Friday, December 30, 2011

यही हस्र होना था लोकपाल का


राजेश त्रिपाठी

लोकसभा में तो कांग्रेस ने जैसे-तैसे लोकपाल विधेयक पारित करा लिया। भले ही इसे कोई पंगु, दंतविहीन कहे या जोकपाल कह कर इसका माखौल उड़ाये लेकिन कांग्रेस ने यह श्रेय तो ले ही लिया कि उसने लोकपाल न सिर्फ लोकसभा में पेश किया अपितु इसे पारित भी करा लिया। यह कर के कांग्रेस ने एक काम तो कर ही लिया है कि फरवरी में पांच राज्यों में होनेवाले चुनावों में इसे वह अपनी एक महान उपलब्धि के रूप में पेश करने और इसे भुनाने की जीतोड़ कोशिश करेगी। लोकसभा में तो उसने विधेयक पारित करा लिया लेकिन राज्यसभा में वह बहुमत के अंकगणित में कहीं नहीं टिकी। वहां इस विधेयक में न सिर्फ ब्रेक लगा बल्कि हमें संसदीय गणतंत्र का एक और विद्रूप देखने को विवश होना पड़ा। विधेयक पर बहस के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष के सांसद जिस तरह आवेश में एक दूसरे पर बरस रहे थे उससे कहीं भी नहीं लग रहा था कि ये जनप्रतिनिधि जनता के हित में कुछ कर रहे हैं। लग यह रहा था कि सभी यह जताने की कोशिश में हैं कि हम तुमसे बीस हैं। उन्हें देख तरस आ रहा था कि ये लोग बेवजह वक्त जाया कर रहे हैं। सभी चिल्ला रहे थे हमें मजबूत लोकपाल चाहिए लेकिन सच पूछे तो कोई भी ऐसे लोकपाल के पक्ष में नहीं जिसकी अपनी स्वतंत्र और सक्षम सत्ता हो और जो वाकई भ्रष्ट लोगों को दंड देने के लिए किसी दूसरी सत्ता का मोहताज न हो। जाहिर है ऐसी किसी भी व्यवस्था से हर उस व्यक्ति को परहेज होगा जिसे कहीं न कहीं किन्हीं न किन्हीं स्रोतों से धन लेना पड़ता है चाहे वह चुनाव खर्च के लिए हो या फिर पार्टी चलाने के लिए। अगर सक्षम लोकपाल आ जायेगा तो वह उन अंधेरे गलियारों की हकीकत भी छान लेगा जो अब तक सत्ता के जोर से या किसी और शक्ति से छिपाये जा रहे हैं। ऐसे में जाहिर है कई ऐसे लोगों को परेशानी होगी जो नहीं चाहते कि लोकपाल उनसे भी बड़ी ताकत बने।
      गुरुवार की देर रात तक राज्यसभा सांसद चीख-चीख कर अपनी व्यथा और दिक्कतें गाते रहे। विपक्ष सत्ता पक्ष को लानत भेजता रहा और सत्ता पक्ष विपक्ष को कोसता रहा कि वह विधेयक पारित नहीं कराना चाहता। राज्यसभा में उस दिन अध्यक्ष का पद संभाल रहे उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी सबको शांत करने की असफल कोशिश करते रहे। इसी बीच एक दल (अब नाम लिखने में दिक्कत है, पता नहीं कब किसी पचड़े में फंस जाया जाये क्योंकि अब अभिव्यक्ति के हर माध्यम पर नजरदारी की कोशिशें जारी हैं। जिन लोगों ने कार्रवाई देखी है वे इन्हें पहचान लेंगे। ) सांसद उठे और केंद्रीय गृह राज्यमंत्री वी नारायणसामी (जो उस वक्त बहस का जवाब दे रहे थे) के हाथ से लोकपाल विधेयक की कापी ली और उसे फाड़ कर अध्यक्ष के सामने की लॉबी मे फेंक दिया। अध्यक्ष और सत्ता पक्ष के लोग उन्हें मना करते रहे लेकिन वे इतने उत्साह में थे कि क्यों मानने लगे। शायद उन्होंने सोचा होगा कि ऐसा कर के
