , एक गुड़िया-सी बच्ची के जिंदगी के जद्दोजेहद में अपनी प्रतिभा के बलबूते नाकुछ से लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचने की दास्तान है। इस दास्तान में जहां लोकप्रियता, नाम-दाम और शोहरत की तड़क-भड़क है, वहीं है पल-पल काटता अकेलापन, तरह-तरह के विवाद और उदासियों के अनगिनत लमहे। इस सबसे लड़ कर , दर्द को खामोशी से पीकर लता भारतीय पार्श्वगायन की अदम्य, अनुपमेय साम्राज्ञी बन गयीं।
      जीते-जी किंवदंती बन जाने वाली लता की लोकप्रियता देश की सीमाएं लांघ विदेश तक जा पहुंची। 1962 में दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी गाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू तक को द्रवित कर देने वाली लता के गायन में एक खास गुण है। वे जो भी गाती हैं दिल से गाती हैं। हर गीत में वे ऐसी गहराई , ऐसी आत्मा भर देती हैं जो दिल की गहराई तक उतर जाता है और उतना ही व्यापक होता जाता है उसका असर।
      कभी लता के बारे में महान गायक (अब स्वर्गीय) कुमार गंधर्व ने कहा था--तानपुरे से निकलनेवाला राग गंधार शुद्ध रूप में सुनना हो तो लता का आयेगा आनेवाला गाना सुनो।
      लता के संगीत सफर के साथ जुड़े हैं अनगिनत सम्मान, अकूत सफलताएं। लंदन का अल्बर्ट हाल हो या कोई और ऑडीटोरियम हर जगह श्रोताओं ने उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुना। यह उनकी प्रतिभा है जिसका कायल होकर टाइम मैगजीन ने ने 1959 में उन्हें भारतीय पार्श्वगायन की निर्विवाद और अपरिहार्य साम्राज्ञी माना था।
      अपार सफलता पाने वाली लता मंगेशकर का शुरुआती जीवन  बहुत कठिन था।  पिता दीनानाथ गोवा के मंगेशी से आकर इंदौर में बस गये थे। इंदौर में ही लता का जन्म हुआ। दीनानाथ मशहूर शास्त्रीय गायक थे और उनकी एक ड्रामा कंपनी थी बलवंत संगीत नाटक मंडल । इस कंपनी को लेकर वे महाराष्ट्र के कस्बों-शहरों में नाटक किया करते थे। उनकी चार बेटियां (मीना, ऊषा, आशा, लता) और एक बेटा हृदयनाथ पिता के साथ बंजारों का-सा जीवन बिताने को मजबूर थे। आज यहां तो कल वहां। ऐसे में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी कुछ खास नहीं हो पाती थी। पिता ने सोचा क्यों न इन लोगों को भी वही हुनर सिखाते चलें जिसमें वे माहिर हैं। इस तरह से छुटपन से ही ही उन्होंने चारों बेटियों और एक बेटे के मन में संगीत की जोत जला दी जिसका उजाला आगे चल कर दूर-दूर तक संगीत की मिठास लेकर फैलता रहा।
      इन बच्चों के अक्सर पिता के साथ उनकी नाटक कंपनी में छोटे-मोटे रोल भी निभाने पड़ते थे। गाना भी पड़ता था। इस तरह धीरे-धीरे पुख्ता होती उनके अंतर में संगीत की बुनियाद। बच्चे घर में होते तब भी पिता की सख्त हिदायत के मुताबिक गीत-संगीत का रियाज जारी रहता। नाटक कंपनी से खास आमदनी तो नहीं थी पर परिवार का किसी तरह गुजारा हो जाता था।
      भाई और बहनों में सबसे बड़ी लता को उस वक्त चेचक की बड़ी तकलीफ सहनी पड़ी जब वे सिर्फ दो साल की थीं। उनके दिन ठीक-ठाक गुजर रहे थे लेकिन 1934-35 में अर्देशिर ईरानी  की पहली बोलती फिल्म आलमआरा नाटक कंपनियों पर कहर बन कर टूटी। एक के बाद एक नाटक कंपनियां बंद होने लगीं। बलवंत संगीत नाटक मंडल भी इससे अछूता न रहा। यह भी बंद हो गया। इसके बाद मंगेश परिवार सांगली चला गया और वहीं बस गया।
