Thursday, February 20, 2014

ये कहां आ गये हम?


संसद से सड़क तक आक्रोश ही आक्रोश
राजेश त्रिपाठी
   आजादी के बाद लोगों ने गुलामी से मुक्ति पा राहत की सांस ली थी। उन्हें लगा था कि अब अपनी सत्ता, अपना शासन होगा, हर हाथ में काम, हर एक के लिए राशन होगा। सोचा यह भी गया था कि देश में शांति, सुव्यवस्था होगी। सच्चा गणतंत्र होगा जो राजतंत्र से परे होगा और जनता के प्रति जवाबदेह होगा। सर्वत्र शांति होगी, कोई वंचित न होगा। वर्ग-वर्ग में न विभेद होगा न द्वैष, चारों ओर प्रेम और सद्भाव होगा। शासक निस्वार्थ जनसेवा में रत होंगे। अब सब कुछ उलटा और अटपटा लग रहा है। राजनीति में स्वार्थ और अवसरवादिता का घालमेल है। सत्ता के मोह ने शासन तंत्र को गण से पूरी तरह काट दिया है। ऐसे में कैसा गणतंत्र, किसका गणतंत्र, आज सत्ता और कुर्सी बचाने के लिए गंदी और गैरकानूनी चालें चली जाती हैं। गणतंत्र का सबसे बड़ा आधार या कहें मंदिर संसद और विधानसभाएं भी अब अराजकता और हुड़दंग का अखाड़ा बन गयी हैं। जनआकांक्षाओं की बलि चढ़ा कर सत्तालोलुप स्वार्थसाधन में इस कदर जुटे हैं कि आज वे जिसे अछूत मानते हैं कल राजनीतिक स्वार्थ के लिए उसी से गठबंधन कर बैठते हैं। सारे आदर्श, सारी शुचिता ताक में रख कर राजनीति की जा रही है। जिसमें और कुछ भी हो नीति का ऩितांत अभाव है। इसके चलते सारा समाज आक्रोशित है। सड़क से संसद तक बस आक्रोश ही आक्रोश। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आजादी के इतने सालों बाद ये कहां आ गये हम?
      माना कि देश ने बहुत तरक्की की है। सूचना तकनीक, औद्योगिक उत्पादन, शिक्षा, चिकित्सा व अन्य क्षेत्रों में हमने विश्व स्तर को छू लिया है। हमारे सूचना तकनीक के इंजीनियर पूरे विश्व में राज कर रहे हैं। भारत की प्रगति पर दूसरे देशों को ईर्ष्या हो रही है लेकिन इस बीच हमारा चारित्रिक पतन सर्वाधिक हुआ है। आज भ्रष्टाचार तो जैसे जीवन पद्धति बन गया है। छोटे से छोटे काम के लिए लोगों को घूस देनी पड़ती है। न दें तो महीनों, सालों भटकते रहें। इतना समय किसके पास है। काम जल्दी चाहिए तो फिर नकद नारायण ढीले करने ही पड़ते हैं। अब तो लोग इसे व्यंग्य में सुविधा शुल्क का नाम देने लगे हैं। आपको किसी दफ्तर में किसी बाबू या क्लर्क से कोई अटका काम कराना है, किसी अपंग या अचल हो चुकी फाइल को आगे बढ़ाना है तो फिर उसे पैसे का टानिक पिलाना ही पड़ेगा। यह एक दिन में नहीं हुआ लेकिन अब यह गहरी जड़ें जमा चुका है और इसे खत्म करना आसान नहीं। अब चाणक्य जैसा दृढ़प्रतिज्ञ कोई नहीं जिन्होंने पैर में चुभनेवाले कुश को समूल नष्ट कर दिया था।
      देश की संसद लोगों के लिए आशा का प्रतीक होती है। वहां संविधान बनते हैं, वहीं से देश की दशा दिशा संवारने के मंसूबे और योजनाएं बनती हैं। अगर वहीं का माहौल बिगड़ जाये तो फिर देश के स्वास्थ्य का क्या होगा? अगर सांसद ही मर्यादा तोड़ कर संसद में हंगामा करने लगें, विधेयक फाड़ने लगें या बैनर लहराने लगें तो फिर शालीनता और शुचिता की उम्मीद किससे करें। ये हमारे नीति नियामक और भाग्य विधाता हैं, अगर यही कानून तोड़ने लगे तो फिर देश को संगठित और सुचारु कौन रख पायेगा। पिछले दिनों संसद और उत्तरप्रदेश व कश्मीर की विधानसभाओं में जो कुछ हुआ उसे किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता। संसद