ताकि सुरक्षित रहें हमारी बहू-बेटियां
राजेश त्रिपाठी
16 दिसंबर 2012 की मनहूस रात में नयी दिल्ली में मानव के भेष में
कुछ दानवों ने देश की एक बेटी के साथ जो दानवीय अत्याचार किया, उसने सारे विश्व को
हिला दिया। इस बेटी को दुनिया ने एक नाम दिया निर्भया। निर्भया इसलिए कि वह पाशविक
अत्याचार झेलने के बाद भी अपने खिलाफ हुए अन्याय के खिलाफ आखिरी सांस तक बेखौफ
लड़ती रही। उसकी जिंदगी को बचाने की हरचंद कोशिश की गयी। इलाज के लिए सिंगापुर तक
भेजा गया लेकिन उस पर इतना अमानवीय अत्याचार हुआ था कि आखिर जिंदगी हार मान गयी। देश
की उस बेटी का कुछ भी नाम रहा हो, हम उसे निर्भया के नाम से ही जानते हैं। वह चली
गयी और अपने पीछे छोड़ गयी कई अनुत्तरित सवाल। सवाल ऐसे जिनके जवाब समाज को हर हाल
में तलाशने होंगे, इसके साथ ही वे उपाय भी खोजने होंगे जिससे भविष्य में देश की हर
निर्भया निडर होकर ससम्मान अपनी जिंदगी जी सके। जिन दरिंदों ने निर्भया के साथ
अमानवीय व्यवहार किया वे दोषी साबित हो गये हैं। उनमें से एक ने तो ग्लानि के चलते
हिरासत में ही फांसी लगा कर जान दे दी। बाकी को सजा मिलेगी ही। सारी दुनिया चाहती
है कि इन्हें ऐसी सजा मिले जो मिसाल बने और भविष्य में कोई भी अपराधी ऐसा जघन्य
अपराध करने से पहले कांपे।
निर्भया के साथ जो भी अत्याचार हुआ वह कंपा देने और दहला देने वाला
है। मीडिया और जनता के दबाव के चलते पुलिस ने इस मामले में जिस तरह तत्परता और
शीघ्रता से काम किया वह भी काबिले तारीफ है। काश भविष्य में भी हर अपराध की घटना
में वे इसी तरह तत्परता और निष्ठा दिखायें। पिछले साल हुई नयी दिल्ली की इस
घटना ने एक सवाल यह भी खड़ा कर दिया है कि आखिर समाज में ऐसी विकृति क्यों और कहां
से आ गयी कि यत्र नार्यास्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता की अवधारणा वाले देश में
नारियों का निरादर और शीलहरण होने लगा। बलात्कार की घटनाओं में अचानक आयी वृद्धि
ने यह सवाल खड़ा किया है कि समाज के एक वर्ग का मानस विकृत और वीभत्स होता जा रहा
है। वह अपना विवेक और मानव सुलभ धर्म और विचार खो बैठा है। अगर उसे कुछ याद है तो
सिर्फ और सिर्फ भोगलिप्सा। उसके लिए नारी पूज्या नहीं सिर्फ भोग्या बन गयी है। वह
किसी वर्ग या उम्र की हो उसे देखते ही उसके दिल दिमाग में उसे भोगने की दानवीय
लालसा कुलांचे मारने लगती है और वे विचार और आचार दोनों से अंधे हो जाते हैं।
सोचना यह होगा कि आखिर समाज में यह विकृति कैसी आयी। सृष्टि की
आधार नारी जो समाज और घर का भी आधार और शृंगार है अचानक सिर्फ भोग की वस्तु क्यों
बन गयी। माना सेक्स भी एक मानवीय जरूरत है लेकिन यह दाल-भात की तरह तो नहीं जिसके
बगैर जीना मुहाल हो जाये। सच यह है कि लोगों में इंद्रिय निगृह की शक्ति नहीं रही
और वे अपनी इंद्रियों के गुलाम हो गये हैं। मानव के जो शत्रु हमारे प्राचीन
ग्रंथों में बताये गये हैं उनमें एक ‘काम’ भी है। अगर व्यक्ति काम के वशीभूत हो
गया तो वह अंधा हो जाता है। वह अपना विवेक को बैठता है और ऐसा अपराध कर बैठता है
