Friday, May 1, 2009

आदर्शहीनता का पर्याय बन गयी है राजनीति

आजकल की राजनीति इतनी टुच्ची हो गयी है कि यह देख कर रोना आता है कि जिनका अपना कोई आदर्श नहीं, जिनके कोई मूल्य नहीं वे आज बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं और आदर्श बघार रहे हैं। आज राजनीति सुविधावादियों का गिरोह बन गया है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो तकरीबन हर राजनीतिक दलों में अपराधी तत्वों की भरमार है। उनका राजनीति में आने का मतलब और लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ अपना रुतबा और रसूख बढ़ाना होता है। अगर नेता बन गये तो उनका बाहुबली रूप महाबली बनने और अपने क्षेत्र को जम कर लूटने का सुअवसर देगा। इन दलों में जो अपराधियों या उनके नाते-रिश्तेदारों को टिकट देकर संसद या विधानसभाओं में भेजने का औचित्य समझाये। चुनाव आयोग प्रयास कर के हार गया लेकिन वह राजनीति में अपराधियों के प्रवेश को नहीं रोक पाया। चुनाव लड़ कर ये संसद या विधानसभाओं में पहुंचते हैं और वहां मंत्री पद की `शोभा' बढ़ाते हैं। देश कल्याण की बात तो इनसे सोचना ही बेमानी है यह अपनो का कल्याण भरपूर करते हैं। सभी राजनीतिक दल इन्हें अपने साथ जोड़ कर यह सोचते हैं कि ये बाहुबली रहेंगे तो इन्हें इनके खौफ से भरपूर मत मिलेंगे। समझ में नहीं आता कि क्या अच्छे लोगों का देश में अकाल पड़ गया है जो इन छंटे-छटाये दागी लोगों को राजनीति में लाना विवशता बन गयी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि राजनीतिक दल इनसे खौफ खाते हैं कि अगर इन्हें नाराज किया तो उनकी भी खैर नहीं। तर्क यह दिया जाता है कि किसी को महज राजनीतिक उद्देश्य से मामले में फंसा कर उसे राजनीतिक प्रक्रिया या चुनाव से वंचित किया जा सकता है। हम कहते हैं कि ऐसे लोगों को भले ही छूट दी जाये पर हत्या, बलात्कार के मामलों से जुड़े लोग कैसे टिकट पा जाते हैं। जेल में बंद कैदी कैसे चुनाव लड़ लेते हैं। वे नहीं लड़ पाये तो अपने नाते-रिश्तेदारों को चुनाव लड़ा देते हैं ताकि वे जीतें और सरकार पर इन दागी लोगों को छड़वाने या इनके मामलों को तूल न देने के लिए बाध्य कर सकें। आप इस बार भी देख लीजिए अपराधी प्रवृत्ति के कितने लोग संसद जाने की राह में हैं। पिछले केंद्रीय मंत्रिमंडल में तो कई दागी लोग मंत्री बन बैठे थे और इसे लेकर विपक्ष ने बड़ा बावेला मचाया था। लेकिन हुआ क्या वे अपने पद पर शान से बने रहे। दरअसल राजनीति के सारे आदर्श मर चुके हैं। अब एकमात्र आदर्श है जब तक के लिए पद मिला है, उसकी हर सुख-सुविधा का आनंद लो। जनता के बारे मे क्या सोचना। अपने लिए जियो और मौज से जियो। आपने राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में हर घर को रोशन करने की लंबी डींग, हर गांव को सड़कों से जोड़ने के बड़े-बड़े दावे, सस्ते दामों में चावल, हर हाथ को काम के वादे साल-दर-साल सुने होंगे लेकिन इनमें से कितने प्रतिशत पूरे हुए हैं आपने कभी सोचा है। दरअसल इन नेताओ की मजबूरी भी है। अगर ये अपने सारे वादे पूरे करते चलेंगे तो फिर अगली बार जनता को क्या कह कर लुभायेंगे। ये वादों को पुलिंदे चुनाव के वक्त खोलते हैं और चुनाव हो जाने के बाद उन्हें ठंड़े बस्ते में डाल देते हैं।
अब वक्त आ गया है कि जनता नींद से जागे। अगर कोई दल किसी अपराधी को उसके प्रतिनिधि के रूप में थोप रहा है तो वह एकजुट होकर उसे संसद या विधानसभा तक जाने से रोके। क्योंकि अगर वह वहां पहुंचा तो उसी तरह लोकतंत्र के उस पवित्र मंदिर को भी अपवित्र करेगा , जैसे वह अपने अपराधकर्म से समाज को कर रहा है। उससे किसी तरह के भले की आस नहीं तो फिर उसकी जगह उस प्रक्रिया में क्यों हो जिस पर देश का भविष्य टिका होता है। सरकार, चुनाव आयोग गणतांत्रिक व्यवस्था के परिष्कार में असफल हो गयी। राजनीति की यह गंगा अपराधियों की भीड़ से दिन पर दिन अपवित्र होती जा रही है। जनता रूपी भगीरथों को इसका शुद्धीकरण कर इसे अपना पुराना गौरव दिलाना है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो चुनाव नामक गणतांत्रिक व्यवस्था से लोगों का विश्वास पूरी तरह उठ जायेगा जो थोड़ा-थोड़ा अभी से दरकने लगा है। इसका प्रमाण है हाल के मतदान में कई राज्यों में चिंताजनक ढंग से गिरता मतदान का प्रतिशत। मतदान के प्रति लोगों की उदासीनता का कारण यह है कि वे साल-दर-साल यह देखते आये हैं कि उनके सामने नागनाथ या सांपनाथ में से किसी को चुनने की मजबूरी है.। अच्छे उम्मीदवार तो चंद होते हैं जो या तो इन बाहुबलियों के छलछंद से पार नहीं पा पाते और हार जाते हैं और जीतते भी हैं तो इन चंद लोगों की आवाज संसद या विधानसभाओं में नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह खो जाती है। आज स्थिति यह आ गयी है कि सरकार को लोगों को प्रेरित करने के लिए विज्ञापन देना पड़ रहा है कि मतदान पुण्य कार्य है, आपका अधिकार है मतदान करें। सरकार देश भर के पप्पुओं को वोट डालने के लिए मना रही है। यह दिन आ गया है। कभी यह स्वतःस्फूर्त था आज लोग मतदान केंद्र तक जाने में खौफ खाने लगे हैं। पता नहीं कहां क्या हादसा हो जाये और उनकी जान सांसत में आये। कुर्सी और पद का आनंद तोदूसरे भोगेंगे और इनकी जान के लाले पड़ जायेंगे। जरूरत है कि राजनीति के आदर्श को वापस प्रतिष्टित करने के पुण्य प्रयास हों वरना कहीं देर न हो जाये और यह गणतांत्रिक प्रणाली चरमरा कर धराशायी हो जाये।- राजेश त्रिपाठी ( 1 मई 2009)

1 comment:

  1. kitne aascharya ki bat hai ki ye desh fir bhi chala ja raha hai. sirf jagne se nahi hoga ek kranti jaruri hai.

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