Saturday, July 17, 2010
पाक ने फिर दिखाया असली रंग, वार्ता बेनतीजा भंग
-राजेश त्रिपाठी
भारत-पाक के बीच शांति वार्ता के दूसरे सारे प्रयासों की तरह भारत की पाकिस्तान के साथ कम से कम बातचीत के स्तर पर रिश्ते कायम करने की ताजा कोशिश भी नाकाम रही। पाकिस्तान ने एक बार फिर पैंतरा बदला। इतना ही नहीं हमारे विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा को को वहां के विदेश मंत्री महमूद शाह कुरेशी ने घेरने की कोशिश की। उन्होंने यहां तक कह डाला कि भारत दिमागी तौर पर इस वार्ता के लिए तैयार ही नहीं था। उनका दावा है कि पाकिस्तान तो निर्णायक और नतीजा निकलनेवाली बात के लिए तैयार था लेकिन भारत की ऐसी मंशा नहीं थी। उन्हें यह आरोप लगाने में भी संकोच या हिचक नहीं हुई कि भारतीय प्रतिनिधिमंडल तो वार्ता के लिए पूरी तरह से अधिकृत ही नहीं था। कृष्णा तो बराबर दिल्ली से फोन पर हिदायतें ले रहे थे। भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने वार्ता के दौरान लचीला रुख नहीं अपनाया और एक ही बात पर अड़ा रहा। हम अगर सिर्फ एक ही मुद्दे आतंकवाद पर अड़े रहे तो फिर बातचीत में आगे बढ़ना मुश्किल हो जायेगा।
इसके जवाब में हमारे विदेश मंत्री ने कहा कि उन्हें वार्ता के लिए दिल्ली से पूरे अधिकार प्राप्त थे। उनके ही मुताबिक सभी प्रमुख मुद्दों पर हमने चर्चा की। उन्होंने सफाई भी दी है कि वार्ता के दौरान उन्होंने ने न दिल्ली फोन किया और न ही किसी से हिदायत ही ली। जहां तक कुरैशी की बा तों का सवाल है कृष्णा का कहना है कि वे उनकी कही बातों के विवाद में नहीं पड़ना चाहते। कृष्णा मानते हैं कि वार्ता में प्रगृति हुई है साथ ही यह भी जोड़ते हैं कि आंतकवाद के मुद्दे पर सार्थक और परिणाम वाली बातचीत के बिना कोई भी वार्ता बेकार और निष्फल है।
हमारे विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा और भारत की वर्तमान सरकार चाहे कितनी भी खुशफहमी पाले, जितने भी दिवास्वप्न देखे, वार्ता की अपनी उपलब्धियों को हिमालयी सफलता बताये पर सच यह है कि भारत को इस बार फिर पाकिस्तान के हाथों नीचा देखना पड़ा है। हम वार्ता को जिस मुकाम तक पहुंचाना चाहते हैं वहां पहुंचना तो दूर हम कोसों पीछे चले गये हैं। हालत बद से बदतर की ओर जा रहे हैं। पता नहीं हमें पाकिस्तान से वार्ता की इतनी जल्दी और मजबूरी क्यों है कि हम बार-बार उसके हाथों जलील हो रहे हैं। आखिर हम किस दबाव में आकर अपनी और देश की बेइज्जती कराने पाकिस्तान जा पहुंचते हैं हाथ जोड़ हुए कि लो आका मेहरबानी करके हमसे बात कर लो क्योंकि आपसे बात किये बगैर हम बेचैन हो रहे हैं। देश और देश की जनता का यह अपमान किसके सिर जायेगा कृपया दिल्ली और देश की सत्ता और भविष्य के नियंता यह स्पष्ट करने का कष्ट करेंगे। पाकिस्तान का अपने जन्म से लेकर अब तक का भारत से व्यवहार शठता और शरारत का रहा है। वह हमेशा भारत को तबाह व बरबाद करने की साजिश रचता रहा है। यह भारत के अपने बीर बांकुरों, हमारे सेना के जवानों का पराक्रम है कि हम सुरक्षित हैं वरना हम पर न जाने कितने और कैसे-कैसे युद्ध थोपे गये और हम उनसे शांति की उम्मीद लगाये बैठे हैं। वाकई कभी-कभी तो अपने देश की सत्ता के नियंताओं की बुद्धि पर तरस आता है। पाकिस्तान से वार्ता क्यों जरूरी है? इसकी पहल भारत ही क्यों करे? क्या इसलिए कि इससे पाक प्रयोजित आतंकवाद रुक जायेगा? अगर ऐसा है तो अब तक की वार्ताओं के बावजूद आतंकवाद निरंतर बढ़ता क्यों गया? हम न जाने क्यों पाक से वह उम्मीद कर बैठे हैं जो उसकी नीयत और आदत में ही नहीं है। वह तो भारत का हमेशा विरोध करता रहा है। शठ से शठता से निपटा जा सकता है विनय से नहीं। हमारी विनय को वह कमजोरी समझेगा जैसा पाकिस्तान समझता रहा है। पता नहीं हमारे शासक इसे कब समझेंगे या समझ कर भी अपना अपमान कराना उनकी नियति बन गयी है।