जिसके बारे में सामान्य तौर पर कोई सोचता तक नहीं। आजकल जिस तरह से नाबालिग, अबोध
बच्चियों, मानसिक रूप से विक्षिप्त, गूंगी-बहरी लड़कियों और उम्रदराज महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं की खबरें आ रही हैं उससे
साफ लगता है कि हमारे समाज का एक हिस्सा बीमार हो गया है। विकृत हो गया है उसका
सोच। खो गयी है अच्छे-बुरे में फर्क करने की शक्ति। यह वर्ग खूंखार और हिंस्र हो
गया है। अकेली औरत पर यह उसी तरह टूटने और उसे लूटने लगा है जैसे कोई आदमखोर जानवर
अपने शिकार पर झपटता है। समाज का यह हिस्सा एक ऐसा नासूर है जिसका इलाज आवश्यक है
ताकि भविष्य में बहू-बेटियां घर से बाहर निर्भय होकर निकल और स्वच्छंदता से जी
सकें। इस वर्ग का उपचार जरूरी है और अगर उपचार न किया जा सके तो ऐसे नासूर को समाज
से काट फेंकने का उपाय करना चाहिए। हमें नहीं लगता कि सड़ा-गला हिस्सा समाज के
किसी काम का हो सकता है।
समाज में जो सड़न आयी है, इसका जो हिस्सा खूंखार और वहशी हो गया है
उसके प्रति सचेत होना, उसका कोई उपचार खोजना समाज के हर प्रबुद्ध व्यक्ति का
कर्तव्य है। यह हर उस माता-पिता के लिए चिंता और भय का प्रश्न है जिनके घर पर बेटियां
हैं। इस वर्ग को संभाला न गया तो आनेवाला समय और भी भयावह हो जायेगा। बहू-बेटियों
का जीना मुहाल हो जायेगा। आखिर क्यों हुआ ऐसा। समाज में संस्कारों की कमी भी इसका
एक अहम कारण है। अगर किसी बच्चे को बचपन से ऐसे संस्कार दिये जायें कि बड़ों का
सम्मान करना उसका धर्म है, महिलाओं को माता, बहन की तरह आदर देने की बात बतायी
जाये। वह बड़ा हो तो उसे बताया जाये कि दुनिया में एक स्त्री उसके जीवनसंगिनी के
रूप में तय है, वह उसके जीवन में आनी ही है इसलिए वह दूसरी महिलाओं को सम्मान और
श्रद्धा की दृष्टि से देखे। उसे अच्छे संस्कार दिये जायें, महिलाओं के साथ
दुर्व्यवहार के परिणामों से आगाह किया जाये तो संभव है कि वह गलती करने से बच सकता
है। मानकि कुछ लोगों को यह महज एक प्रलाप या सिर्फ कोरा खयाल लग सकता है पर ऐसा करके देखने में तो कोई हर्ज नहीं। आज
समाज बहुत खुल गया है। हम मानते हैं कि बच्चों को आजादी मिलनी चाहिए, अपनी तरह से
जीने की आजादी लेकिन उतनी ही आजादी जो उनके लिए जरूरी हो। ज्यादा आजादी का मतलब है
उन्हें बहकने और राह से भटकने का मौका देना। आज उन्हें इंटरनेट में सोशल मीडिया व
वेबसाइट्स ने ऐसे साधन जुटा दिये हैं जिससे अगर वे संस्कारवान हैं तो ज्ञान
प्राप्त कर सकते हैं और अगर बहक चुके हैं तो पोर्नोग्राफी और दूसरी साइट्स से अपने
दिमाग को विकृत कर लेंगे और सेक्स के भूखे भेड़िए बन जायेंगे। इंटरनेट सूचना का ऐसा
माध्यम है जिससे आप एक क्लिक से विश्वज्ञान से कुछ भी पा सकते हैं लेकिन
सर्वेक्षणों से जाहिर हुआ है कि अधिकांश किशोर और युवा इसकी गंदी साइट्स में ही खोये
रहते हैं। विदेश में तो स्थिति यह है कि अभिभावकों को अपने बच्चों को गंदी साइट्स
