सोनमर्ग का सुहाना सफर और स्लेज की सवारी
राजेश त्रिपाठी
श्रीनगर के होटल में हमारे साथ के दल के लोगों ने सुबह चार बजे ही जगा दिया। गरम चाय की प्याली थमायी और कहा कि छह बजते-बजते बस में पहुंच जाना है। वहां कुछ नियम ऐसा है कि बड़े वाहनों को सुबह आठ बजे से पहले शहर छोड़ देना होता है और वापसी में वे रात आठ बजे के बाद ही शहर में प्रवेश कर सकते हैं। ऐसे में बड़े वाहनों को हर हाल में सुबह आठ बजे तक श्रीनगर से बाहर निकल जाना पड़ता और वापसी में वे रात आठ बजे के बाद ही शहर में प्रवेश कर सकते थे। अगर पहले शहर के करीब आ गये तो उन्हें शहर के बाहरी परिधि के पास आठ बजे तक खड़ा रहना पडता। ऐसे में कुछ लोग ऐसी व्यवस्था करते थे कि अपनी बड़ी बसों को बाहर खड़ा कर यात्रियों को छोटे-छोटे वाहनों से शहर के अंदर ले आते थे। हमारे साथ ऐसी व्यवस्था नहीं थी इसलिए हमें वक्त का हमेशा खयाल रखना पड़ता था।
हमारा गंतव्य था सोनमर्ग। श्रीनगर से बस निकली तो कुछ दूर तक तो समतल रास्ता मिला फिर वही पहाड़ी रास्ता। पतली ऊंची-नीची, टेढ़ी-मेढ़ी सड़कें। दायें-बायें कल-कल कर बहती छोटी-छोटी पहाड़ी नदियां जो बर्फ से जमे पहाड़ों की चोटियों से निकलते ग्लैशियर से बनी थीं। उनमें बहता जल इतना स्वच्छ की आप उसमें अपना चेहरा साफ-साप देख लें। उनमें उठता दूधिया झाग अलग ही सुंदर दृश्य उपस्थित करता था। ऊपर से बह-बह कर नीचे आया ग्लैशियर का बर्फ नदी के किनारों में वर्षों से आ-आकर जमा होता जा रहा था। जितने सफेद शिलाओं का रूप ले लिया था। कुछ लोगों ने बताया कि ऐसी शिलाएं ही अनंत काल तक दबे रहने के बाद स्फटिक में बदल जाती हैं इसीलिए उसकी तासीर ठंडी होती है। अचानक लोगों ने ड्राइवर से अनुरोधकर बस रुकवा दी। सबकी निगाहें सामने के बर्फीले पहाड़ की चोटी की ओर टिक गयीं और एक साथ - दर्जनों कैमरे किल्क होने लगे। चोटी की ओर नजर डाली तो पल भर के लिए नजरें चौधियां गयीं। बर्फ से भरी पहाड़ी के बीच से एक ग्लैशियर नीचे बह कर आ रहा था। उस पर सूर्य की प्रखर किरणें पड़ रही थीं और लग रहा था जैसे पूरी चोटी में सोना बिखरा है जो पिघल कर नीचे आ रहा है। काफी देर तक हम उस प्राकृतिक सुषमा को निहारते और अपनी सुधियों में उतारते रहे फिर आगे बढ़े। रास्ते के दोनों ओर प्राकृतिक सुषमा का पसरा हुआ संसार, जहां तक नजर जाती धवल बर्फ से लदी चोटियां, बहते झरने। ऐसा मनोहर दृश्य देख कर कोई भी कवि हो जाए। यह खाकसार कभी-कभार कुछ पंक्तियों को लय में उतारने की कोशिश करता है जाने क्यों बस में बैठे-बैठे ही उस दिन कुछ पंक्तियां स्वतः दिमाग में उभरती गयीं जो नोटबुक में लिख लीं। देखिए शायद उस अनुपम सुषमा की थोड़ी महक इन पंक्तियों में आ पायी हो-जर्रे-जर्रे में खूबसूरती खुदा ने पिरोयी है। कण-कण में हजारों देवकन्याएं सोयी हैं। कदम-कदम फूलों की छटा। पहाड़ों को चूमती मदमस्त घटा। देखो झरनों का कितना पावन निर्मल नीर है। दिल को बरबस खींच रही यह स्वर्गभूमि कश्मीर है।
