वो तेरा मुसकराना सबेरे-सबेरे
राजेश
त्रिपाठी
वो तेरा मुसकराना सबेरे-सबेरे।
ज्यों बहारों का आना सबेरे-सबेरे।।
पागल हुई
क्यों ये चंचल हवा।
आंचल
तेरा क्यों उड़ाने लगी।।
बागों
में कोयल लगी बोलने ।
मन मयूरी
को ऐसा लुभाने लगी।।
कामनाओं ने लीं फिर से अंगडाइयां।
जो तुम याद आयीं सबेरे-सबेरे।।
मौसम में
रौनक नयी आ गयी।
हर तरफ
रुत बसंती है छा गयी।।
मन हुआ
बावरा तेरे प्यार में।
तुम बिन
भाता नहीं कुछ संसार में।।
तुम नहीं तो ऐसा मुझको लगा।
मन गया हो ठगा सबेरे-सबेरे।।
तुम जिधर
देखो जिंदगी सांस ले।
तुमसे हर
कली ऐसा एहसास ले।।
गंध भर
दे, तन-मन कर दे मगन।
जग उठे
मन में मिलन की अगन।।
बज उठी हैं हवाओं में शहनाइयां।
क्या तुमने कहा कुछ सबेरे-सबेरे।।
तुम मेरी
जिंदगी, तुम मेरा ख्वाब हो।
हर
सवालों का तुम ही तो जवाब हो।।
तेरी
आंखों में देखे हैं शम्सो-कमर*।
नूर ही नूर है जिधर है तेरी नजर।।
जिंदगी जिंदगी बन गयी।
नजर तुमसे मिली जो सबेरे-सबेरे।।
तुम
विधाता का सुंदर वरदान हो।
तुम
धड़कते दिलों का अरमान हो।।
तुम मेरी
बंदगी, जिंदगी हो मेरी।
तुम मेरी
कामना, कल्पना हो मेरी।।
यों लगा घिरी सावनी फिर घटा।
तुमने जुल्फी संवारीं सबेरे-सबेरे।
* शम्सो-कमर=सूरज-चांद
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