Tuesday, June 2, 2009

आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर आफत क्यों?


आज आस्ट्रेलिया में भारतीयों और भारतीय छात्रों पर जो जुल्म हो रहा है वह किसी भी सभ्य समाज के लिए लज्जा और धिक्कार की बात है। जो शिक्षा प्राप्त करने गये हैं उन्हें आज नस्ली हिंसा का शिकार होना पड़ा रहा है। कुछ छात्रों को तो इस अंधी हिंसा में अपनी जान भी गंवानी पड़ी। छात्रों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ आस्ट्रेलिया में रह रहे भारतीय छात्रों ने एक विशाल रैली की जिसमें तकरीबन 1 लाख लोग जुटे। इनमें अधिकांश भारतीय छात्र थे और संतोष व हर्ष का विषय है कि इसमें आम आस्ट्रेलियाई जनता भी भारतीय छात्रों के समर्थन में शामिल हुई। यही नहीं कहा तो यहां तक जाता है कि भारतीयों छात्रों के पक्ष में आस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा छात्र संगठन भी आ खड़ा हुआ है। यह संतोष की बात है कि आम आस्ट्रेलियाई भारतीय छात्रों के खिलाफ नहीं है लेकिन जो चंद लोग एक मुल्क को नस्लभेद की अंधेरी खाई में धकेल रहे हैं वे तो कलंक हैं। उनकी यह हरकत उनके अपने देश का सिर पूरे संसार में नीचा कर देगी। ऐसे में यह जरूरी है कि आस्ट्रेलियाई सरकार ऐसे तत्वों से सख्ती ने निपटे और भारतीयों की सुरक्षा सुनिश्चित करे ताकि वे निर्भय हो वहां रह और पढ़ या काम कर सकें। आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री ने हालांकि आश्वासन दिया है कि भारतीयों को सुरक्षा मिलेगी लेकिन सिर्फ कहने भर से तो कुछ होता नहीं। वहां उनके इस आश्वासन के बाद भी हमलों का सिलसिला रुक नहीं रहा। एक भारतीय टैक्सी ड्राइवर पर हमले के बाद आशीष सूद नामक एक छात्र को कुछ आस्ट्रेलियाई लोगों ने लोहे की छडों से मार कर घायल कर दिया। नफरत की यह आग जितना जल्द बुझ जाये अच्छा है वरना इससे दो देशो के बीच संबंधों में खटास आ सकती है जो शायद कोई नहीं चाहेगा।
छात्रों पर जोर जुल्म के इस दौर में आस्ट्रेलियाई पुलिस का जो रूप दिखा उसने यह साबित कर दिया कि पुलिस कहीं की हो उसका चरित्र एक होता है। जब मौका पड़े निहत्थों को जानवरों की तरह पीटो और घसीटो। आस्ट्रिलया में रैली कर रहे भारतीय छात्रों पर भी पुलिस दरिंदों की तरह टूट पड़ी और चीखते, रक्षा की गुहार करते छात्रों को बेरहमी से घसीटते हुए ले गयी। ये छात्र अपने ऊपर हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज उठा रहे थे शांतिपूर्ण ढंग से धरना दे रहे थे। इनके हाथों में थे तो तिरंगे झंडे कोई हथियार नहीं जो किसी सरकारी व्यक्ति या प्रतिष्टान को नुकसान पहुंचाते फिर इन पर ऐसा सुलूक क्यों किया गया जैसे ये आतंकवादी या दुर्दांत अपराधी हों। आस्ट्रेलिया सरकार को आज नहीं तो कल इसका जवाब देना होगा। वैसे आस्ट्रेलिया के लिए रंगभेद कोई नयी बात नहीं है। यह देश इसके लिए पहले भी कलंकित हो चुका है। कलंक का यह टीका इनके क्रिकेटरों मैथ्यू हेडन और एंड्रूय साइमंड ने लगाया था जब उन लोगों ने एक मैच के दौरान भारतीय खिलाड़ी हरभजन को यह कह कर कठघड़े में खड़ा कर दिया था कि उन्होंने इनके खिलाफ नस्लवादी टिप्पणी की है। उस वक्त हरभजन ने भी यह आरोप लगाया था कि इन दोनों खिलाड़ियों ने भी उन पर नस्लवादी टिप्पणी की। ऐसे में आस्ट्रेलिया के लिए तो उचित यही है कि वह विश्व के महान गणतंत्र भारत का आदर्श पथ अपनाये। वह भारत जहां दुनिया के हर वर्ग को स्वतंत्रता से रहने की आजादी है। यहां गैर मुल्कों के जो लोग वर्षों से रह रहे हैं उन्हें शायद ही कभी रंगभेद का शिकार होना पड़ा हो। वे तो यहां इस तरह घुलमिल गये हैं कि रंग की छोड़ से तो लगता ही नहीं कि भारत से अलग उनका कोई मुल्क रहा होगा। यही तो है भारत जिसका मूलमंत्र ही है -वसुधैव कुटंबकम् (यानी पूरा विश्व ही मेरा परिवार है)। जिस दिन यह भाव पूरे विश्व में अपना लिया जायेगा, मानवता का वह महान दिन होगा क्योंकि तब कहीं भी कोई भी किसी का पराया नहीं रह जायेगा। सीमाएं तो हमने बनायी हैं प्रकृति ने तो मानवता को अपनी विस्तृत गोद में स्वतंत्र स्वच्छंद छोड़ा था, उसने कालांतर में अपने लिए तरह-तरह के बंधन बना लिये। अपने को सीमाओं में बांध लिया। उसकी सीमा से परे