बीआरओ की तरफ से इस रास्ते पर सावधानी के निर्देश जगह-जगह पर लिखे थे। एक बानगी-लाइफ इज जर्नी कम्पलीट इट। इन साऱी हिदायतों को पढ़ते, पहाड़ की सुंदरता को देखते हुए हम सोनमर्ग पहुंचे जो यहां का बहुत ही मशहूर टूरिस्ट स्पाट है। चारों ओर दो-तीन फुट ऊंचा बर्फ, हर घाटी बर्फ की मोटी चादर ओढ़े हुए और उसकी ढलान पर काठ की बनी स्लेज गाड़ी पर टूरिस्टों को बैठा कर खींचते स्लेज गाड़ी वाले। यहां कश्मीर के लोगों की रोजी-रोटी के लिए छीनाझपटी और लड़ाई देख दिल भर आया। दरअसल हमने एक स्लेज वाले से पहले से बात कर ली थी लेकिन एक दूसरा वहां आ गया और बोला कि ये मेरे टूरिस्ट हैं मेरी स्लेज पर बैठेंगे। िसी बात पर दोनों में छीनाझपटी और मार-पीट की नौबत आ गयी। रोटी किस कदर भाइयों को लड़ा रही है यह सोच हमने ही एक तरकीब निकाली। हम चार लोग दो गुटों में बंट गये और दोनों ने एक-एक गुट को अपनी स्लेज में बैठा लिया। वहां तो झगड़ टल गया लेकिन उद्योग-धंधो से हीन कश्मीर में रोजी-रोटी की समस्या एक बड़ी समस्या है। वहां के युवक अपने वहां काम न पाकर हजारों किलोमीटर दूर जाकर साल बेच कर साल भर की रोजी-रोटी का जुगाड़ करते हैं। अगर हमारी केंद्र सरकार तोड़ा साहस दिखा कर कश्मीर से बंदिशें हटा ले, कुछ ऐसे प्रावधान कर दे कि वहां के परिवेश और वातावरण को अक्षुण्ण रखते हुए वहां के लायक उद्योग-धंधे खोले जाएं तो वहां के लोगों को काम मिल जाये। ऐसा हो सका तो राज्य का बड़ा कल्याण होगा, वहां विकास का एक नया युग प्रारंभ हो सकेगा और हर हाथ को काम मिलेगा तो वहां के युवकों को गलत राह में बहकाने वालों के हौसले भी पस्त होंगे और संभव है बरसों से वहां जारी आतंकवाद की समस्या में भी ब्रेक लगे। इसके लिए एक व्यापक व जनहितैषी सोच की जरूरत है। पता नहीं बाहर के राज्यों के उद्योगपतियों को वहां उद्योग लगानेके लिए क्यों प्रोत्साहित नहीं किया जाता। वैसे ऐसा करते समय यग नितांत आवश्यक है कि वहां कि प्राकृतिक सुषमा व परिवेश को कोई नुकसान न पहुंचे। वहां का मौसम फूड प्रोसेसिंग, औषिध निर्माण व अन्य उद्योगों के लिए बहुत ही मुफीद है। पता नहीं हमारे शासकों में कब यहां विकास लाने की इच्छाशक्ति जागेगी और कश्मीर की तकदीर बदलेगी।
हमारा देवा यानी देवांश (हमारा नाती) स्लेज गाड़ी का खूब मजा ले रहा था। उसने एक साथ इतना सारा बर्फ पहली बार देखा था और इसका खूब आनंद ले ला रहा था। बस थोड़ा सा बर्फ उसके जूतों के अंदर भर गया और उस ठंड से नाचने लगा। हमने वहीं बर्फ के ऊपर बने स्टाल से चाय पी। एक जावेद अहमद साहब वहां आ गये थे उनसे लोगों ने शाल वगैरह खरीदे। उन लोगों ने बताया कि जब यह घाटी पूरी तरह से बर्फ से ढंक जाती है तो वे पहाड़ी के उस पार चले जाते हैं। वहीं एक होटल में नये ढंग से रंग -रोगन हो रहा था। लोगों ने बताया कि आमिर खान की किसी फिल्म की शूटिंग होनी है वही नया रंग-रोगन करने के लिए कह गये हैं। उसकी बगल से ही सड़क आगे जाती थी। हमें बताया गया कि इसके कुछ आगे बालताल है जो अमरनाथ जाने का रास्ता है। सोनमर्ग से इसी राह पर अमरनाथ की दूरी ३३ किलोमीटर है। 