Sunday, March 18, 2012

गठबंधन पर टिकी केंद्र की लंगड़ी सरकार की मुश्किलें

एक साथी को संभालो तो दूजा रूठ जाता है
राजेश त्रिपाठी
देश में जब से दो दलीय सत्ता प्रणाली का अवसान हुआ है, तब से एक तरह से देश की केंद्रीय सत्ता पंगु-सी हो गयी है। उसे सरकार चलाने के लिए एक नहीं कई-कई बैसाखियों पर निर्भर रहना पड़ता है। इनमें से किसी बैसाखी ने भी बगावत की तो सरकार के कदम लड़खड़ाने लगते हैं। सरकार चलाने, कानून बनाने या किसी भी निर्णय से पहले उसे गठबंधन धर्म के पालन की बात सोचनी पड़ती है। वह गठबंधन धर्म जो कहता है कि कई दलों के सहयोग से बनी सरकार को कोई भी छोटा- बड़ा निर्णय लेने से पहले गठबंधन के हर दल का ध्यान रखना होगा। कहीं ऐसा न हो केंद्र की सरकार का निर्णय उसके किसी भी सहयोगी दल को नागवार गुजरे। इससे होता यह है कि केंद्र सरकार स्वच्छंद रूप से निर्णय नहीं ले पाती, उसे गठबंधन में शामिल दलों से सलाह-मशविरा करना पड़ता है, वे राजी नहीं हुए तो केंद्र सरकार अनिर्णय की स्थिति में आ जाती है। केंद्र की संप्रग-2 सरकार को पिछले कुछ अरसे में ऐसे कई झटके उसके सहयोगी दलों ने दिये हैं, जिससे वह स्वच्छंद रूप से निर्णय लेने में हिचकिचा रही है। चाहे एफडीआई का मामला हो या कोई अन्य निर्णय संप्रग सरकार न सिर्फ विपक्ष अपितु अपने सहयोगी दलों का विरोध भी झेलना पड़ा है। इससे ऐसे कई निर्णय जो केंद्र सरकार करना चाहती थी, अटक गये हैं। केंद्र सरकार की सारी ऊर्जा अभी अपने सहयोगी दलों को तुष्ट करने, उन्हें मनाने में जाया हो रही है। एक सहयोगी दल को संभाले तो दूसरा रूठ जाता है। संतुलन बनाये रखने के लिए संप्रग के नेताओं को एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ रहा है। शायद कांग्रेस भी इस सबसे परेशान हो रही है तभी तो उनके महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा है कि कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनाव अकेले लड़ेगी। यह बयान इस बात को दर्शाता है कि कांग्रेस गठबंधनों दलों के भयादोहन से ऊब गयी है। वह चाहती है कि केंद्र में अगली सरकार वह अपने बलबूते पर बनाये। लेकिन आज की परिस्थितियों को देखते हुए यह नितांत असंभव लगता है।
      2014 में केंद्र में कोई भी दल अपने अकेले के बलबूते पर सरकार नहीं बना पायेगा। भारतीय राजनीति में आज गठबंधन अपरिहार्य है। आज का दैर गठबंधन सरकारों का दौर है और यह जारी रहेगा। कोई कितना भी दंभ करे , बढ़-चढ़ कर बात करें लेकिन किसी की कूवत अकेले दम पर केंद्र की सत्ता में आने की नहीं है। इसके पीछे कई कारण हैं। पहली बात तो यह है कि यह समय राज्यों में क्षेत्रीय दलों के उभार और लोकप्रियता का दौर है। ये दल अपने क्षेत्रों में इतनी अहमियत रखते हैं कि उन्हें नकारा नहीं जा सकता। वहां अपनी राजनीतिक गोटी  बैठाने के लिए किसी भी राष्ट्रीय दल के लिए उनसे हाथ मिलाना मजबूरी है। हाल के दिनों में जिन राष्ट्रीय दलों ने भी क्षेत्रीय दलों के बगैर चुनाव लड़ने की कोशिश की उसने ही मुंह की खायी। ऐसे में अब कोई क्षेत्रीय दलों के बगैर राजनीति करने की सोच ही नहीं सकता। गठबंधन आज की राजनीतिक मजबूरी है और यह सत्ता की राष्ट्रीय मजबूरी बन गयी है। इसके चलते जनहित में लिये जाने वाले कई फैसलों में लगाम लग जाती है। इसकी वजह यह है कि जो राष्ट्रीय हित में है, संभव है कि वह उस क्षेत्रीय दल के हित में न हो। क्षेत्रीय दलों की क्षेत्रीय समस्याएं हैं और वे उन्हें ही प्रमुखता देते हैं क्योंकि उन्हें उसी आधार पर वोट मांगने होते हैं। उनकी क्षेत्र की समस्याएं राष्ट्रीय समस्याओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