और विधानसभाओं के अपने नियम हैं। आपको किसी चीज पर आपत्ति है तो आप अध्यक्ष के माध्यम से अनुमति लेकर उनके दिये समय पर अपनी आपत्ति जता सकते हैं। इसके लिए काली मिर्च का स्प्रे करना या फिर धक्कामुक्की या मारपीट करना कहां तक जायज है? अब उत्तर प्रदेश के दो दलों के विधायकों को क्या कहें जिनको अपनी बातें कहने के लिए नंगा होना पड़ा। कश्मीर विधानसभा में तो एक विधायक के हाथों विधानसभा का एक कर्मचारी पिट तक गया। वहां एक पीडीपी विधायक को शिकायत थी कि उनकी बात नहीं सुनी जाती। बात कहने-सुनाने का तरीका मारपीट तो नहीं ही होना चाहिए। हमारे देश में गणतंत्र है जहां हर एक को अपनी बात कहने की आजादी है। संसद और विधानसभाओं के अपने नियम हैं, जो भी हो उसका अनुसरण करके ही होना चाहिए।
      अभी तेलांगना विधेयक को लेकर पूरी संसद और आंध्रप्रदेश आंदोलित और उद्वेलित है। आंध्रप्रदेश को विभाजित कर अलग तेलंगाना प्रदेश बनाने के केंद्र सरकार के निर्णय का सीमांध्र क्षेत्र के लोग प्रबल विरोध कर रहे हैं। इसके लिए कांग्रेस को आंध्रप्रदेश के अपने मुख्यमंत्री किरण रेड्डी को खोना पड़ा है। किरण रेड्डी ने तेलंगाना बनाये जाने के विरोध में न सिर्फ मुख्यमंत्री पद बल्कि कांग्रेस की सदस्यता भी त्याग दी है। उनके साथी कई विधायकों ने भी ऐसा ही किया है। लोकसभा में संप्रग सरकार ने जिस तरह से तेलंगाना विधेयक पेश किया और पास कराया, उसे लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। कुछ लोग तो इसे गणतंत्र की हत्या तक करार देने लगे हैं। विपक्ष का कहना है कि तेलंगाना क्षेत्र के मतदाताओं को आकर्षित और अपने पक्ष में करने के लिए कांग्रेस नीत संप्रग सरकार ने इस वक्त तेलंगाना विधेयक पेश और आनन-फानन में  पास कराया है। अलग तेलंगाना आंदोलन तो पिछले कई दशक से चल रहा है फिर ऐन लोकसभा के आम चुनावों के वक्त क्यों लाया और पास कराया गया। कांग्रेस ने भले ही इस राजनीति से प्रेरित होकर किया हो लेकिन अब तो उसे राजनीतिक नुकसान ही होता दीखता है। उसे तेलंगाना क्षेत्र से समर्थन भले ही मिल जाये लेकिन किरण रेड्डी और सीमांध्र क्षेत्र के लोगों की नाराजगी उसे भारी पड़ सकती है। उसके खिलाफ बढ़ते जनाक्रोश का फायदा दूसरे दलों को मिल सकता है। उधर वाईएसआर कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी भी तेलंगाना के खिलाफ हैं और भी बंद आदि का आयोजन कर अपना विरोध प्रकट कर रहे हैं।
      जहां तक बड़े राज्यों के विभाजन और छोटे-छोटे राज्यों को बनाने के प्रश्न हैं वहां जनाकांक्षाओं को सम्यक ध्यान रखना आव्श्यक है। विभाजन इस तरह से हो कि कोई हिस्सा अपने को वंचित या ठगा न महसूस करे। सोचिए अगर किसी राज्य का विभाजन इस तरह हो कि किसी भाग में सारे प्राकृति संसाधन चले जायें और दूसरा खाली हो जाये तो विरोध तो होगा ही। विभाजन ऐसा हो कि दोनों हिस्सों में खुशी मनायी जाये। छोटे राज्यों के गठन में राजनीतिक लाभ-हानि के बजाय उस क्षेत्र के विकास और प्रगति को ही सर्वोपरि रखना चाहिए। आज अगर सीमांध्र के लोगों को आर्थिक पैकेज देने की मांग विपक्ष कर रहा है तो इसका मतलब है कि वह क्षेत्र विभाजन के बाद कुछ संसाधनों से वंचित होनेवाला है। विभाजन संतुलित और सुव्यवस्थित होना चाहिए।