15 किलोमीटर की यात्रा कार या मोटर से और फिर बाकी घोड़ों या पालकी पर। जब हम वहां थे उस वक्त अमरनाथ यात्रा की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं। प्राकृतिक सुषमा के बीच इस अनुपम यात्रा का अनुभव साथ लिये हम श्रीनगर के अपने होटल लौट आये।
राजेश त्रिपाठी
श्रीनगर के होटल में हमारे साथ के दल के लोगों ने सुबह चार बजे ही जगा दिया। गरम चाय की प्याली थमायी और कहा कि छह बजते-बजते बस में पहुंच जाना है। वहां कुछ नियम ऐसा है कि बड़े वाहनों को सुबह आठ बजे से पहले शहर छोड़ देना होता है और वापसी में वे रात आठ बजे के बाद ही शहर में प्रवेश कर सकते हैं। ऐसे में बड़े वाहनों को हर हाल में सुबह आठ बजे तक श्रीनगर से बाहर निकल जाना पड़ता और वापसी में वे रात आठ बजे के बाद ही शहर में प्रवेश कर सकते थे। अगर पहले शहर के करीब आ गये तो उन्हें शहर के बाहरी परिधि के पास आठ बजे तक खड़ा रहना पडता। ऐसे में कुछ लोग ऐसी व्यवस्था करते थे कि अपनी बड़ी बसों को बाहर खड़ा कर यात्रियों को छोटे-छोटे वाहनों से शहर के अंदर ले आते थे। हमारे साथ ऐसी व्यवस्था नहीं थी इसलिए हमें वक्त का हमेशा खयाल रखना पड़ता था।
हमारा गंतव्य था सोनमर्ग। श्रीनगर से बस निकली तो कुछ दूर तक तो समतल रास्ता मिला फिर वही पहाड़ी रास्ता। पतली ऊंची-नीची, टेढ़ी-मेढ़ी सड़कें। दायें-बायें कल-कल कर बहती छोटी-छोटी पहाड़ी नदियां जो बर्फ से जमे पहाड़ों की चोटियों से निकलते ग्लैशियर से बनी थीं। उनमें बहता जल इतना स्वच्छ की आप उसमें अपना चेहरा साफ-साप देख लें। उनमें उठता दूधिया झाग अलग ही सुंदर दृश्य उपस्थित करता था। ऊपर से बह-बह कर नीचे आया ग्लैशियर का बर्फ नदी के किनारों में वर्षों से आ-आकर जमा होता जा रहा था। जितने सफेद शिलाओं का रूप ले लिया था। कुछ लोगों ने बताया कि ऐसी शिलाएं ही अनंत काल तक दबे रहने के बाद स्फटिक में बदल जाती हैं इसीलिए उसकी तासीर ठंडी होती है। अचानक लोगों ने ड्राइवर से अनुरोधकर बस रुकवा दी। सबकी निगाहें सामने के बर्फीले पहाड़ की चोटी की ओर टिक गयीं और एक साथ - दर्जनों कैमरे किल्क होने लगे। चोटी की ओर नजर डाली तो पल भर के लिए नजरें चौधियां गयीं। बर्फ से भरी पहाड़ी के बीच से एक ग्लैशियर नीचे बह कर आ रहा था। उस पर सूर्य की प्रखर किरणें पड़ रही थीं और लग रहा था जैसे पूरी चोटी में सोना बिखरा है जो पिघल कर नीचे आ रहा है। काफी देर तक हम उस प्राकृतिक सुषमा को निहारते और अपनी सुधियों में उतारते रहे फिर आगे बढ़े। रास्ते के दोनों ओर प्राकृतिक सुषमा का पसरा हुआ संसार, जहां तक नजर जाती धवल बर्फ से लदी चोटियां, बहते झरने। ऐसा मनोहर दृश्य देख कर कोई भी