क्या जमाना आ गया
-राजेश त्रिपाठी
आदमी से आदमी घबरा रहा, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
हर तरफ जुल्मो-सितम की मारी आधी आबादी है।
आप ही कहिए भला क्या यही हासिले आजादी है।।
कुफ्र है, कहर है, कराह है औ चार सूं जुल्मशाही है।
हे मेरे भगवान मेरे मुल्क में क्यों आलमे तबाही है।।
अब तो धीरज भी डगमगा रहा, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
दुस्शासनों का राज ऐसा जहां लुट रहीं पांचालियां।
जो हैं रक्षक सुस्त हैं या कर रहे लनतरानियां।।
जाग उट्ठा देश सारा पर लगता सो रहा निजाम है।
बस बहस-मुबाहिसों में गुजरते उनके दिन तमाम हैं।।
हर ओर इक अजाब है, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
कुछ लोग है जिनको फकत कुर्सियों की फिक्र है।
इनके लिए बरबादिए वक्त, आम इंसा का जिक्र है।।
इनकी मसनद सलामत रहे, मुल्क जाये खाक में।
चाहे हो जितनी तबाही, बट्टा न आये धाक में ।।
आदमी शैतान होता जा रहा क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
हमने चाही थी फकत अमनो-चैन की जिंदगी।
पर सियासत में भरी है इस कदर से गंदगी।।
आदमी को लगता है जैसे खा गयी हैं कुर्सियां।
आदमी को अब तो मानो आदमी खाने लगा है।
हर तरफ है तारी है नाइंसाफी, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
एक पिद्दी-सा देश हमको इस कदर आंखे दिखा रहा।
जैसे कि सारा हिंदुस्तान बस उसका दिया ही खा रहा।।
हम बढ़ाते दोस्ती में फूल वह दुश्मनी जतला रहा है।
हमने उसको दोस्त माना, वह पैंतरे दिखला रहा है।
न जाने हमारी क्या है लाचारी, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
अब सही जाती नहीं जो रीति सियासतादान हैं अपना रहे।
हम तो आजिज हैं गमों से ये हमे आजकल बहला रहे।।
कितनी चालें, कितने शिगूफे और कितने सब्ज खवाब।
बहुत देखे और भोगे माफ कीजै अब आला जनबा।।
हर तरफ शिकायतों का दौर है, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
मेरे वतन के भाइयों गर आपको हिंदोस्तां से प्यार है।
मुल्क के बारे में अब कुछ नया सोचने की दरकार है।।
खामोशियों को तोड़िये अब वक्त आया है इंकलाब का।
सवालों से घिरी रहीं सदियां अब वक्त आया जवाब का।।
आस भी हो रही निरास, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
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