के नशे से बचाने के लिए नेट नैनी, आई प्रोटेक्ट यू जैसे साफ्टवेयरों का सहारा लेना
पड़ा है जिससे वे अपने बच्चों को इस बीमारी से बचा सकें। यह स्थिति चिंताजनक है।
किशोर मन ऐसी कच्ची मिट्टी के समान होता है कि उसे जिस तरह ढाला जाये, वह उसी तरह
ढल जायेगा। अगर आप उन्हें पूरी तरह आजाद कर देंगे, उनके व्यवहार पर नजर नहीं
रखेंगे तो संभव है वे गलत संगत में बहक जायें। राह भटक जायें क्योंकि उस उम्र में
उनमें वह परिपक्वता नहीं होती कि अच्छे-बुरे में फर्क कर सकें। हाल ही में एक
निर्णय आया है कि अगर नाबालिग से उसकी सहमति से सेक्स किया जाये तो वह अपराध नहीं
माना जायेगा। ऐसे बेतुके निर्णयों से हम समाज को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं।
इस तरह के निर्णयों का अर्थ है उनमुक्त सेक्स की पक्षधर आज की युवा पीढ़ी को सेक्स
की ऐसी अंधी सुरंग में धकेलना जिसके दूसरे सिरे में भी रोशनी नहीं। ऐसे निर्णय तो
किशोर पीढ़ी में उनमुक्त सेक्स को बढ़ावा देंगे क्योंकि उन्हें कानून का भय नहीं
होगा। सेक्स और नशे में डूबी किशोर और युवा पीढ़ी किसी राष्ट्र के लिए गर्व का
विषय तो नहीं हो सकती और चाहे जो कुछ भी हो।
हमें पतन की ओर तेजी से बढ़ रहे समाज को बचाना है तो बच्चों में
ऐसे संस्कार लाने होंगे जिससे उनमें, विनम्रता, शालीनता और सदाचारिता जैसे उत्तम
गुणों का संचार हो। आज सेक्स की शिक्षा स्कूलों में देने की बात हो रही है। अवश्य
दीजिए शिक्षा लेकिन इसमें ऐसा भी कुछ जोड़िए जो युवा पीढ़ी को उच्छृंखल और अनैतिक
सेक्स संबंधों से रोके। यह भी सिखाये कि सेक्स की अपनी एक निश्चित आयु होती है और
इसमें भी सामाजिक वंदिशों और नियमों का ध्यान रखना आवश्यक है। अगर समाज में
स्वच्छता, शालीनता लाने का प्रयास किया जाये तो शत प्रतिशत न सही कुछ लोग तो सही
दिशा पा जायेंगे। संभव है कि उन्हें देख कर बाकी लोग भी वैसे ही बनने की कोशिश
करें। मान लीजिए कि ऐसा कुछ होने की आशा नहीं तो भी क्या हम समाज के लिए कुछ ऐसा
करने का प्रयास छोड़ दें? हमें समाज को पूरी तरह से वहशी होने से बचाना ही है यह
हमारा फर्ज है और हमारी विवशता भी क्योंकि आज जिस आग से किसी का दामन झुलसा है
जरूरी नहीं कि वह हमारे दामन तक न आये। समाज के लिए कुछ भी भला करने का अर्थ तो
यही है कि हम अपना ही भला कर रहे हैं।
आजकल जब पिता को पुत्री से, किसी युवक को 70
वर्ष की वृद्धा से बलात्कार करने की खबर पढ़ने को मिलती है तो ऐसे लोगों को जी भर
गाली देने और कोसने का जी करता है। पश्चात्ताप होता है कि समाज कितना गिर गया है,
इनसान कितना अंधा हो गया है। ईश्वर करे हमारे समाज में फिर से शुचिता आये, नारी की
अस्मिता पर आघात न हो, उसे उसका उचित सम्मान मिले। नारी मां है, नारी बहन है, नारी
भार्या है और अन्य अनेक रूपों में भी नारी समाज को गढ़ने उसे संस्कार देने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। वह पूज्या है आदरणीया है। उसकी पूजा न कर सकें तो
कम से कम उसे सही सम्मान तो दें, उसे भोग्या नहीं आदरणीया समझें। खूंखार होते इस
