राजनीति का यह कृष्णपक्ष देश-समाज को कहां ले जायेगा
राजेश त्रिपाठी
राजनेता, सांसद, विधायक हमारे नीति नियामक हैं। ये
देश चलाते हैं, देश के लिए नीति बनाते हैं। हम सबकी धारणा यही होती है कि ये
श्रेष्ठतम हैं तभी इन पर देश या राज्य का भार सौंपा गया है। ये शालीन हैं, सभ्य
हैं और इनके आचरण अनुकरणीय होंगे लेकिन पिछले कुछ सालों से राजनेताओं के आचरण और
व्यवहार में जो गिरावट आयी है, वह चिंताजनक है। नेता सकारात्मक आलोचना से अब
अपशब्दों और गाली-गलौज पर उतर आये हैं। आप लोगों में से जिसने भी संसद की
कार्यवाही का सीधा प्रसारण देखा होगा वे इस बात के गवाह हैं कि पिछले कुछ अरसे से
संसद हंगामे और आपसी नोंकझोंक का अखाड़ा बन कर रही गयी है। गणतंत्र के इस पावन
मंदिर में भी लोग अपनी वाणी पर नियंत्रण नहीं रख पाते और ऊल-जलूल तक बोल जाते हैं।
संसद गणतंत्र का आधार होती है और देश की जनता का उस पर बड़ा भरोसा रहता है। इसको
विभूषित करने वाले हर सदस्य का परम कर्तव्य होता है कि वह उसे सुचारु रूप से चलने
दे, उसमें विधायी कार्यों को भी आसानी से होने दे। विपक्ष को चाहिए कि वह
सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाये और संसद को बाधित करने के लिए विषयों को न
उलझाये। सत्ता पक्ष को भी अपने दायित्व को भलीभांति निभाना चाहिए।
राजनीति
में आचरण और आचार का किस कदर पतन हो रहा है, इसकी हालिया मिसाल राजनेताओं के उन
भाषणों से मिल रही है जो राजनेता अपने चुनाव प्रचार के दौरान कर रहे हैं। हालांकि
अभी 2014 के आम चुनावों की विधिवत घोषणा भी नहीं हुई लेकिन इसके लिए नेताओं का
जबानी युद्ध चरम पर है। एक तरह से कहें तो 2014 के समर की शुरुआत हो गयी है और वह
भी बेहद आक्रामक और चोट पहुंचाने वाली तर्ज पर। अपने भाषणों में नेता यह तो बता नहीं
रहे कि वे देश के लिए क्या करेंगे हां प्रतिपक्ष को अपने भाषणों के तार-तार करने
में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। ऐसे में कबी-कभी वे शालीनता की सीमाएं तक पार कर जाते
हैं। ऐसा तक बर जाते हैं जो उनके व्यक्तित्व को शोभा नहीं देता।
आजकल
चुनाव प्रचार पूरी तरह से एक युद्ध हो गया है। आप तभी प्रभावी नजर आयेंगे जब
ओजस्वी भाषण देंगे और शब्दबाण चलाने में प्रतिपक्ष से बीस नजर आयेंगे। इस चक्कर
में कभी-कभी इन नेताओं का वाणी में नियंत्रण नहीं रहता और वे ऐसी अशालीन बात कह
जाते हैं जिससे उनकी योग्यता और समझ पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। नियम यह होना
चाहिए कि आप अपनी पार्टी की देश के लिए नीतियों का बखान करें कि आप देश के लिए
क्या करनेवाले हैं। जो वर्तमान में सत्ता में हैं उनकी गलतियां गिनाने की बजाय
अपनी योजनाएं, देश के विकास के लिए अपने विजन को पेश कीजिए। सत्ता पक्ष ने क्या
किया क्या नहीं यह तो जनता देख ही रही है आप अपना पक्ष रखिए। जब आप ऐसा करेंगे और
अपनी बातों पर ही सीमित रहेंगे तो किसी को गाली देने या अपशब्द करने की जरूरत ही
नहीं पड़ेगी। जब आप धैर्य खो बैठते हैं, आक्रामक हो जाते हैं और कोई चारा नहीं
दीखता तभी न आप ऊल-जलूल इलजामों और अशालीन शब्दों में आ जाते हैं।
एक वक्त
था जब ऐसे नेता थे जो जनप्रिय थे, अपने क्षेत्र में अच्छा कार्य करते थे। लोगों का
उन पर अटूट विश्वास होता था। इन लोगों को अपने चुनाव प्रचार के लिए न करोड़ों
रुपये खर्चने पड़ते थे और न ही लाखों पोस्टर ही लगाने पड़ते थे। वे बस एक-दो बार
इलाके में हाथ जोड़ कर घूम जाते थे और उन्हें सबका समर्थन मिलता था। तब हम लोग
कालेज में पढ़ते थे और जब नेता की जीप आती तो हम लोग भी उसके पीछे भागते थे उनकी
पार्टी के चुनाव चिह्न वाले प्लास्टिक के बिल्लों को पाने के मोह में। नेता जी अपने