      सांगली में दीनानाथ ने फिल्म कंपनी शुरू करने के लिए पत्नी के गहने तक बेच डाले। अपने मराठी नाटकों को उन्होंने फिल्मों  में ढाला पर हाथ लगी नाकामी।  तंगी की हालत में वे सांगली छोड़ पुणे चले आये। यहां वे आकाशवाणी में गाने लगे और उससे मिले थोड़े-बहुत पारिश्रमिक से ही परिवार की गाड़ी किसी तरह घिसटने लगी।
      आर्थिक तंगी और कुंठाओं को दीनानाथ ज्यादा दिन झेल नहीं पाये। 1942 में वे दुनिया छोड़ गये। तब लता महज 13 साल की थीं। भाई हृदयनाथ और चारों बहनें बहुत छोटी थीं। उसी दिन से परिवार को पालन का भार लता के कंधों पर आ गया। गुड़ियों से खेलने की उम्र में ही लता परिवार की रोटी जुटाने की जद्दोजेहद में जुट गयीं।
      आसान नहीं था जीवन-संग्राम का शुरुआती अध्याय। एक छोटी-सी बच्ची को अपने परिवार वालों के लिए निवाले जुटाने के लिए जमीन-आसमान के कुलाबे एक करने पड़ते थ।  स्टूडियो दर स्टूडियो की खाक छाननी पड़ती थी। उनकी कर्मयात्रा मास्टर विनायक की प्रफुल्ल पिक्चर्स की मराठी फिल्म पहिली मंगला गौर गायन और अभिनय से शुरू हुई। अपने पहले दिन के अनुभव के बारे में उन्होंने कभी कहा था-मुझे मेकअप से नफरत थी। जगमगाती रोशनी के बीच खड़े होने से हिचकती थी।  लेकिन करती भी क्या। अपने घर की अकेली कमाऊ बेटी थी मैं। जिस दिन पहली बार काम पर गयी, घर में खाने को कुछ भी नहीं था। ऐसे में मेरे पास कोई चारा नहीं था।
      मास्टर विनायक की कंपनी में उन्होंने 15 रुपये माहवार पर काम शुरू किया। सोचने में कितना अजीब लगता है कि वही लता बाद में एक गीत गाने का हजारों रुपये पारिश्रमिक पाने लगीं। 1947 में मास्टर विनायक की मौत के बाद प्रफुल्ल पिक्चर्स  कंपनी बंद हो गयी। उसके बाद लता बंबई (अब मुंबई ) आ गयीं। वहां उन्होंने पहले उस्ताद अमान अली खां फिर अमानत अली खां से बाकायदा शास्त्रीय  संगीत की शिक्षा ली। 1947 तक उनका काफी नाम हो गया था। फिल्म मजबूर में उन्हें गायन का मौका संगीकार गुलाम हैदर ने दिया। फिल्मिस्तान के सुबोध मुखर्जी लता की आवाज से संतुष्ट नहीं थे लेकिन गुलाम हैजर अपने निश्चय पर अड़े रहे। उन्होंने मुखर्जी से यहां तक कह डाला- देखना एक दिन यह लड़की नूरजहां (उस वक्त की प्रसिद्ध गायिका-नायिका) को भी पीछे छोड़ देगी। कहना न होगा कि उनकी यह बात सौ फीसदी सच साबित हुई। बाद में नूरजहां तक लता की प्रशंसिका बन गयी थीं। उसके बाद लता ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और फिल्मी पार्श्वगायन के क्षेत्र में दिन ब दिन कामयाबी की नयी मंजिलें तय करती रहीं। पुराने संगीतकारों अनिल विश्वास, नौशाद, हुसनलाल-भगतराम, खेमचंद्र प्रकाश, शंकर-जयकिशन और रोशन से लेकर नये संगीतकारों के निर्देशन में भी लता ने  बखूबी गाया।
      दशकों से सुबह-शाम, दिन-रात देशवासियों के कानों में मिसरी की मिठास घोलती आई है लता की आवाज। उत्सव, समारोहों में गूंजते रहे उनके नगमे। सिर चढ़ कर बोलता रहा उनकी आवाज का जादू। हर वर्ग, हर हैसियत के व्यक्ति के दिल को छूती है उनकी कोयल सी बोली। नयी गायिकाओं के आने लोकप्रिय होने के बाद भी अरसे तक लता की आवाज का जादू बरकरार रहा। उनकी आवाज में जो वैविध्य है वही उसकी विशेषता है। एक प्रेमिका का दर्द, मनुहार, शोखी को वे बखूबी अपनी पुरअसर आवाज के जरिये उभार सकती हैं।  वहीं उनकी आवाज में मां का वात्सल्य, पुजारन की श्रद्धा और शिशु की चपलता भी बड़ी खूबी से उनके स्वरों में ढलती है। एक शब्द में भारत के लिए ईश्वर का वरदान है लता।