कवि हो जाए। यह खाकसार कभी-कभार कुछ पंक्तियों को लय में उतारने की कोशिश करता है जाने क्यों बस में बैठे-बैठे ही उस दिन कुछ पंक्तियां स्वतः दिमाग में उभरती गयीं जो नोटबुक में लिख लीं। देखिए शायद उस अनुपम सुषमा की थोड़ी महक इन पंक्तियों में आ पायी हो-जर्रे-जर्रे में खूबसूरती खुदा ने पिरोयी है। कण-कण में हजारों देवकन्याएं सोयी हैं। कदम-कदम फूलों की छटा। पहाड़ों को चूमती मदमस्त घटा। देखो झरनों का कितना पावन निर्मल नीर है। दिल को बरबस खींच रही यह स्वर्गभूमि कश्मीर है।
बीआरओ की तरफ से इस रास्ते पर सावधानी के निर्देश जगह-जगह पर लिखे थे। एक बानगी-लाइफ इज जर्नी कम्पलीट इट। इन साऱी हिदायतों को पढ़ते, पहाड़ की सुंदरता को देखते हुए हम सोनमर्ग पहुंचे जो यहां का बहुत ही मशहूर टूरिस्ट स्पाट है। चारों ओर दो-तीन फुट ऊंचा बर्फ, हर घाटी बर्फ की मोटी चादर ओढ़े हुए और उसकी ढलान पर काठ की बनी स्लेज गाड़ी पर टूरिस्टों को बैठा कर खींचते स्लेज गाड़ी वाले। यहां कश्मीर के लोगों की रोजी-रोटी के लिए छीनाझपटी और लड़ाई देख दिल भर आया। दरअसल हमने एक स्लेज वाले से पहले से बात कर ली थी लेकिन एक दूसरा वहां आ गया और बोला कि ये मेरे टूरिस्ट हैं मेरी स्लेज पर बैठेंगे। िसी बात पर दोनों में छीनाझपटी और मार-पीट की नौबत आ गयी। रोटी किस कदर भाइयों को लड़ा रही है यह सोच हमने ही एक तरकीब निकाली। हम चार लोग दो गुटों में बंट गये और दोनों ने एक-एक गुट को अपनी स्लेज में बैठा लिया। वहां तो झगड़ टल गया लेकिन उद्योग-धंधो से हीन कश्मीर में रोजी-रोटी की समस्या एक बड़ी समस्या है। वहां के युवक अपने वहां काम न पाकर हजारों किलोमीटर दूर जाकर साल बेच कर साल भर की रोजी-रोटी का जुगाड़ करते हैं। अगर हमारी केंद्र सरकार तोड़ा साहस दिखा कर कश्मीर से बंदिशें हटा ले, कुछ ऐसे प्रावधान कर दे कि वहां के परिवेश और वातावरण को अक्षुण्ण रखते हुए वहां के लायक उद्योग-धंधे खोले जाएं तो वहां के लोगों को काम मिल जाये। ऐसा हो सका तो राज्य का बड़ा कल्याण होगा, वहां विकास का एक नया युग प्रारंभ हो सकेगा और हर हाथ को काम मिलेगा तो वहां के युवकों को गलत राह में बहकाने वालों के हौसले भी पस्त होंगे और संभव है बरसों से वहां जारी आतंकवाद की समस्या में भी ब्रेक लगे। इसके लिए एक व्यापक व जनहितैषी सोच की जरूरत है। पता नहीं बाहर के राज्यों के उद्योगपतियों को वहां उद्योग लगानेके लिए क्यों प्रोत्साहित नहीं किया जाता। वैसे ऐसा करते समय यग नितांत आवश्यक है कि वहां कि प्राकृतिक सुषमा व परिवेश को कोई नुकसान न पहुंचे। वहां का मौसम फूड प्रोसेसिंग, औषिध निर्माण व अन्य उद्योगों के लिए बहुत ही मुफीद है। पता नहीं हमारे शासकों में कब यहां विकास लाने की इच्छाशक्ति जागेगी और कश्मीर की तकदीर बदलेगी।
अपने पापा मुकेश के साथ सोनमर्ग में हमारा देवांश |
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