किसी देश में क्या ऐसी भी आजादी होती है!
वही लिखूं, जो मन को भाता, कलम का एक सिपाही।।
भोपाल हम शर्मिंदा हैं
पत्रकारिता के नाम पर कलंक
(संदर्भ ‘अंबेडकर टुडे’ पत्रिका में ईश निंदा)
कुछ मंद बुद्धि (इसे दुष्ट बुद्धि या कुंठाग्रस्त कहना ज्यादा उचित होगा) लोग आगे बढते समाज को जबरन मध्ययुगीन बर्बरता और आदिम सोच की ओर खींच ले जाना चाहते हैं। यह काम कोई अनपढ़ जाहिल आदमी करता तो समझा जाता कि उसकी अल्पबुद्धि से यह गलती हो गयी। यह काम तो पढ़े-लिखे एक जाहिल ने किया है।जिसके बौद्धिक दिवालियेपन का जायजा उसकी सोच से ही मिलता है। आगे पढ़ें....
सम्मान के लिए हत्या’ या सम्मान की हत्या?
इनसान की प्रगति के कदमों ने चांद की सतह तक को छू लिया है। अब उसकी परवाज दूसरे अजाने ग्रहों के रहस्य भेदने की ओर है लेकिन उनका अपना खूबसूरत ग्रह धरती कुरीतियों, कुसंस्कारों और रूढ़ियों से दिन ब दिन कलुषित और मलिन होता जा रहा है। 21 वीं सदी में भी हमारे देश में अब भी कई अंचल ऐसे हैं जहां जहालत का अंधेरा है और वहां लोग मध्ययुगीन बर्बरता के बीच जी रहे हैं। आगे पढ़ें....
लो लो भाई, मैने चुका दिया एसपी का कर्जा
एक दिन की बात है (सन और तारीख अब याद नहीं) कलकत्ता स्थित आनंद बाजार पत्रिका के भवन में हम आनंद बाजार प्रकाशन समूह के चर्चित हिंदी साप्ताहिक `रविवार' के कार्यालय में कार्य कर रहे थे कि तभी हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी के नाम से परिचितों में जो ख्यात थे) एक हट्टे-कट्टे औसत कद के व्यक्ति के साथ कार्यालय में दाखिल हुए। आगे पढ़ें....
कहानी / वसीयत
रीना, शीलू, पंपा और चंपा के सिर पर प्रेम से हाथ फेरते हुए काली बाबू कहते, ' छक कर खाओ मां, संकोच मत करो। अरे, शीलू तू आज ठीक से क्यों नहीं खा रही ? देख, तेरी तीनों बहनें कैसा स्वाद लेकर खा रही हैं। ठीक से नहीं खायेगी तो दुबली हो जायेगी। अरे, रीना बेटी, चंपा बेटी को पंजा क्यों मार रही है?उसने क्या बिगाड़ा है तेरा? जाने क्यों तू अकसर उससे लड़ती रहती है। आगे पढ़ें...
अपने जीवन में इस यक्ष प्रश्न का सामना हर व्यक्ति को करना पड़ा है कि क्या वाकई ईश्वर हैं ? ब्रह्मज्ञानियों ने परम तत्व या परमात्मा अर्थात ईश्वर का विवेचन विविध भांति से किया है। कुछ के लिए वह अजन्मा, निराकार स्वरूप है तो कुछ के लिए साकार और मानव की भांति जन्म लेने और मृत्यु को प्राप्त करने वाला। आगे पढ़ें...
पुण्य सलिला सुरसरी, पतितपावनी, जगउद्धारिणी गंगा जिसका हर भारतवासी से जन्म से लेकर मरण तक का अटूट नाता है। जिसे श्रद्धा से गंगा मैया कह कर बुलाते हैं और जो जाने कितनी संस्कृतियों की साक्षी और इतिहास की गवाह है। जिसके तट पर संस्कृतियां जन्मी, जिसने सदियों से जमाने का हर दर्द सहा फिर भी लोगों में बांटती रही अमृत। आगे पढ़ें...
कृपया भाषा से खिलवाड़ तो मत कीजिए!
इन दिनों कुछ तो हिंदी में बुरी तरह से घुसपैठ कर रही अंग्रेजियत और कुछ भाषा के अज्ञान के चलते बड़ा अनर्थ हो रहा है। हमारी वह भाषा जो एक तरह से हमारी मां है, हमारी अभिव्यक्ति का जरिया है और जिसकी बांह थाम हम अपनी जीविका चलाते हैं आज उसका जाने-अनजाने घोर निरादर और पमान हो रहा है। आगे पढ़ें...
भाषा न सिर्फ अभिव्यक्ति का साधन अपितु किसी देश, किसी वर्ग का गौरव होती है। यही वह माध्यम है जिससे किसी से संपर्क साधा जा सकता है या किसी तक अपने विचारों को पहुंचाया जा सकता है। भारतवर्ष की प्रमुख भाषा हिंदी तो जैसे इस देश की पहचान ही बन गयी है। आगे पढ़ें...
गांव यानी भारत की आत्मा। न जाने कितनी खट्टी-मीठी यादों से जोड़ देता है हमें यह शब्द। यादें खिले कमलों औल पुरइन पात से भरे तालाब की। यादें आम के बोझ से झुकी अमराइयों और कोयल की मीठी कूक की। कजरी का त्योहार, जंगल में आग की लपटों का एहसास देते टेसू (पलाश ) के फूल, होली का हुड़दंग और हुलास, मस्ती, फाग। चैत में महुआ वन की मादक महक।फूली सरसों के खेत, दीवाली , तीज-त्यौहार और भी न जाने कितनी उजली यादें। आगे पढ़ें...
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