लोगों के साथ इलाके में घूमते, कई जगह जनसभाएं करते और बताते की इलाके के लिए अपनी
भविष्य की योजनाएं बताते लेकिन अपनी खिलाफ खड़े नेता को खरी-खोटी कभी नहीं सुनाते
थे। यह सिलसिला काफी अरसे तक चला। राजनीति में जब से बाहुबल और धनबल का चलन हुआ,
तभी से चुनाव एक गणतांत्रिक त्योहार न रह कर एक तरह से चुनावी समर हो गये। इनमें
बूथ लूटने, जाली वोट डालने के साथ-साथ अस्त्रो-शस्त्रों के बल पर बूथ पर कब्जा
करने की घटनाएं बढ़ने लगीं। इसके बाद ही नेता आपस में एक-दूसरे पर ऊलजलूल इलजाम
लगाने और अपशब्द का प्रयोग करने लगे।
होता यह
है कि पार्टी के नेता अपने विपक्षी दल के नेता के खिलाफ अपशब्द बोलते हैं और
पार्टी उसे उनका व्यक्तिगत बयान कर पल्ला झाड़ लेती है। होना यह चाहिए कि उन पर
अनुशासनात्मक कार्रवाई हो, उन्हें ताकीद की जाये कि वे शालीनता की सीमा न लांघें।
हाल में कांग्रेसी नेताओं और भाजपा के नेताओं को भी चुनावी भाषणों में ऐसे शब्दों
का इस्तेमाल करते देखा गया जो शायद वे न करते तो बेहतर होता। मतदाताओं को लुभाने
के लिए नेता कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते। हर आदमी दूसरे से बीस साबित होना
चाहता है। जब भाषण देते-देते उनके शब्द चुकने लगते हैं तो वे अपशब्दों में उतर आते हैं ताकि अपने
विपक्षी से ज्यादा असरदार और आक्रामक लगें और मतदाताओं को लगे कि उनका नेता जुझारू
है, लुंज-पुंज नहीं, आक्षेप का जवाब जोरदार ढंग से देना जानता है। लेकिन इसी चक्कर में वे अशालीन हो जाते हैं और
उनके आचरण पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है।
2014 के
चुनाव किसी भी दल के लिए उतने आसान नहीं होने वाले। सत्ता पक्ष के सामने जहां
तरह-तरह के घोटालों और बढ़ती महंगाई के अलावा दूसरे मुद्दों का भूत खड़ा है वहीं
विपक्षी भाजपा की राह भी आसान नहीं। उनके राजग गठबंधन के कई साथी उनसे दूर छिटक
गये हैं और फिलहाल ऐसे कोई आसार नहीं कि वे वापस इससे जुड़ेंगे। ऐसे में भाजपा
अपनी लहर होने का चाहे जितना भी दावा करे अकेले क्या राजग के बचे-खुचे साथियों को
लेकर भी सत्ता बनाने की संख्या तक पहुंच पाना उसके लिए भी आसान नहीं। जहां तक
कांग्रेस के संप्रग गठबंधन का सवाल है तो कई
घोटालों, भ्रष्टाचार और महंगाई के चलते वह भी एक तरह से जनता का विश्वास खो
बैठी है। एक सुगबुगाहट तीसरे मोर्चे की भी बतायी जाती है लेकिन पता नहीं कि उसमें
ऐसे कौन से दल हैं जो इतने सांसदों को जिता कर लाने में सफल होंगे कि मोर्चा दिल्ली
में सरकार बनाने के काबिल हो सके। अब का दौर मिली-जुली सरकारों का दौर है। कितनी
भी हवा या आंधी चले दिल्ली की गद्दी पर अकेले कब्जा जमाने की कूवत किसी भी दल में
नहीं है।
राजनीति
के इस दौर ने नेताओं को आक्रामक बना दिया है। उन्हें येन-केन प्रकारेण सत्ता पर
कब्जा जमाना है अब इसके लिए भले ही विपक्षी को अपशब्द ही क्यों न कहने पड़ें या
अप्रासंगिक या बेतुके आरोप ही क्यों न लगाने पड़ें। नरेंद्र मोदी के भाषण ओजस्वी
होते हैं और वे अपने प्रतिपक्ष पर प्रहार भी बहुत जोरदार ढंग से करते हैं। उनके
पास भाषण की कला है जो कांग्रेस के अघोषित प्रधानमंत्री राहुल गांधी के पास नहीं
है। राहुल अपनी बातें प्रभावी ढंग से कहने की कोशिश तो करते हैं लेकिन उनकी शैली
अभी भी ऐसी है जिसमें तारतम्यता और उस असर की कमी है जो एक भाषण को प्रभावी बनाती
है। उन्होंने हाल ही में अपने परिवार और अपनी निजी व्यथा का बयान कर लोगों की
संवेदनाओं सेस जुड़ने की कोशिश जरूर की। उनके इस प्रयास को नरेंद्र मोदी ने
पारिवारिक सीरियल का नाम दिया। अब मोदी के शब्द आये तो फिर कांग्रेसियों ने भी