वे जनता का हित कर रहे हैं और उसके सच्चे प्रतिनिधि साबित करने का कर्तव्य निभा रहे हैं। कुछ ऐसे थे जिन्हें भ्रष्टाचार मिटाने की उतनी फिक्र नहीं थी जितनी अपनी गरदन की चिंता थी। वे चीख-चीख कर कह रहे कि कितनी मेहनत से, हमने यह परमपद पाया है और हम जैसे श्रेष्ठों पर भी शासन करने के लिए कोई नया हौआ (लोकपाल) लाया जा रहा है। हम जैसे जनसेवक क्या कल उसके चलते जेलों में नजर आयेंगे। भईए आपके प्रति पूरा सम्मान और देश के लिए किये गये आपके महत कार्यों के प्रति अहसान जताते हुए हम यही निवेदन करना चाहते हैं कि आप जनप्रतिनिध हैं, देश के नागरिक पहले हैं उसके बाद सांसद या मंत्री हैं। देश के कानून से बंधे हैं। पद की गरिमा आपको सम्मान दिलाती है पर आपको कानून से ऊपर होने का दर्जा नहीं देती। आपको एक सशक्त लोकपाल लाने में डर क्यों लगता है? अगर आप दूध के धुले हैं तो एक क्या सौ लोकपाल आपका बाल भी बांका नहीं कर सकते। और अगर आपने सत्ता-सुख या सांसद-सुख पाने के लिए कुछ ऊंच-नीच किया है तो फिर कानूनन अपने को पाक-साफ साबित करने में हिचक कैसी! यह तो वही हुआ चोर नहीं चोर जैसी बातें। अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के तौर-तरीकों, उनके साथ जुडें लोगों के रवैये और रुख पर संदेह हो सकता है लेकिन उस आदमी ने कोई बुरी बात तो नहीं कही। अन्ना के आंदोलन का जी-जान से विरोध करना तो यही दर्शाता है कि कोई मन से भ्रष्टाचार मिटाने को तैयार नहीं। शायद इस डर से कि इससे कहीं वह या उसके अपने ही घेरे में न जायें।
      हमारे देश ने संसद के सदनों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण कर जनता का बहुत बड़ा हित किया है। आज वह अपने प्रतिनिधियों के संसद में किये जा रहे आचरण को सीधा देख सकती है। गुरुवार (29 दिसंबर 2011)की रात जिन्होंने राज्यसभा की कार्यवाही देखी उन्हें यह समझते देर नहीं लगी होगी कि सभी सांसद एक-दूसरे से झड़पने-उलझने में लगे थे और लोकपाल विधेयक किसी टेबल पर पड़ा अपने भाग्य पर रो रहा था। शायद यह सोच कर कि अगर वाकई उसे गंभीरता से लिया गया होता, उसे वह ताकत दी गयी होती जिसकी भ्रष्टाचार के इस घटाटोप के वक्त में जरूरत है और यदि वह उसी रूप में आता तो शायद हमारी शासन प्रणाली और नौकरशाही का परिष्कार हो जाता। देश की जनता का भी भला होता जो आज भी इतनी भोली है कि उन्हीं लोगों को बार-बार चुन कर ले आती है जिन्हें वह उससे विमुख होने के लिए पांच साल तक कोसती है।
      एक सज्जन तो अपने संभाषण में जीभर कर अन्ना को कोस रहे थे जैसे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा कर उन्होंने कोई महापाप कर डाला हो। वे कुछ इस तरह चीख रहे थे कि कौन होता है यह (अन्ना) हम लोगों को सजा दिलवाने वाला। हम कितनी तकलीफ सह कर मंत्री या सांसद बनते हैं। इन सज्जन को भ्रष्टाचार मुक्त देश से ज्यादा आरक्षण की फिक्र थी। वे चाहते थे कि लोकपाल में हर वर्ग को
सही प्रतिनिधित्व मिले।राज्यसभा में नोंकझोंक और शोरशराबे की बलि चढ़ गया लोकपाल विधेयक। अध्यक्ष देर तक विनती करते रहे कि शांति रहे और विधेयक पर मतदान हो जाये लेकिन उनकी एक नहीं सुनी गयी और उन्हें मध्यरात्रि के बाद