अब विपक्ष भी यह सवाल उठाने लगा है कि पता नहीं दिल्ली किस दबाव में पाकिस्तान से उस वक्त भी वार्ता करने को तैयार है जब पाकिस्तान अपने यहां से प्रायोजित मुंबई के 26/11 के हमलों के दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करना चाहता।इस हमले को दोषी वहां खुलेआम घूम रहे हैं और भारत के खिलाफ विष उगल रहे हैं। उससे युद्ध लड़ने के लिए हुंकार रहे हैं। विपक्ष का स्प्ष्ट संकेत है कि देश पाकिस्तान से वार्ता की पहल अमरीकी दबाव में कर रहा है। शायद पाक पर भी ऐसा ही दबाव हो क्योंकि दिल से वह कभी भी भारत से वार्ता के लिए न तैयार था न होगा। जहां तक अमरीका का अपना सवाल है तो भारत-पाक के बीच वार्ता कराने में उसका अपना हित और स्वार्थ है। वह दोनों के बीच स्कूल के हेडमास्टर की तरह की भूमिका निभा रहा है। बीच-बीच में भारत-पाक दोनों को हिदायत देता है- अच्छे बच्चे झगड़ते नहीं,तनाव मत बढ़ाओ, आपसे में बातचीत करो। और एशिया के ये दोनों बच्चे अपने पश्चिमी आका की बात मान न चाहते हुए भी वार्ता के टेबुल पर बैठने को मजबूर हो जाते हैं। जाहिर है जब आप दिल और दिमाग से किसी चीज के लिए तैयार नहीं हों तो उस काम का कोई नतीजा नहीं निकलेगा। और इस बार भी भारत-पाक वार्ता में वही हुआ। प्रगति तो दूर हालात पहले से भी बदतर हो गये। यहां तक कि हमारे विदेश मंत्री की काबिलियत पर भी पाक विदेश मंत्री ने सवाल उठा दिये। उनके इस आरोप पर पाकिस्तान के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का कोई खंडन या सफाई अब तक नहीं आयी यानी उनका कथन व्यक्तिगत नहीं पाक सरकार का मत है।
जहां तक अमरीका की बात है तो वह इस क्षेत्र में किसी भी तरह की अशांति या तनाव नहीं चाहता। अफगानिस्तान से तालिबान को अपदस्थ करने के लिए उसने जो टांग इस एशियाई क्षेत्र में अड़ाई थी वह आज भी बुरी तरह फंसी हुई है। उसकी और सहयोगी देशों की सेनाएं आज भी पाक-अफगान सीमा में डटी या कहें फंसी हुई हैं।इस क्षेत्र में भारत-पाक के बीच किसी भी तरह का तनाव उसे अपने हितों के प्रति सशंकित कर देता है। उसके इस भय को भारत-पाक के बीच शांति स्थापित करने की सदिच्छा के रूप में देखने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। जैसा हम करते आये हैं। वैसे भी अमरीका क्या कितनी बड़ी शक्ति भी क्यों न उतर आये, भारत-पाक के दिलों में पड़ी दरार को पाटना मुश्किल ही नहीं अब तो नामुमकिन भी लगने लगा है। इसकी वजह है पाकिस्तान का अडियल रवैया, उसका मुसलसल भारत विरोधी रुख और हर वार्ता से पहले भारत पर मानसिक दबाव डालने के लिए कश्मीर का राग अलाप देना। उसके बाद वार्ता पर हमेशा कश्मीर मुद्दे की प्रेतछाया मंडराती रहती है और अंत वही ढाक के तीन पात। जहां तक कश्मीर का प्रश्न है वह भारत का अभिन्न अंग है, जाहिर है किसी और से पहले उसके अच्छे-बुरे की चिंता भारत का अपना दायित्व है जिसके लिए वह वचनबद्ध है।