जवाब देना शुरू कर दिया। जाहिर है जब कोई बयान गुस्से में दिया जायेगा तो उसके
शब्दों में भी वह परिलक्षित होगा। वही हुआ भी। कांग्रेस के दो नेता दिग्विजय सिंह
और बेनीप्रसाद वर्मा अपने बेतुके और आपत्तिजनक बयानों से अपनी पार्टी को मुश्किल
में डालते रहे हैं । पार्टी भी इनकी बातों से अपना पल्ला झाड़ने को बाध्य होती रही
है। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब ये नेता या प्रवक्ता सार्वजनिक जगहों पर ऐसे बयान
देते हैं तो यह व्यक्तिगत कहां रह जाता है। इन नेताओं की हैसियत तो वहां उस दल के
नेता के रूप के रूप में ही होती है, दल का परिचय हटाने के बाद तो यह सामान्य
नागरिक होते हैं । लेकिन कोई दल अपने नेताओं के ऊलजलूल बयानों की जिम्मेदारी नहीं
लेना चाहता क्योंकि तब इसका दोष पूरी तरह से उस पर आ जायेगा।
नरेंद्र
मोदी पर समाजवादी पार्टी के नेता नरेश अग्रवाल ने जिस तरह की अशालीन टिप्पणी की वह
राजनेताओं के आचरण की गिरावट और वाणी के पतन की पराकाष्ठा को जाहिर करता है। जाहिर
है कि इसकी कड़ी प्रतिक्रिया होनी थी। समाजवादी पार्टी ने भी तुरत इससे खुद को अलग
कर लिया और ऐसे संकेत भी मिले कि उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई भी हो सकती है।
प्रश्न
यह उठता है कि आखिर नेताओं को अपनी हैसियत या व्यक्तित्व का लोहा मनवाने के लिए अपशब्दों
की आवश्यकता क्यों पड़ने लगी। पहले के नेता तो किसी को गाली-गलौज दिये बगैर लोगों
के दिलों पर राज करते थे। आज के नेता इतने कमजोर क्यों हो गये कि उन्हें आक्रामक
होना पड़ा और अपशब्दों पर उतरना पड़ा। आज नेता अपने कामों का बखान कम अपने विपक्षी
की विफलताओं का ज्यादा बखान करने लगे हैं। विपक्षी को कोसने में वे वाणी पर काबू
नहीं रख पाते और ऊल-जलूल बयान दे बैठते हैं। आजकल राजनीति छल-छंद, बेतुक बयानबाजी
और डफोरशंखी घोषणाओं पर आधारित हो गयी है यही वजह है कि इससे शालीनता और गंभीरता
दिनोंदिन गायब होती जा रही है।
हाल के दिनों में नेताओं
के चुनाव प्रचार भाषणों में गौर करें तो उनमें न विचार नजर आता है नही विजन।
एक-दूसरे पर दोषारोपण और आरोप-प्रत्यारोप करनेवाले ये नेता उन मतदाताओं के लिए
क्या देने वाले हैं जिनसे ये वोट मांग रहे हैं। देश-राज्य के लिए कुछ करना है तो
वह विचारों और कृत्यों में भी दिखना चाहिए। खयाली सब्ज बाग देख-देख कर जनता वर्षों
से ठगती आयी है। बेहतर यह है कि नेतागण यह समझें कि देश के लिए उनका क्या कर्तव्य
है और दूसरों के दोष गिनाने के बजाय वे देश के लिए कितना कुछ कर सकते हैं यह कहें
और इसी पर सीमित रहें। गाली-गलौज की राजीनित न उन्हें कहीं ले जायेंगी और न ही देश
को। यह तो राजनीतिक कटुता बढ़ायेगी और किसी हद तक देश की शांति को भी भंग करेगी।
अशालीन
शब्दों और कटाक्षों का यह दौर राजनीति को क्या देगा। राजनीति का भविष्य क्या होगा।
राजनीति का कृष्णपक्ष देश को किस दिशा में ले जायेगा यह सोचने का वक्त आ गया है। मतदाताओं
को बड़ी-बड़ी हवाई बातों में आकर अपना मत सोच-समझ कर देखना चाहिए। देश उनके हाथों
में दीजिए जो आदर्शवान हों, योग्य हों, जिनकी कथनी-करनी में अंतर न हो। क्योंकि
देश अगर डफोरशंखी घोषणाएं और बेसरिपैर की बातें करनेवालों के हाथ में चला गया तो
फिर जनता को पांच साल तक उन्हें न चाह कर भी ढोना होगा । अब वह समय आ गया है कि इस
बात के लिए जोरदार आंदोलन चलाया जाये कि सत्ता और देश की संसद जनता के प्रति
जवाबदेह हों और जो भी विधायी या अन्य कार्य हों उनमें उस जनता का ध्यान सर्वोपरि
रखा जाये जिससे यह गणतंत्र बनता है तभी जनता का, जनता के लिए जनता के द्वारा
गणतंत्र का सिद्धांत सार्थक और कल्याणकारी होगा।
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