Wednesday, April 22, 2009
खतरनाक संकेत हैं नेताओं पर बरसते जूते-चप्पल
पी. चिदंबरम पर एक पत्रकार सम्मेलन में फेंके गये जूते ने साफ तौर पर यह संकेत दे दिया है कि जनाक्रोश अब दबा नहीं रहनेवाला। यह कभी भी किसी भी रूप में फट सकता है। और उसका निशाना कोई भी दल हो सकता है। वैसे पत्रकार सम्मेलन में चिदंबरम की ओर चला जूता हो या लालकृष्ण आडवाणी पर फेंकी गयी स्लीपर या फिर नवीन जिंदल पर उछाला गया जूता किसी को भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। हम जिस देश के वासी हैं उसका अपना अलग इतिहास और आदर्श रहा है। जहां महात्मा गांधी ने अहिंसक आंदोलन से एक महाशक्ति को देश से जाने के लिए विवश कर दिया हो, उस देश के वासियों को अपनी बात मनवाने या कहने के लिए इतना नीचे उतरने की जरूरत ही नहीं है। देश की गणतांत्रिक व्यवस्था हर पांच साल बाद उनको यह मौका देती है कि वे नेताओं से अपना हिसाब बराबर कर लें। अगर उन्होंने उनको धता बतायी है तो उनके भी सांसद या विधायक बनने के सपने को वे कुचल दें। जूता फेंकने से भी बड़ा झटका होगा उनके उस ओहदे को छीन लेना जो उन्हें आम आदमी से अलग करता है। लाल गाड़ी, ढेरों सुरक्षा प्रहरी और शीतताप नियंत्रित घर देता है।
चुनावी रोड शो या सभाओं में उछलते ये जूते-चप्पल बहुत कुछ कहते हैं। ये कहते हैं कर्ज के भार से डूबे आत्महत्या कर चुके किसान के बीवी बच्चों की दुर्दशा, ये बयान करते हैं लालफीताशाही में फंसे लोगों की परेशानी और उन लोगों का दर्द जो राजनीतिक दांव-पेंच के सताये हैं। ये सबक हैं उन नेताओं के लिए जो चुन कर जाते हैं और उस जनता को भूल जाते हैं जो उनके लिए सत्ता की सीढ़ी बनी है।ऐसे में पांच साल बाद किस्मत जब फिर उनको उसी जमीन पर ले जाती है जहां से उन्हें संसद या विधानसभा का सत्ता सुख मिला था तो इन खाये-अघाये चमकते चेहरों वाले नेताओं को देख भूख से बिलबिलाते गरीबों का आक्रोश फूटना स्वाभाविक है। कहीं इसकी मार मुखर होती है काले पताकों और नारों के रूप में कहीं खामोश वोट बहिष्कार के माध्यम से। इस बार तो जूता-चप्पल प्रहार कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं। इतना ज्यादा कि डर कर कुछ नेता अब अपनी चुनावी सभाओं को सुरक्षित जाल के पीछे से संबोधित करने लगे हैं। इस पर एक वरिष्ठ पत्रकार बंधु की टिप्पणी थी कि जिसने जाल लगा कर भाषण दिया समझो उन पर तो पड़ ही गये। उन्होंने जाल लगवाया यानी उनको जूतों का डर है। अभिनेता जितेंद्र को न जाने क्यों यह सूझी कि चलो राजनीति-राजनीति खेलें। लो उन पर भी महाऱाष्ट्र में चप्पल बरस पड़ी। वे गये थे किसी नेता का प्रचार करने उस नेता के विरोधी को उनकी कोई बात नहीं भायी होगी और उसने उसका जवाब चप्पल से दे डाला।
यह तरीका कतई सही नहीं और निंदनीय है लेकिन इसके संकेत बेहद खतरनाक हैं। आज जूते फेंके जा रहे हैं कहीं कल सुरक्षा अधिकारियों के रहते भी जनता इन नेताओं पर टूट पड़े और नुकसान पहुंचाये तो फिर क्या होगा। जन आकांक्षाओं की उपेक्षा का ही यह परिणाम है। नेताओं को या तो झूठे वादे नहीं करने चाहिए या वादे करें तो हर कीमत पर उन्हें पूरा करना चाहिए।
एक और बात नेताओं के विरुद्ध जाती है। राजनीतिक स्वार्थ के लिए ये सुविधावादी गठबंधन करते हैं और उनसे हाथ मिलाते हैं जिन्हें ये अपना शत्रु मानते थे इनके इस दोगले चरित्र से भी जनाक्रोश फूटता है। अब शायद वह दिन आ गया है जब इन नेताओं को यह सोचने पर मजबूर होना पड़ेगा कि पहले जनता, उसकी सुख-सुविधा उसके बाद अपने लिए सोचना। अगर यह नहीं होता तो संभव है देश को और भी लज्जाजनक स्थिति का सामना करना पड़े। वैसे भी नेताओं ने देश को जहां पहुंचा दिया है वहां आम आदमी का तो दम घुट रहा है। महंगाई उसकी कमर तोड़ रही है। कहते हैं मुद्रस्फीति शून्य होने को है। कोई हमें बताये कि महंगाई को मापने का पैमान क्या है। क्या 13 रुपये किलो आलू और २२ रुपये किलो चीनी महंगाई घटने के द्योतक हैं? हमें इस तरह भ्रम में क्यों रखा जा रहा है। जरूरी है कि नेता यह जान और मान लें कि देश की प्रबुद्ध जनता अब भुलावे में आने वाली नहीं। इसका पता शायद उन्हें जल्द ही चल जायेगा।
राजेश त्रिपाठी (22 अप्रैल)
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जनता उनके भुलावे में न आए तो करे क्या .. कोई विकल्प भी तो नहीं उसके पास .. नेताओं के पुत्रों का छोडकर कोई अन्य नौजवान आगे क्यूं नहीं आते ?
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आपने और सत्य भी , शानदार लेखन के लिए धन्यवाद ।
ReplyDeleteमयूर दुबे
अपनी अपनी डगर