      वे भाषाओं की सीमा में नहीं बंधीं, हर भाषा में गाया और खूब गाया। गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड में उनका नाम आया सबसे अधिक गीत गाने वाली गायिका के रूप में। 1946 से गा रही लता की एक खूबी यह भी है कि उन्होंने जिस भी हीरोइन के लिए गाया उसकी आवाज से अपने गाने का अंदाज मिलाने की उन्होंने हमेशा कोशिश की।
      किसी ने उनकी आवाज की विविधता के मद्देनजर एक बार मजाक में कहा था-लता को दोहरा पारिश्रमिक दे दिया जाये तो वे हीरो-हीरोइन दोनों के लिए गा सकती हैं। लता की एक विशेषता यह भी रही है कि उनकी उम्र ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी, उनकी आवाज की मिठास और गाढ़ी होती गयी। उनका स्वर और मधुर होता गया।

Wednesday, November 9, 2011

कैक्टस और गुलाब

कहानी
कैक्टस और गुलाब
राजेश त्रिपाठी
   बैंक की नौकरी का पहला दिन। रोज सुबह आठ बजे जगने वाली नीलम चौधुरी आज पांच बजे ही उठ गयी। नयी सलवार और कुर्ता में इस्त्री करते देख मां ने कहा, 'यह तो नयी है। फिर इस्त्री?'
   'रखे रखे दब कर गुंजट गयी थी मां।'
    जाते समय मां ने आईना दिखाते हुए कहा,-' सोमवार है। आज आईना में मुंह देख कर जाना शुभ होता है।'
   सड़क पर पहुंची, तो शटल पर चलनेवाला एक भी आटो खाली न दिखा। सभी स्टैंड से भरे आ रहे थे। तीन सवारी पीछे, चौथी ड्राइवर के बगल में। वह बार-बार कलाई घड़ी देख कर सोच रही थी, कल से एक घंटा पहले निकलूंगी। बैंक की नौकरी है। दस मिनट पहले पहुंचना होगा। वह यह सोच ही रही थी कि तभी एक आटो उसके सामने  रुका।
   उसने कहा, 'गांधी चौक।'
   ड्राइवर ने पीछे बाईं साइड में बैठे यात्री को अपने बगल में बैठने का इशारा किया, तो नीलम की जान में जान आयी।
    बैंक में मैनेजर से मिल कर अपना नियुक्ति पत्र लिया तो उसने प्यून के साथ सपन अधिकारी के पास भेज दिया।
     वह सपन को देखते ही चौंक उठी। ये वही सज्जन थे जिन्होंने आटो में उसे सीट दी थी। मगर वह कुछ बोली नहीं। नियुक्ति पत्र उसकी ओर बढ़ा दिया।
     सपन ने पास की कुर्सी की ओर संकेत करते हुए कहा,- 'बैठिए।' फिर विस्तार से समझा दिया कि उसे क्या करना है। उसकी ड्‌यूटी क्या है?
    नीलम ने बैठते ही सरसरी नजर से आफिस का जायजा लिया तो पाया कि सभी उसकी ओर ऐसे देख रहे थे, जैसे चिड़ियाखाना में नया पक्षी आया हो। उनमें तीन लड़कियां भी थीं , जो मुस्कराते हुए हाथ हिला कर उसका स्वागत कर रही थीं। शायद सोचती होंगी, अच्छा हुआ, अपनी बिरादरी की एक संखया तो बढ़ी।
    उसने भी हाथ हिला कर उनके अभिवादन का उत्तर दिया।
    वह जब भी कुछ समझ न पाती, तो सपन से पूछ लेती। पर उसे यह देख कर आश्चर्य हो रहा था कि सपन दा ने कभी भी सिर उठा कर उसे नहीं देखा, न ही अपनी ओर से कुछ बात की। जबकि स्टाफ के दूसरे स्टाफ के दूसरे लोग उसे कनखियों से देखते और बतियाने की कोशिश करतो।
    कुछ ही दिनों में तीनों लड़कियों में से लवली उससे खूब घुल-मिल गयी थी। उसने बताया,- ' सपन दा गंभीर और अंतर्मुखी स्वभाव के हैं । बहुत कम बोलते हैं। यहां तक कि स्टाफ से भी बिना मतलब के बात नहीं करते। '
     नीलम को ऐसा व्यक्ति बहुत पसंद था। वह बातूनी से दूर भागती थी। उसने लवली से पूछा,'इनके परिवार में और कौन-कौन हैं?'
