यह जताते हैं संवेदना में डूबे उनके भाषण
राजेश त्रिपाठी
- अब भी उनका पीछा कर रही है गांधी परिवार की त्रासदी
- कभी इस झटके ने हिला दिया था उन्हें
- विपक्षी उन पर इमोशनल अत्याचार का आरोप लगा रहे हैं
- पर राहुल ने जो भोगा उसे ही बयान कर रहे हैं
- संवेदना के उनके शब्द कितना असर करते हैं यह तो वक्त बतायेगा
राहुल
गांधी जब राजनीति में आये तो कांग्रेस के इस नये रंगरूट को किसी ने गंभीरता से
नहीं लिया था। उनको राजनीति में प्रोमोट किये जाने को लोगों ने परिवारवाद के
विस्तार के रूप में देखा। शुरू-शुरू में वे भी कुछ खामोश-खामोश से रहे और मां
सोनिया गांधी की छत्रछाया में राजनीति की बारीकियों को परखते-सीखते रहे। उन्होंने
देश के सुदूर क्षेत्रों की यात्रा की, जनता के सुख-दुख का जायजा लिया, उनकी नब्ज
पहचानी। इससे उन्हें भारत को नजदीक से जानने का मौका मिला जिसका उनका तब तक का
ज्ञान सिर्फ कागजी था। धीरे-धीरे उन्होंने राजनीति को गंभीरता से लेना शुरू किया
और युवाओं की एक ब्रिगेड तैयार करने में लग गये। उनकी अपनी धारणा है कि जब तक
राजनीति में युवाओं का वर्चस्व नहीं होता, राजनीति का सुधार नहीं हो सकेगा। वे नये
हैं.युवा हैं, उत्साही हैं और चाहते हैं कि राजनीति आज भ्रष्टाचार के जिस दलदल में
फंसी है उससे उसे मुक्त किया जाये। लेकिन यह आसान काम नहीं। भ्रष्टाचार नौकरशाही
से लेकर सत्ता तक में गहरे जड़ें जमा चुका है और ऐसे में इसे आसानी से खत्म करना
आसान नहीं। इसके लिए नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने
हाल ही दागदार नेताओं की संसद, विधानसभा की सदस्यता छीने जाने और चुनाव लड़ने से
रोकने का जो निर्णय सुनाया, वह इस दिशा में बढ़ा पहला सार्थक कदम है। वैसे
आनन-फानन एक अध्यादेश लाकर इसके कदम रोकने की कोशिश की गयी लेकिन भला हो राहुल
गांधी जी का कि उन्होंने इसे बकवास बता कर इसे वापस करा दिया। इसके वापस होने के
बाद से सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर पालन शुरु हो गया। पहले कांग्रेसी रशीद मसूद का
सांसद पद गया फिर लालू यादव की भी संसद सदस्यता रद्द हो गयी। लालू 11 साल तक चुनाव
भी नहीं लड़ सकेंगे।
इस कदम
का श्रेय राहुल को ही जाता है। वे अध्यादेश वापस न लौटवाते तो फिर सुप्रीम कोर्ट
का निर्णय धरा का धरा रह जाता। मानाकि कांग्रेस ने अभी अपना 2014 का प्रधानमंत्री
उम्मीदवार घोषित नहीं किया लेकिन जहां तक अनुमान की बात है तो राहुल ही
प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस के अघोषित उम्मीदवार हैं। वे अभी जिन जनसभाओं में
भाषण दे रहे हैं, वहां वे चुनावी अंदाज में ही बोल रहे हैं। पहले वे कम बोलते थे
लेकिन एक के बाद एक जनसभाओं में वे धीरे-धीरे खुलते जा रहे हैं। वे मासूम और
अंतर्मुखी न रह कर पूरी तरह खुल गये हैं और कभी-कभी विपक्ष पर आक्रामक रुख अपनाने