लोग उसके लिए पराये या विदेशी हो गये वैसे कभी न सीमाएं थीं न दूरियां। सीमाएं धरती पर रहें लेकिन इनको दिलों पर नहीं खिंचना चाहिए। आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर जो जुल्म हो रहा है उससे दिलों पर भी सीमाएं खिंच जाती हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि इन हमलों के बाद से वे भारतीय माता-पिता चिंतित और दुखी हो गये हैं जिनके बच्चे दूर आस्ट्रेलिया में पढ़ रहे हैं। कईयों ने तो अपने बच्चों को वापस बुलाने का फैसला तक कर लिया है। भविष्य में वहां अपनी संतानों को पढ़ने भेजने के पूर्व हर माता-पिता सौ बार सोचेंगे।
विदेश की शिक्षण संस्थाएं, वहां के विश्व विद्यालय भारत के बड़े-बड़े शहरों में एजुकेशन फेयर लगाते हैं और उनमें अपने यहां चलाये जा रहे पाठ्यक्रमों में भारतीय छात्रों का आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देते हैं। इनकी लालच में भारतीय छात्र अपना देश छोड़ वहां पढ़ने जाते हैं और इस तरह रंगभेदी शोषण और जुल्म का शिकार होते हैं। इन देशों और शिक्षण संस्थाओं को शर्म आनी चाहिए कि ये जिन छात्रों को अतिथि के रूप में बुलाते हैं उन पर ऐसा अमानवीय जुल्म क्यों ढालते हैं। अगर किसी के पास वैध दस्तावेज हैं और वह शिक्षा या किसी विशेष उद्देश्य से किसी देश में है तो यह उस देश का दायित्व बनता है कि वह उसे नियमानुसार सुविधाएं और सुरक्षा दे। अगर वह इसमें असफल होता है तो निश्चित ही सवाल उस पर ही उठेंगे, कठघड़े में उसे ही खड़ा होना होगा। मैं नहीं समझता कि आस्ट्रेलिया खुद को इस तरह कलंकित करना चाहेगा। वहां के प्रशासकों के लिए वक्त है कि वे अपने देश के लुच्चों, लंपटों और गुंडों को संभाले , उन्हें छुट्टा घूमने और नंगे नाचने न दे, जो उनके लिए उचित जगह है वहां उन्हें पहुंचाये। और यह काम जितना जल्दी हो उतना ही अच्छा। कहीं बहुत देर हो गयी तो स्थिति हाथ से निकल सकती है। मेरी आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री से प्रार्थना है कि वे अपनी क्षमता का प्रयोग कर अपने देश में हो रही अनीति अत्याचार को रोकें। वैसे सुना यह गया है कि आस्ट्रेलियाई सरकार ने इस रंगभेदी हिंसा के लिए माफी मांगी है और वह इसे सख्ती से रोकने के लिए कोई कड़ा कानून बनाने पर भी विचार कर रही है। हम इसके लिए सरकार को साधुवाद देंगे, साधुवाद आस्ट्रेलिया की जनता को जो रंगभेद के दलदल से मुक्त और स्वच्छंद है। वहां की जनता भी इन अप्रिय घटनाओं के खिलाफ मुखर हुई है। विश्व के सभी ब्लागर भाइयों से अनुरोध है कि वे जिस भाषा में ब्लागिंग करते हैं उसमें भारतीयों पर हो रहे इस अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद करें। आगे आयें आपके भाई संकट में हैं। आखिर विश्व के किसी कोने में क्यों न हों इनसान का इनसान से एक नाता तो बनता है। सभी ब्लागरों को उसी इनसानियत का वास्ता, मेहरबानी करके आप भी इस जोर-जुल्म के खिलाफ एक हो जाइए। हमें किसी ने संघर्ष नहीं करना हम चाहते हैं सम्मानपूर्वक सह अस्तित्व और शायद यही चहाते हैं हमारे वे भाई या बहन भी जो आज आस्ट्रेलिया में आफत झेल रहे हैं । -राजेश त्रिपाठी (2जून)

3 comments:

  1. आपने शुरुआत ही गलत की। सभ्य समाज। अब तो आदिम युग आ गया है। सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट का। भारत सहित दुनिया में यही हो रहा है। भारत में इसका जोर पिछले १० साल में चरम पर पहुंच गया। आस्ट्रेलिया में क्या भारत में भी भारतीय पिटते हैं और सरकार कुछ नहीं कर पाती। थोड़ा तिलमिलाती है तो साधन संपन्न लोगों के नुकसान पर। साधनसंपन्न लोगों के लिए ही पुलिसिंग है, सुरक्षा है। आम आदमी को तो अपनी हिफाजत खुद करनी होती है, जीने लायक है-तभी वह बच पाएगा।

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  2. सब से सभ्य समाज? यानी जहाँ स्वतंत्रता और जनतंत्र का जनक पूँजीवाद विकसित अवस्था में हो। वहाँ यह हाल पूँजीवाद की सब से बड़ी और जानलेवा बीमारी मंदी करती है। जब नौकरियाँ छिनती हैं तो जनता के आक्रोश को पूंजीवाद अपने खिलाफ बढ़ने से रोकने को इस रास्ते पर डाल देता है।

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