समाज को अगर अभी नहीं संभाला गया तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। आज बलात्कार और नारी
हत्या की खबरें दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। आधी आबादी आज आर्तनाद कर रही है न वह
घर में सुरक्षित है न बाहर। घर में रिश्तेदारों की लोलुप गिद्ध दृष्टि उसके शरीर
को बेधती रहती है तो बाहर उसे नोंचने-खसोटने को बेताब मानवरूपी भेड़ियो का भय। नारी
जाये तो कहां जाये, अपना दामन कैसे बचाये। नारी जननी है उसके प्रति हमारा कर्तव्य
है कि हम उसे ऐसा माहौल दें जहां वह गर्व के साथ, निर्भय होकर जी सके। उसे पुरुष
के बराबर का दर्जा मिले। एक बात और अगर कोई महिला बलात्कार का शिकार होती है तो
उसके प्रति समाज का रवैया ही बदल जाता है, उसे कुलटा, बदचलन और न जाने क्या –क्या कहा व
हिकारत की नजर से देखा जाता है। जबकि उसके साथ जो अत्याचार हुआ उसमें उसका कोई दोष
नहीं होता। उसके प्रति सहानुभूति होनी चाहिए और हिकारत व नफरत तो उस नराधम पर होनी
चाहिए जिसने उसकी अस्मत पर आघात किया है। यह समाज और कानून व पुलिस व्यवस्था का
कर्तव्य है कि वह ऐसी पीड़ित महिला की पूरी तरह से मदद करे। अक्सर बलात्कार पीडि़त
महिला से इस तरह के सवाल किये जाते हैं कि वह एक तरह से बार-बार ऐसे अत्याचारों से
जूझती है। कुछ महिलाएं इसी डर से खामोश बैठ जाती हैं और बलात्कार की घटनाओं की
शिकायत ही दर्ज नहीं हो पातीं। गांवों की महिलाएं तो इतनी दबी-कुचली हैं कि वे
पुरुष वर्ग के द्वारा किये गये ऐसे किसी अत्याचार को अपनी नियति मान कर खामोश बैठ
जाती हैं। वहां अक्सर ऐसी घटनाएं होती हैं लेकिन इनकी शिकायत तक दर्ज नहीं हो
पाती। किसी महिला के साथ बलात्कार किया जाना उसकी हत्या से भी बड़ा अपराध है।
बलात्कार पीड़ित महिला के लिए अचानक समाज का व्यवहार ही बदल जाता है। जिस नराधम ने
उसके साथ ज्यादती की उसके साथ बुरा सलूक होना चाहिए लेकिन समाज उलटे पीड़िता पर ही
लांक्षन और तानों की बौछार शुरू कर देता है। होना यह चाहिए कि जिस व्यक्ति पर
बलात्कार का दोष सिद्ध हो गया हो उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाये क्योंकि वह
जिस समाज का हिस्सा है उसी के साथ उसने अनर्थ किया है। लेकिन ऐसा होता नहीं है,
बलात्कारी तो शान से ऐंठता खुलेआम घूमता रहता है और बेचारी पीडि़ता नारी शर्म और
बेचारगी से पल-पल घुट कर मरने को मजबूर हो जाती है। वक्त आ गया है जब बलात्कार
रूपी बुराई से निपटने के लिए समाज को सारी कोशिश झोंक देनी चाहिए। ऐसा न किया गया
तो आने वाले समय में किसी भी घर की बहू-बेटी सुरक्षित नहीं रह पायेगी। समाज को
सुधारना, उसे सदाचार की राह में मोड़ना आज वक्त का तकाजा भी है और मानव धर्म भी।
आइए हम सब अपने-अपने स्तर पर समाज को बचाने के लिए प्रयास करें। आखिर जिस समाज में
हम जी रहे हैं उसके परिष्कार का दायित्व भी तो हमारा ही है। इसे सुधारने दूसरे लोक
से तो कोई आनेवाला नहीं।
सार्थक लेख !
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