      तेलंगाना क्षेत्र पर अगर नजर डालें तो आंध्र प्रदेश का 45 फीसदी जंगल तेलंगाना क्षेत्र में आता है। अगर तेलंगाना क्षेत्र बना तो इसका मतलब यह होगा कि आंध्रप्रदेश को कृष्णा नदीं के 68 प्रतिशत पानी से वंचित होना पड़ेगा। तेंलगाना क्षेत्र में देश का 20 प्रतिशत कोयले का भंडार है। यहां सीमेंट उद्योग में काम आने वाले लाइमस्टोन का भी भंडार है। इसके अलावा बाक्साइट, माइका आदि खनिज पदार्थ भी यहां काफी मात्रा में हैं।
इस क्षेत्र में हैदराबाद भी आता है जो अभी आंध्रप्रदेश राज्य का सर्वाधिक विकसित शहर माना जाता है। हैदराबाद के तेलंगाना क्षेत्र में जाने का भी संयुक्त आंध्रप्रदेश के लोग विरोध कर रहे हैं जबकि तेलंगाना क्षेत्र के लोग इससे खुश हैं कि उन्हें एक विकसित शहर मिल जायेगा। हैदराबाद में देश के सबसे तेजी से विकसित हो रहे शहरों में एक है जो देश का सबसे बड़ा आईटी हब है। यहां कई बड़ी देशी-विदेशी आईटी कंपनियां हैं। काफी नौकरियों का सृजन भी होता है। इसके अलावा इस शहर में फार्मा, बायो टेकनालाजी, मैन्युफैक्चरिंग और उड्डयन व रक्षा से संबंधित उद्योग भी हैं। इस तरह से यह शहर बेहद महत्वपूर्ण है। जाहिर है इसे कोई नहीं छोड़ना चाहेगा। तेलंगाना क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या सिंचाई है। यहां लोगों को इसके लिए पूरी तरह वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता है।
      राज्यों के विभाजन के बजाय होना यह चाहिए कि किसी भी राज्य के हर क्षेत्र के सम्यक विकास पर ध्यान दिया जाये। अब जैसे तेलंगाना क्षेत्र में सिंचाई या अन्य सुविधाओं का अभाव है तो उन्हें पूरा करने के प्रयास किये जाने चाहिए न कि एक अलग राज्य बना कर खानापूर्ति का। अगर क्षेत्र की जनता की सारी आकांक्षाएं पूरी कर दी जायें तो फिर अलग राज्य मांगने का क्या औचित्य? अगर इसी तरह अलग राज्य बनाये जाते रहे तो कई छोटे राज्यों तक में अलग राज्य की मांग जोर पकड़ेगी। जैसे अलग तेलंगाना विधेयक संसद से पास होने के बाद पश्चिम बंगाल में फिर अलग गोरखालैंड की मांग सुगबुगाने लगी है। इस तरह तो सारा देश ही खंड-खंड हो जायेगा। जितनी जातियां, जितने दल उतने राज्य। यह तो अजीब मजाक बन कर रह जायेगा। राज्यों को खंडित करने से बेहतर है उनकी समस्याओं का समाधान।
      तलेंगाना विधेयक को लेकर राज्यसभा में भी अराजकता की हद हो गयी। वहां भी एक सांसद ने राज्यसभा महासचिव से बुधवार को विधेयक छीनने की कोशिश और धक्कामुक्की की। इस तरह की घटनाओं को किसी भी तरह से बरदाश्त नहीं किया जाना चाहिए। जिस दिन तेलंगाना विधेयक संसद में पेश हुआ उस दिन कालीमिर्च का स्प्रे एक सासंद ने किया जिससे कई सांसदों की तबीयत खराब हो गयी। एक सांसद को तो दिल का दौरा तक पड़ गया। अगर सांसद इस तरह की गुंडागर्दी कर सकते हैं तो फिर इस देश का बंटाढार होना तय है। क्या उनके क्षेत्र की जनता उन्हें इसीलिए चुन कर भेजती है। संसद हो या विधानसभाएं, उसके सांसदों या विधायकों के लिए पहली शर्त है सुशृंखल और संयमित व संतुलित होना। अगर ये नीति नियामक या संविधान बनाने वाले ही संविधान विरोधी काम करने लगेंगे तो फिर किससे उम्मीद की जाये। आज जनजीवन और सरकारी कामकाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और लूटतंत्र से सामान्य जन पीड़ित और वंचित महसूस कर रहा है। वह  आंदोलित और आक्रोशित है। जो भी