      आजकल जिस तरह से राज्यों में क्षत्रप उभर रहे हैं उससे केंद्र की राजनीति भी प्रभावित होती है जो ऐसे क्षत्रपों के दलों के सहारे चल रही है। इनमें से किसी के भी क्षेत्रीय हितों में चोट होती प्रतीत होती है तो वही केंद्र सरकार से रुष्ट हो जाता है और समर्थन वापस लेने की धमकी देने लगता है। वह यह नहीं सोचता कि केंद्र की गठबंधन सरकार के लिए जितना जरूरी गठबंधन धर्म निभाना है उतना ही जरूरी राष्ट्रधर्म निभाना भी है। राष्ट्रधर्म यह कहता है कि केंद्र की सरकार को नीतियां बनाते वक्त देश के हर वर्ग, हर अंचल की भलाई का ध्यान रखना चाहिए। आजकल केंद्र की संप्रग सरकार इतनी बेबस और लाचार है कि वह कोई भी निर्णय लेने के पहले 10 बार सोचती है, पता नहीं उससे उसका कौन सहयोगी नाराज हो जाये और समर्थन की बैसाखी खींच ले। इस तरह की मजबूर सरकारें न खुद को मजबूत रख सकती हैं न ही देश को।
      हाल में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों ने यह जारी कर दिया है कि देश की जनता लफ्फाजी या बड़बोलेपन से ऊब गयी है। शायद जनता भी राज्यों और केंद्र में अपने लिए सशक्त सरकारें चाहती है। यही वजह है कि उसने उत्तर प्रदेश में मायावती को नकार कर मुलायम सिंह की सपा पर यकीन किया। उत्तर प्रदेश पर कब्जे के लिए राहुल गांधी और सपा के युवा सिपहसालार अखिलेश यादव दोनों  ने पसीना बहाया लेकिन लोगों ने समर्थन अखिलेश को दिया। उत्तर प्रदेश में मतदाताओं का एक खास वर्ग कांग्रेस से छिटक गया क्योंकि उस पर उसे भरोसा नहीं रहा। राहुल गांधी ने अपने भाषणों में उत्तर प्रदेश की जनता को चेताया कि वह वर्षों से क्यों सोयी पड़ी है, उसे अब जाग जाना चाहिए। वाकई जनता जागी और इस तरह से जागी कि उसने महाबली मायावती को हराने के साथ ही सपा के हाथों में प्रदेश का भविष्य सौंप दिया। कुछ राजनीतिक पंडित कहते हैं कि राहुल के चलते उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के मत प्रतिशत में वृद्धि हुई है। हो सकता है यह कांग्रेस के लिए भविष्य की उम्मीद जगाता हो लेकिन आज की हकीकत यह है कि कांग्रेस का प्रदेश की सत्ता में लौटने का सपना चूर-चूर हो गया है।
      प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह प्रबुद्ध और सज्जन व्यक्ति हैं। गठबंधन दलों के दांव-पेच, उनकी दादागीरी उनकी समझ से परे हैं। ऐसे पचड़े में पड़ने के वे आदी भी नहीं है। उनके जैसा उदार और खुले व्यक्तित्व का शख्स अगर कुछ चाहता है तो  वे देश को सुशासन और प्रगति देना। इसके लिए वे चाहते हैं कि सभी का सहयोग मिले। पिछले कुछ वक्त की घटनाएं गवाह हैं कि उन्हें ऐसा सहयोग पूरी तरह से नहीं मिला। चाहे अमरीका से परमाणु समझौते में वामदलों का समर्थन वापस लेने का वाकया हो या संप्रग सरकार के दूसरे दलों का सरकार के प्रगति पथ पर अवरोधक खड़ा करने का रवैया यह सभी मनमोहन जी को परेशान करते रहे हैं। सोचा यही गया था कि गठबंधन दल केंद्र सरकार को हर जरूरी सहयोग देते रहेंगे लेकिन ऐसा संभव नहीं हुआ।