   सिर्फ विधवा मां। जिसे ये अपनी जान से भी ज्यादा चाहते हैं। उनका जरा भी कष्ट बरदाश्त नहीं कर पाते। ऐसे ही सपन दा घर आधा घंटा देर से लौटें, तो मां विचलित हो जाती हैं। सपन दा ने मां की सेवा के लिए चौबीस घंटे की आया रख ली है।'
   'शादी क्यों नहीं की? पत्नी आ जाती तो आया की जरूरत नहीं पड़ती।'
    'कहते हैं, पता नहीं पत्नी कैसी आये और मां के लिए सिर दर्द बन जाये।'
    ' तो क्या कुमारे ही रहेंगे?'
    ' यह वही जाने।'
   नीलम को सपन दा साधारण मनुष्य से परे, विशिष्ट और विलक्षण व्यक्ति लगे। वह स्वयं अंतर्मुखी थी इसलिए सपन दा उसे बहुत अच्छे लगे।
   पिता सजल चौधुरी को एक दिन डेंगू हो गया। महीना भर भोगने के बाद ठीक तो हो गये , मगर नौकरी चली गयी। इससे घर का खर्च चलाने का सारा भार उस पर आ पड़ा। बैंक से लौटती तो मां एक कप चाय के साथ बाजार का लंबा पुरचा थमा देती। जबकि यह सामान तो झरना भी ला सकती थी। पर मां कहतीं, झरना को समान परखने की तमीज नहीं है।
   उसी समय बसकड़ी कहती,-'दीदी! मेरा होमवर्क करवा दिजिए। वरना कल टीचर मारेंगी।'
   पुरुषोत्तम कहता,-‌'दीदी! नया जूता खरीदवा दीजिए, पुराना फट गया है।'
   तभी पिता अपनी जलती बीड़ी दिखला देते कि यह भी लाना है। मां के लिए मीठा पत्ता पान, कत्था और गुलकंद हर हफ्ते लाना जरूरी था। इतने आर्डर सुन कर वह गुस्से से भर कह उठती,-'झरना तू क्यों खामोश है, तुझे कुछ नहीं चाहिए क्या?'
   झरना दीदी के तेवर देख कर डर जाती, कहती,- 'नहीं दीदी ! मुझे कुछ नहीं चाहिए।'
   पूनम तब घर पर नहीं थी वरना वह भी कुछ फरमाइश कर बैठती।
    सजल चौधुरी जब बीस साल के थे, तब उनकी शादी पंद्रह वर्षीया गीताश्री के साथ हुई थी। फिर दो साल बाद नीलम का जन्म हुआ। तब सजल बाबू को एक दफ्तर में क्लर्क की नौकरी मिल गयी, तो बेटी को उन्होंने ने अपने लिए लक्की माना।
  फिर तीसरे साल में झरना, पांचवे में पूनम और सातवें साल में जब फिर कन्या रत्न की  प्राप्ति हुई , तो उसका नाम रखा गया 'बस कड़ी।'यानी अब कन्याओं के आगमन की शृंखला बंद हो। तब चार बहनों के बाद भाई आया पुरुषोत्तम।
   नौकरी जाने के बाद सजल बाबू बरामदे में बैठे लोगों को देखते और बीड़ी सुड़कते रहते। अब यही उनकी दिनचर्या थी। अभी वे हट्टे-कट्टे और काम करने लायक थे। अनुभवी थे। दौड़धूप करते तो कोई न कोई नौकरी अवश्य मिल जाती। तब हाथ पीले कर के वह भी ससुराल चली गयी होती। बड़ी संतान के नाते पहले उसी की शादी होती। पर बाप को न बेटी पर रहम था, न मां को चिंता, जो पति के नाम की माला जपने के सिवा कुछ न सोचती।
   वह यह भी महसूस कर  रही थी कि मां की पतिभक्ति बाप को निकम्मा बना रही थी। वह सोचती होगी, जब बेटी कमा रही है तो पतिदेव को आराम करने दो।
   उसे रह रह कर मां-बाप पर गुस्सा आ रहा था, जिन्होंने बच्चों की एक बटालियन तो खड़ी कर दी, पर यह नहीं सोचा कि पैदा करने के बाद उनकी और भी जिम्मेदारियां हैं, जिनके प्रति वे उदासीन हैं और उन्हें नीलम को निभाना पड़ रहा है। यानी वह पैसा बनानेवाली मशीन और घर वालों की देखभाल और सेवा करने वाली अवैतनिक नर्स जैसी थी। 