में भी हिचकते नहीं। वे कहते हैं विपक्ष यानी भाजपा देश को बांटने का काम कर रही है। उधर भाजपा कह रही है कि राहुल इमोशनल कार्ड खेल रहे हैं। वक्त गवाह है कि कांग्रेस की लाज कटी बार सिम्पैथी वेव ने रखी है। चाहे वह इंदिरा जी की हत्या के बाद हो या राजीव जी की हत्या के बाद । ऐसे में जब कांग्रेस इतने सारे घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कांग्रेस के लिए अगर राहुल का यह नया इमोशनल कार्ड ही रामबाण बन जाये तो क्या हर्ज है। नरेंद्र मोदी जैसे प्रखर (मुखर कहें तो ज्यादा अच्छा होगा) नेता के सामने अपने राजनीतिक कैरियर में लंबे अरसे खामोश रहे राहुल गांधी के लिए यह जरूरी था कि वे भी मुखर हों और विपक्ष का जवाब देना शुरू करें। यों तो दिग्विजय सिंह व कई दूसरे कांग्रेसी प्रवक्ता बयान देते ही रहते हैं लेकिन उनको कोई गंभीरता से नहीं लेता। पर राहुल जी का बोलना जरूरी था वे बोले और अब वे अपने परिवार के बलिदान की कहानी पर उतर आये हैं। उन्होने अपनी जान पर भी खतरे की बात कही है। पता नहीं उन्हें किससे खतरा है।
चुरू (राजस्थान)
की अपनी जनसभा में उन्होंने लोगों के दिल को छूने, अपनी संवेदना को उनसे जोड़ने के
लिए अपनी दादी और पिता की हत्या की कहानी सुनायी। यह सुनाया कि खुद वे कितने हिल
गये थे, विचलित हो गये थे। वे छोटे ही थे और बेहद डर गये थे। उन्हें यह खौफ था कि
उन्हें भी मार डाला जायेगा। यह डर आज भी उनका पीछा कर रहा है लेकिन जो गुस्सा उस
वक्त उन्हें आया था और अरसे तक उन पर सवार रहा, उससे वे मुक्त हो चुके हैं। वैसे
वे मानते हैं कि गांधी परिवार ने जो त्रासदी झेली वह आज तक उनका पीछा कर रही है।
जब-जब उन्होने यह त्रासदी झेली, वे हिल गये।
उन्होंने विपक्ष पर सीधा निशाना
साधा। सीधे भाजपा का नाम लिया और मुजफ्फरनगर के हाल के दंगों के लिए उसे जिम्मेदार
बताया। अब वे एक ओर जहां लोगों की संवेदना को झकझोर रहे हैं वहीं विपक्षियों को जी
भर कर कोस रहे हैं। वे कांग्रेस की खूबियां और विपक्ष की खामियां गिनाना भी नहीं
भूलते। राहुल ने जब अपने साथ हुई त्रासदी का बयान किया विपक्षी भाजपा ने इसे
इमोशनल कार्ड खेलने की संज्ञा दी। जो भी हो राहुल अब यह समझ गये हैं कि आज की
राजनीति में आप अपनी बातों से जनता को जितना प्रभावित कर पायेंगे, उतना ही आप खुद
का और अपनी पार्टी का भला कर सकेंगे। भारत की जनता आज तक नेताओं के दिखाये सब्जबाग
पर ही भरोसा करती आयी है और उसी के आधार पर वोट देती आयी है। यह और बात है कि आज
की युवा पीढ़ी सजग है और उसे सिर्फ और सिर्फ शब्दजाल से नहीं लुभाया जा सकता। वह
जमीनी हकीकत देखती है उसके बाद फैसला करती है।
यह वक्त गवाह है कि चुनावी भीड़ कभी
वोटों में नहीं बदल पाती। अक्सर कुछ लोग लोकप्रिय या बड़े नेता को देखने-सुनने तो जरूर
आते हैं लेकिन वोट वे सोच-समझ कर और अपने इलाके की भलाई के अंदाज से देते हैं। अब राहुल
जी के भाषण कितना असर करते हैं यह तो वक्त बतायेगा लेकिन वे घोटालों और भ्रष्टाचार
से बदनाम अपनी पार्टी को चुनावी विजय दिलाने के लिए जी-जान से जुट गये हैं । वैसे उनका
यह सफर आसान नहीं क्योंकि उनका सामना विपक्ष के तपे-तपाये और भाषण कला व सत्ता पर बैठी
पार्टी कांग्रेस पर आक्रमण करने में माहिर नेताओं से है। देखना यह है कि उनसे लोहा
लेने में कांग्रेस के ये युवराज कहां तक कामयाब हो पाते हैं।
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