भ्रष्टाचार के खिलाफ  आवाज उठाता है उसे आशा की किरण मान वह उसके साथ हो लेता है यह और है कि बाद में उसे निराशा ही हाथ लगती है। देश में कहीं एक ऐसा भी तंत्र काम कर रहा है जो भ्रष्टाचार, अनाचार के खिलाफ उठी आवाज या आंदोलन को दबाने में सक्रिय है। वजह यह है कि ऐसे आंदोलन अगर सफल हो गये, राजनीति में ज्यादा साफ-सुथरे और आदर्शवान लोग आ गये, संसद और विधानसभाएं उनसे भर गयीं तो फिर स्वार्थ की रोटी सेंकनेवालों और छल-छद्म की राजनीति करनेवालों के दिन लद जायेंगे। ऐसे में वे राजनीति में शुचिता लाने का संकल्प लेनेवाले हर व्यक्ति हर आंदोलन को कुचलने में हरदम आमादा होंगे। य़ह स्वाभाविक भी है, भला कौन अपनी लगी-लगायी सुविधाओं और प्रतिष्ठा वाले पद से हाथ धोना चाहेगा? इसे बचाने के लिए जिस स्तर जाना होगा वह जायेगा भले ही इसके लिए नियम-कानून या शुचिता को तिलांजलि देनी पड़े। देश के लिए वर्तमान स्थिति बेहद चिंताजनक है। हमारी राजनीति स्वार्थ के घटाटोप अंधेरे से घिर गयी है इसीलिए जनतंत्र आज जन की नहीं सिर्फ और सिर्फ तंत्र की सोचता है। तंत्र सुरक्षित रहे, कुर्सी बरकरार रहे जन का क्या उससे तो पांच साल के बाद ही पाला पड़ता है। और देश का जन आज भी इतना भोला है कि पांच साल बाद वोट के प्रार्थी बन आये इन राजनेताओं किसी नये या पुराने प्रलोभन में आ जाता है और फिर अगर सांपनाथ नहीं तो नागनाथ को अपनी तकदीर सौंप देता है। उसके बाद पांच साल तक अपनी गलती पर पछताता रहता है। अगर पहले जयप्रकाश नारायण और अब अण्णा की राइट टू रिकाल (जन प्रतिनिधि की वापसी) की मांग मान ली जाती तो फिर किसी को भी जीत कर पांच साल तक बिना काम किये  कुर्सी से चिपके रहने की छूट न मिलती। जो काम नहीं करता उसे वापस जाना पड़ता और उसकी जगह किसी नये. योग्य व्यक्ति को चुन कर भेजा जाता। ऐसा होता तो जो चुन कर गया है उसे यह डर लगा रहता कि अगर उसने काम न किया तो उसे जाना होगा। अभी तो वह निश्चिंत और निर्द्वंद्व हैं कि एक बार जीत गये तो सांसद या विधायक की सुविधाएं, रौब-दाब पांच साल तक के लिए सुरक्षित। आपने देखा होगा कि नेता पांच साल तक अपने रौब में ऐंठे रहते हैं। वोट आने पर ही उनके हाथ जनता के सामने जुड़ते हैं और चेहरे पर विनम्रता और मुसकान लपेट ली जाती है। आखिर वोट जो पाना होता है। वोट मिल गये, सत्ता सुख मिल गया फिर पलट कर क्या देखना।
      इस देश को गुलामी से आजादी दिलानेवालों ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि यहां  की यह दशा होगी। उन्होंने तो ऐसे गणतंत्र की कल्पना की थी जो बहुजन हिताय बहुजन सुखाय हो लेकिन लगता तो यही है कि आज यह स्वजन हिताय, स्वजन सुखाय बन कर रह गया है। अगर ऐसा नहीं होता तो देश के शासकों (वह किसी भी दल या विचारधारा का हो) के मानस में सबसे पहले सीमांत, आम आदमी या जन-जन के विकास और हित की बात होती, अपनी या स्वजनों की सुख-सविधा की बाद में। आज वक्त की मांग है कि राजनेता, सांसद विधायक अपनी चाल और चरित्र दोनों को बदलें, आदर्श की राह और देश को विकास की ओर ले चलने के संकल्प के साथ चलें। ऐसा होगा तभी हम गर्व के साथ कह सकेंगे कि मेरा भारत महान अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर इस देश का क्या होगा यह कोई नहीं जानता।
     

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