Friday, May 22, 2009
ये तो होना ही था
लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं किस तरह से बढ़ गयी हैं इसका नजारा दिल्ली में मनमोहन सिंह सरकार के शपथ ग्रहण के पूर्व देखने को मिला। कांग्रेस ने उन दलों को तो मायूसी के दलदल में फेंक दिया जो चुनाव पूर्व उसके गठबंधन से छिटक गये थे जिसमें लालू, पासवान और मुलायम एंड कंपनी शामिल हैं लेकिन जो उसके साथ थे वे भी मंत्रिमंडल की मांग पर जिच कर बैठे। ऐसी जिद ठानी कि प्रधानमंत्री को मंत्रिमंडल के अपने सहयोगियों और प्रधानमंत्री के रूप में खुद शपथ लेने के बारे में राष्ट्रपति से २२ मई सुबह साढ़े 10 बजे का अपना नियत समय तक बदलना पड़ा। तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी कोलकाता से यह कह कर निकली थीं कि उन्हें पद की लिप्सा नहीं, वे तो अपना सारा ध्यान और ताकत अपने राज्य पश्चिम बंगाल में झोंकना चाहती हैं। उनकी नजर दिल्ली के पद पर नहीं बल्कि राज्य विधानसभा के 2011 में होने वाले चुनावों में अपने दल को भारी विजय दिलाना है। कह तो वे यह गयीं लेकिन दिल्ली में उनकी पार्टी और करुणानिधि के डीएमके ने मंत्रिमंडल के पदों को लेकर जो कुछ किया उससे बड़ा अटपटा लगा। कांग्रेस के साथ उसके समर्थन में खड़े इन लोगों ने नयी पारी शुरू करने जा रहे मनमोहन सिंह की यात्रा में ज्यादा नहीं तो थोड़ा विघ्न तो डाल ही दिया। खैर ममता बनर्जी तो रेल मंत्रालय पाकर मान गयीं लेकिन करुणानिधि की करुणा न जाने कहां खो गयी। वे तो एकदम अकड़ गये ए. राजा और बालू (जिन्हें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कतई अपने मंत्रिमंडल में नहीं चाहते) को मंत्रिमंडल दिलवाने और अपने बेटे और बेटी के लिए भी राज्यमंत्री ही सही पर कोई पद दिलवाने की मांग पर वे अड़े रहे। यह हमारे राजनेताओं का दोहरा चरित्र दिखाता है। वे बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं, कहते हैं उन्हें पद की लिप्सा नहीं वे तो देश सेवक हैं, देश में स्थिरता और शांति चाहते हैं। लेकिन जब पद बंटने लगते हैं तो उनकी चाह मलाईदार पद लेने की ही होती है और तब वे अपने असली रंग में आ जाते हैं। ममता बनर्जी ने एक और मांग केंद्र सरकार से कर डाली है जो शायद ही सरकार मान पाये। वे चाहती हैं कि पश्चिम बंगाल विधानसभा के 2011 में तय चुनाव वक्त से पहले करा लिये जायें और चुनाव से पूर्व वहां की सरकार को भंग कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाये। यह कैसे संभव है कि किसी गणतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार को समय से पूर्व भंग कर दिया जाये। फिर अगर राज्य सरकार भंग की जाती है तो वह यह कह कर जनता की सहानुभूति पा जायेगी कि उनकी सरकार को राजनीतिक लाभ के लिए बेवजह शहीद किया गया। ऐसे में जरूरी यह है कि राजनीतिक सूझबूझ दिखाते हुए वही काम किया जाये तो तर्कसंगत, विधिसंगत और समय सापेक्ष हो। इस समय देश में सभी स्थिरता और निरंतर विकास चाहते हैं।राजनेतांओं, मंत्रियों और देश के हर उस व्यक्ति को जिसे देश से प्यार है विकास और प्रगति के पथ में सहायक बनना चाहिए, बाधक नहीं। यही देश की मांग हैं। जो दल अपने यहां की सरकारों से दुखी हैं और केंद्र के सहयोगी हैं वे केंद्र की मदद से अपने राज्यों में विकास कार्य कर जनता में अपनी छवि को और निखारें जिससे अगले चुनाव में जनता को राज्य में उनको ही चुने। डीएमके और कांग्रेस के बीच पदों को लेकर उठा विवाद और रिश्तों की खटास जितनी जल्द मिटे देश के लिए उतना ही अच्छा है। वैसे लग रहा है कि स्थितियां जल्द ही सामान्य हो जाएंगीं और डीएमके कांग्रेस के दिये प्रस्ताव को मान लेगी। अगले मंत्रिमंडल विस्तार में उसके सांसदों को भी शामिल किया जायेगा और उसके बाद सरकार सुचारु रूप से चलेगी। ऐसा समय की मांग है और यही सार्थक-यथार्थ राजनीति होगी और शायद हर भारतवासी का काम्य भी यही है। दर्जनों दलों की बैसाखी थाम चलने वाली सरकार तो जनता ने देख ली जिस पर आते ही जाने की तलवार लटकती दिखती है। इस बार उसने कांग्रेस को बहुमत देना चाहा था तभी उसे अकेले अपने दम पर 205 सीटें मिलीं। जनता जरा और जोर लगाती तो कांग्रेस अपने दल पर सरकार बना लेती तब मनमोहन सिंह की दूसरी पारी की शुरुआत पर पदलोभियों के नखरे और ऐंठ नहीं देखनी पड़ती और सब शुभ-शुभ होता। खैर अब लगता है कि स्थितियां अनुकूल होंगी और देश फिर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकेगा।
राजेश त्रिपाठी ( 22 मई)
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