   वह चौबीस साल की हो गयी थी। उसका भी अरमान था पत्नी और मां बनने का। उसके भविष्य के संबंध में न तो मां को चिंता थी, न बाप को। क्योंकि दोनों जानते थे कि अगर उसकी शादी कर दी गयी, तो घर गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलेगी? पैसे कहां से आयेंगे? सब उससे अपना स्वार्थ साधने में लगे थे।
   अपने अरमानों को दफना कर , दूसरों की खवाहिशें पूरी करना, खुद बीमार पड़ जाये , तो उसकी ओर किसी का ध्यान न देना, उसके भाग्य में जैसे यही लिखा था।
    कभी-कभी वह ऊब कर सोचने लगती,चलो कहीं भाग चलें। इन सबको पालने का मैंने ठेका ले रखा है क्या? तीनों बहनों और भाई की शादी तक तो मैं बूढ़ी ही हो जाऊंगी। तब कौन मुझसे शादी करेगा? जब जवानी में मेरा सुख-दुख पूछनेवाला कोई नहीं है, तो चलने-फिरने में मोहताज का कौन सहारा होगा बुढ़ापे में? तभी तो लोग सहारे के लिए संतान चाहते हैं। इस कल्पना मात्र से वह सिहर उठती और बहुत देर तक भविष्य के ताने-बाने बुनती रहती।
   उसे याद आ जाते सपन दा। जो अपनी मां को अपने प्राणों से भी ज्यादा चाहत हैें क्योंकि उनकी मां भी उनको बेहद प्यार करती हैं। मगर उसकी मां ने कभी नहीं पूछा -'बेटी कैसी हो?'
    कभी उसे लगता , उसके परिवार वाले पुराने जन्म के सूद पर कर्ज देने वाले काबुली हैं , जो उसे दिया कर्ज इस जन्म में दुगने सूद के साथ वसूल रहे हैं।
    फिर वह सोचती बड़ा होना भी अभिशाप है।वह नीलम के बजाय झरना, पूनम, बस कड़ी या पुरुषोत्तम होती, तो आज वह इतनी उपेक्षित न होती।
    एक दिन वह बैंक से छुट्टी होने पर टहलने व मन बहलाव के लिए पास के गार्डन में चली गयी। वहां रंग बिरंगे सुगंधित फूलों की शोभा देखती ही बनती थी। सुवासित पवन के झकोरे उसे आनंद विभोर किये दे रहे थे। तभी उसकी नजर कैक्टस के एक गोलाकार समूह पर पड़ गयी, जो एक गुलाब को घेरे हुये और  जब गुलाब हवा के झोंके से झूमने लगता तो कैक्टस के कांटे चारों ओर से उसकी पंखुड़ियों को मार-मार कर छलनी किये दे रहे थे। यह देख कर वह विचलित हो उठी।
    उसने पास ही नये पौधे रोप रहे बुजुर्ग माली से कहा,'काका! यह क्या हो रहा है?'
    माली ने पास आकर पूछा,-'क्या हो रहा है बिटिया?'
    ' ये हत्यारे कैक्टस गुलाब को मार-मार कर घायल किये दे रहे हैं।'
     माली ने गुलाब की ओर देह्व कर कहा,'अब क्या हो सकता है बिटिया?'
     'गुलाब को उखाड़ कर दूसरी जगह लगा दो काका।'
    ' नहीं बिटिया! गुलाब की जड़ें अब इतनी गहराई तक चली गयी हैं कि अगर उसे उखाड़ा गया, तो वह मुरझा कर मर जायेगा।'
     घर लौटते समय नीलम सोचने लगी, वह भी उसी गुलाब की तरह कैक्टस से घिर गयी है, जिस घेरे से वह अब निकल नहीं पायेगी। उसे अपने चारों ओर कैक्टस के कांटे चुभते हुए से लगे, अनुभूति से वह कांप-कांप उठी।