राज्यसभा की कार्यवाही खत्म करने को मजबूर होना पड़ा। गुरुवार की मध्यरात्रि राज्यसभा में लोकपाल विधेयक भी जैसे गहरी नींद सो गया।
      एक तरह से ठीक ही हुआ। जिस विधेयक में दर्जनों संशोधन सुझाये जा रहे हों उसमें अंत तक क्या बचेगा यह कहना भी मुश्किल है। जिसे जहां असुविधा है वह अपनी तरफ से एक संशोधन ठेल दे रहा है। ऐसे में लोकपाल कहीं शक्तिविहीन, परमुखापेक्षी ऐसी संस्था बन कर न रह जाये जो सिर्फ कागजी खानापूरी हो और जिससे जनता का तो भला हो ही नहीं किसका होगा यह स्वयं अंदाज लगाया जा सकता है। सच कहा जाये तो देश के शासक लोकपाल जैसी संस्था ( जो उन पर नजरदारी करे और जरूरत पड़ने पर दंड देने का अधिकार भी रखे) के प्रति कभी गंभीर नहीं रहे । क्योंकि अगर ऐसा होता तो जब-जब लोकपाल आया उसका जी-जान से विरोध न होता। इस बार भी कांग्रेस नीत केंद्र की संप्रग सरकार केवल और केवल इसलिए लोकपाल लाने के मजबूर हुई है क्योंकि अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और जन लोकपाल की उनकी मांग ने पूरे देश को न सिर्फ उद्वेलित किया अपितु एक तरह से सरकार को बाध्य किया कि इसके बारे में वह सकारात्मक ढंग से सोचे। सरकार ने अपने तरीके से लोकपाल पेश किया। इसके बारे में विशेषज्ञ कहते हैं कि इसमें उतनी ताकत नहीं जितनी अन्ना के मांगे जनलोकपाल में होती।
      दरअसल कोई नहीं चाहता लोकपाल। सामने पांच राज्यों के चुनाव हैं सभी दलों का ध्यान अभी वहीं है। अभी लोकपाल लाया गया है तो सभी दल इसे अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश करेंगे। कांग्रेस कहेगी हम विधेयक लाये पर विपक्ष ने इसे पास नहीं होने दिया। विपक्ष कहेगा यह नख-दंत विहीन लोकपाल विधेयक कांग्रेस सिर्फ दिखाने के लिए लायी थी, इससे जनता का भला नहीं होगा। लोकपाल विधेयक को लेकर आज जैसे तमाशा हो रहा है उससे अन्ना का सपना तो टूटा ही है देश की भी उम्मीद को धक्का लगा है। अब जनता इसे किस तरह से लेती है यह तो आनेवाले चुनावों के परिणाम ही बतायेंगे आज का सच यह है कि बहुप्रतीक्षित, बहुआकांक्षी, जनहितैषी लोकपाल विधेयक लटक गया है। इसका वही हस्र हुआ जो होना था। शायद इसके प्रति कोई गंभीर नहीं सिर्फ उन नागरिकों के सिवा जिन्हें अपने छोटे-छोटे काम तक के लिए घूस देने को विवश होना पड़ता है। ईश्वर जाने मेंरे देश का क्यो होना है।
     

2 comments:

  1. लोकतंत्र की दुहाई देने वाले इन कर्णधारों से बस अब एक ही सवाल कोई पूछे कि जिस सरकार का कोई बहुमत ही नहीं है उसका सत्ता में बने रहने का औचित्य ?

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  2. आम आदमी भी सब कुछ देख और समझ रहा है राजेश भाई और यकीन न बिल्कुल ऐसा ही सोच रहा है जैसा आपने कहा है । साठ सालों से लगातार जिसे बिगाडा गया है उसमें सुधार के लिए हमें वक्त तो देना ही होगा । शुरूआत में ये व्यवधान आना अपेक्षित ही था ।आने वाला समय ही बताएगा कि ऊंट किस करवट बैठा

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