अगर पाक को कश्मीर का दर्द सालता है तो फिर भारत को भी यह कहने का हक है कि पाकिस्तान में हिंदू-सिख सुरक्षित नहीं हैं। हाल में वहां से हिंदुओं और सिखों का पलायन इस बात का गवाह है। पाकिस्तान गाहे-बगाहे भारत की अनिच्छा और एतराज के बावजूद कश्मीर का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय मंचों में उठा कर भारत को कूटनीतिक तौर पर घेरने की कोशिश करता रहा है।हमारा तंत्र उसके इस अनैतिक और अनावश्यक हमले का माकूल कूटनीतिक जवाब देने में भी अक्सर नाकाम रहा है। इस तरह पाक के हाथों हम विश्व राजनीति के मंच पर जलील और नंगे होते रहे हैं। क्या ऐसी बेइज्जती झेलने को भारत अभिशप्त है या उसे ऐसी आदत पड़ गयी है। अगर इस तरह की बेइज्जती झेलना हमारी आदत में शुमार हो चुका है तो फिर इससे पार पाने के लिए किसी दृढ़ इच्छा शक्तिवाले नेतृत्व की देश को जरूरत है। ऐसे में इंदिरा गांधी जैसे अटल और अदम्य इच्छाशक्ति के नेतृत्व की प्रासंगिकता और आवश्यकता एक बार फिर अनिवार्य लगती है। पाक की बर्बरता का जवाब देने के लिए उनका आगे आना और एशिया में एक नये देश बंगलादेश को जन्म देने का ऐतिहासिक, दुस्साहसिक प्रयास अटल इरादे, अदम्य साहस और दृढ़ इच्छाशक्ति का ही परिचायक है। विश्व रंगमंच पर पाक द्वारा भारत पर किये जा रहे धूर्तता से परे जबानी हमलों के से निपटने के लिए हमें भी वैसा ही रवैया अपनाना चाहिए।
हम महान हैं कि पाकिस्तान की बदनीयती उसकी अहमकाना हरकतों को दोस्ती मान बैठे हैं। उसकी दुश्मनी के बीच हम दोस्ती की राह तलाशने की कोशिश वर्षों से करते आ रहे हैं बदले में हम पर कभी प्रत्यक्ष, कभी अप्रत्यक्ष और कभी छाया युद्ध हम पर थोपा जा रहा है। शांति के हमारे हर प्रयास को परिणाम तक पहुंचने से पहले बेरहमी से कुचल दिया जाता है। कभी आतंकियों की ओर से तो कभी खुद पाकिस्तानी हुक्मरानों की ओर से। इस बार भी जब कृष्णा पाक में शांति वार्ता कर रहे थे, पाक सेना एलओसी पर युद्ध विराम का उल्लंघन कर भारतीय सीमा पर गोलीबारी कर रही थी। क्या इसके बाद भी पाक के इरादों पर कोई शक रह जाता है। सच तो यह है कि पाक कभी भी , किसी भी तरह से भारत से शांति वार्ता के लिए दिल से तैयार ही नहीं था। ये हम हैं कि शांतिदूत बन उससे शांति चाह रहे हैं जिसका जन्म ही भारत विरोध पर हुआ है। यह तो पत्थर पर दूब उगाने जैसे कुफल प्रचेष्टा है। ऐसी कोशिशें हमें सिर्फ और सिर्फ निराशा और कुंठा की अंधी सुरंग की ओर ही धकेलेंगी।
वक्त गवाह है पाक के निर्माण से आज तक हमने जब-जब उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया, उसे बेरहमी से मरोड़ दिया गया। चाहे पूर्व प्रधानमंत्री की पाक की शांति-सद्भावना यात्रा हो या आगरा की शिखर वार्ता हर बार भारत को नीचा देखना पड़ा। उसे प्रत्यक्ष या परोक्ष युद्ध या फिर छायायुद्ध झेलना पड़ा। दरअसल पाकिस्तान में कोई भी नेतृत्व आये भारत के प्रति नफरत वह विरासत में लिये आता है और उसी के बल पर अपनी राजनीतिक बिसात बिछा अपनी चालें चलता है। चालें जो हमेशा भारत के खिलाफ होती हैं। कभी हम पर कारगिर थोपा जाता है तो कभी आईएसआई समर्थित आतंकवादी मुंबई में 26/11 का नरसंहार कर डालते हैं। पाक इस हमले से जुड़ाव के बारे में चाहे जितनी सफाई दे जिहादी डेविड हेडली के ताजा बयानों से यह स्पष्ट हो गया है कि मुंबई में आतंकवादी हमलों में आईएसआई का हाथ ही नहीं उसका पूरा शरीर और सबसे ज्यादा दिमाग भी शामिल था। कसाब एंड कंपनी ने मुंबई में मौत का जो नंगा नाच नाचा, उसके लिए सैटेलाइट फोन पर पाकिस्तान से पल-पल हिदायत मिल रही थी। इसके बावजूद पाकिस्तान अपने को पाक साफ , बेकसूर बता रहा है। लानत है हम पर कि हम उसी झूठे और मक्कार देश से बात करने के लिए मरे जा रहे हैं। मुंबई के 26/11