      दोष गठबंधन दलों को भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि केंद्र की सरकार को टिकाये रखना उनकी प्राथमिकता नहीं। उनकी प्राथमिकता है राज्य में अपने अस्तित्व को बनाये रखना और अपना वोट बैंक को पुख्ता और अटूट रखना। ऐसे में उनके किसी कदम से अगर केंद्र सरकार हिलती है तो हिला करे। वे पहले अपने क्षेत्र की जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं उसके बाद किसी और के प्रति। ऐसे में केंद्र सरकार को अपने उन सभी दलों की भावनाओं का खयाल रखना पड़ता है जिनमें से सबके विचार भिन्न हैं, उनके वोट बैंक की अभिलाषाएं और मांग भिन्न हैं जो संभल है कि राष्ट्र की जरूरतों और मांग से मेल न भी खायें। कांग्रेस नीत केंद्र की गठबंधन सरकार को इन सभी गठबंधन सरकार को चलाने या 2014 तक टिकाने में पसीने छूट रहे हैं। एक गठबंधन को संभालते हैं तो दूसरा कोई मांग लेकर केंद्र को घेरने की तैयारी करने लगता है। ऐसे में केंद्र सरकार के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है। अभी जो स्थितियां हैं उसमें कुछ लोग मध्यावधि चुनाव के ख्वाब भी देखने लगे हैं। वैसे कई दल ऐसे हैं जो नहीं चाहते कि कांग्रेस नीत केंद्र की सरकार अभी गिरे। अगर सरकार गिरी तो उन्हें केंद्र में भाजपा के आने का भय सता रहा है। यही वजह है कि गठबंधन के किसी एक दल के रूठने पर कई बाहर से समर्थन कर रहे दल कांग्रेस को सक्रिय समर्थन दे सरकार में शामिल होने तक की बात कर रहे हैं। इसमें भी कहीं न कहीं उनका भी राजनीतिक स्वार्थ नजर आता है। उन्हें भय है कि अगर केंद्र की कांग्रेस नीत सरकार बदली तो संभव है उसे नयी केंद्र सरकार से वह मदद न मिल सके जो वे अभी की सरकार से उम्मीद कर रहे हैं।
      जहां तक गठबंधन में शामिल दलों की बात है तो उन्हें भी यह समझना चाहिए कि गठबंधन धर्म आपसी सहयोग से ही टिकता है, असहयोग या भयादोहन से नहीं। उन्हें अपने क्षेत्रीय हितों का ध्यान रखना चाहिए लेकिन देश और राजनीति की जरूरत के लिए क्षेत्रीय स्तर से ऊपर उठ राष्ट्रीय स्तर पर सोचना चाहिए ताकि बार-बार सरकारें बदलने से देश के हितों में बाधा न पड़े। जब तक दो दलीय प्रणाली थी एक सत्ता दल और दूसरा सशक्त विपक्ष होता था जो सरकार के किसी जनविरोधी निर्णय पर सफलता से ब्रेक लगा देता था। अब दलों का ऐसा दलदल है जिसमें कई दल शामिल हैं और उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं जिससे गठबंधन में अक्सर दरार होती नजर आती है। देश की आज जो स्थिति है उससे लगता नहीं कि केंद्र में कभी एक दलीय सत्ता की वापसी होगी। राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत हो रहे हैं और केंद्र सरकार के कामों में उनकी दखलंदाजी भी बढ़ रही है जो गठबंधन सरकारों को कई बार मुश्किल में डाल देती है। यह देश का दुर्भाग्य है कि आज देशहित गौण हो गया है और राजनीतिक लाभ-हानि का नजरिया ज्यादा महत्व पा रहा है। ऐसे में देश की राजनीति और केंद्रीय सत्ता का क्या भविष्य होगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। यह सच है कि गठबंधन की बैसाखियों पर टिकी सरकार कभी  न सुचारु रूप से चल सकती है न ही उसमें निर्णय लेने की ही आजादी रहती है।
     

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