के हमलों के घाव अभी भी हरे हैं और हम उस देश से वार्ता के लिए आकुल-व्याकुल हैं जिसकी जमीन पर इस शर्मनाक नरसंहार की रूपरेखा तैयार की गयी और जहां से इस कुकृत्य के लिए धन रणनीतिक कौशल मुहैया कराया गया।वाकई इस मामले में हमारा देश विश्व के अन्य देशों से ‘महान’ है। इजराइल जैसे छोटे देश ने आतंकवाद को कुचल दिया और हम? हम अब तक आतंकवाद द्वारा सताये जा रहे हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, मेघालय से लेकर मुंबई तक, आसेतु हिमालय हम दिन ब दिन आतंकवाद की मार झेल रहे हैं। हजारों निर्दोष जानें इस आतंकवाद ने ले ली है और किसी ने किसी तरह से इसमें से अधिकांश घटनाओं के तार उस देश से जुड़ जाते हैं जिससे वार्ता करने की हमारी आतुरता कभी मरती नहीं। आखिर क्यों? क्यों सिर्फ हम दोस्ती का हाथ आगे बढ़ायें और हर बार मायूसी, बेचारगी और अपमान के शिकार हों? इस एशियाई अंचल में शांति की पहल और प्रयास (दिल और दिमाग से सिर्फ जबानी नहीं) पाकिस्तान के भी करनी चाहिए। भारत से दोस्ती उसके ज्यादा हित में है क्योंकि तब उसके साथ एक सशक्त-सक्षम पड़ोसी खड़ा होगा। वैसे इन दिनों उसकी चीन से गहरी पट रही है। चीन उसके यहां आणविक संयंत्र बैठाने में मदद की पेशकश कर चुका है। ऐसे में पाक का इतराना स्वाभाविक है। उसके साथ चीन जैसी महाशक्ति जो है जिसके खुद के रिश्ते भारत से कभी नेक नहीं रहे। एक ओर अमरीकी डालर की गरमी दूसरी और चीन की मदद।विश्व की दो बड़ी ताकतें उसके करीब हैं तो फिर वह भारत से दोस्ती की फिक्र क्यों करे। यह भारत है हमेशा न जाने किस दबाव में वार्ता करने चला जाता है और मुंह की खाकर वापस लौट आता है।
भारत-पाक के बीच अविश्वास और अनास्था के इस घटाटोप अंधेरे के बीच एक रोशनी की किरण भी है और वह यह है कि दोनों देशों की जनता के दिल मिले हैं और दिमाग नफरत से मुक्त हैं। वहां के कलाकार भारत आते हैं तो खूब सम्मान पाते हैं और अपने साथ अमन का संदेश लेकर आते हैं। यहां से उतना ही प्यार और खुलूस वापस लेकर लौटते हैं। काश! इन मेहमान कलाकारों की तरह की मंशा और मानस वहां के हुक्मरानों का भी हो जाये तो एशिया के इस अंचल में एक नया इतिहास रचा जायेगा। इतिहास शांति और सह अस्तित्व का , इतिहास प्रगति का। आमीन।
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भाई साहब, 'कलम का सिपाहीÓ पर पाकिस्तान के बदलते रंग पर आपकी समीक्षा पढ़ी। आपका गुस्सा उबला पड़ï रहा है पूरे आलेख में। आपने दो बातें बड़ी जोरदार ढंग से उठायी है। पहली पाकिस्तान पर विश्वास नहीं किया जा सकता अतएव वार्ता का प्रयास व्यर्थ है दूसरे कि उसे अमरीका और चीन की शह मिली हुई है। आपने पाठकों से एक सवाल पूछा है कि 'पाकिस्तान से वार्ता की क्या मजबूरी है?Ó जी हां एक नजरिये से आपका कहना जायज है, एक दम सिपाही का गुस्सा है यह पर कूटनीतिक कीि ठंडी सोच नहीं है। दरअसल, बात नहीं करने के बाद एक ही विकल्प है ण्कि बात नहीं बनेगी। पर बात करने के बाद दो विकल्प रहते हैं पहला बात नहीं बनना और दूसरे बात का बन जाना। इस लिये अक्लमंदी है कि बात जारी रखी जाय।
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