Sunday, January 5, 2014

बहुत कठिन है डगर ए के की



जनआकांक्षाओं व अपनी ही बनायी छवि के बोझ तले दबे
राजेश त्रिपाठी
भ्रष्टाचार के विरुद्ध हल्ला बोल कर, जन लोकपाल लाने और पास कराने का वादा कर अरविंद केजरीवाल ने अपार जन समर्थन से चुनाव तो जीत लिया, कांग्रेस की मदद से सत्ता भी पा ली लेकिन उनका आगे का सफर आसान नहीं। परिस्थितियां संकेत कर रही हैं कि-बहुत कठिन है डगर ए के की। आज वे उन जन आकांक्षाओं और अपनी बनायी आम आदमी की छवि से ही घिर गये नजर आते हैं। माना कि वे आंदोलन की सड़क वाली छवि से सदन में मुख्यमंत्री की छवि में आ गये हैं लेकिन उन्हें चाहनेवाली जनता है कि उनमें अभी वही आंदोलन वाले अरविंद को देख रही है या देखना चाहती है। आंदोलन या विरोध करना अलग बात है और दिल्ली जैसे राज्य (जिसे अभी पूर्ण राज्य का दर्जा भी नहीं मिला) की सत्ता चलाना और बात। यह बात देर-सबेर अरविंद केजरीवाल और उन्हें सत्ता के सिंहासन तक लाने वाली जनता को समझ लेना होगा। अरविंद केजरीवाल के पास अपने दल के बल पर बहुमत नहीं है उन्हें सत्ता तक पहुंचने के लिए उसी कांग्रेस का सहारा लेना पड़ा जिसके धुर विरोध पर उनका पूरा आंदोलन और चुनाव आधारित था। कहें तो विचारधारा और नीति की दृष्टि से ये दोनों दल दो विपरीत ध्रुव हैं जिनमें विचारों को सामंजस्य या दिलों का तालमेल होना मुमकिन नहीं। ऐसे में कांग्रेस चाहे पांच साल तक समर्थन देने का बार-बार वादा भले करे उसके इतिहास को देखते हुए उस पर यकीन करने का मन नहीं होता। समय गवाह है कांग्रेस ने कई लोगों को सत्ता का सुख दिलाने में मदद की और भी किसी सतही बहाने से समर्थन वापस लेकर सड़क पर ला दिया। जिस 'आप' ने कांग्रेस से दिल्ली की सत्ता छीनी उसे उसने समर्थन भले ही दे दिया हो पर उसके सीने पर सांप तो लोट ही रहा होगा कि 'आप' के चलते उसे सत्ता छिनने का संताप झेलना पड़ रहा है। यह स्थिति शायद ही कांग्रेस का कोई स्थानीय नेता पचा पा रहा हो। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है अरविंद की पार्टी को समर्थन देने के प्रस्ताव पर खुद कांग्रेस में उभरा प्रचंड विद्रोह जिसके चलते अरविंद केजरीवाल के पुतले तक जलाये गये। यह बातें ही शंका प्रकट करती हैं कि पता नहीं आज भी कांग्रेस में भीतरखाने कुछ पल रहा हो। अरविंद को उनके वादों को पूरा करने के लिए कांग्रेस ने हो सकता है कि वक्त दिया हो और उसे उम्मीद हो कि लोकलुभावन और बड़े-बड़े वायदे यदि वे पूरा नहीं कर पायेंगे तो जनता की नजरों में गिर जायेंगे असफल हो जायेंगे। ऐसा हुआ तो कांग्रेस पर समर्थन वापस लेने का कलंक भी नहीं लगेगा और अरविंद को असफल दिखाने का उसका उद्देश्य भी सफल हो जायेगा।
      उधर भाजपा भी 'आप' और अरविंद पर चिढ़ी बैठी है जिसके जलते दिल्ली की गद्दी हथियाने का उसका मंसूबा चूर-चूर हो गया। यह सच है कि अगर 'आप' चुनाव में नहीं होती तो दिल्ली की सत्ता भाजपा के हाथ होती। ऐसे में वह भी अरविंद केजरीवाल सरकार की छोटी-छोटी गलती, या नाकामी को उजागर करने और उसे परेशान करने से नहीं चूकेगी। वह इसके सरकार के विरोध में खड़ी है यह बात तो भाजपा ने विश्वास मत के समय ही जाहिर कर दिया है जिसमें उसने सरकार के विरोध में मत दिया। भाजपा नेताओं के अरविंद केजरीवाल के खिलाफ बयान और उन पर लांक्षन लगाने के रुख से भी यह साफ है कि वह अरिवंद की राह आसान नहीं होने देंगे। कांग्रेस ने भी समर्थन इस डर से दिया है कि अगर उसने 'आप' की सरकार न बनने दी तो जनरोष का सामना करना पड़ सकता है। वैसे अरविंद की सरकार अगर गिरायी गयी तो यह उनके हित में ही होगा।उन्हें यह कहने का मौका मिल जायेगा कि हम वायदे पूरे करते लेकिन हमें इसका अवसर ही नहीं दिया गया। इसके बाद जब वे चुनाव में जायेंगे तो उनका जनता से यही कहना होगा कि हमें जिताएं तो भरपूर जितायें ताकि सत्ता तक पहुंचने के लिए कोई बैसाखी न थामनी पड़ें।
      अरविंद के लिए सबसे बड़ी मुश्किल उनकी अपनी आम आदमी की छवि ही होने वाली है। वे जन आंदोलन के रथ पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचे हैं इसलिए वे जन के प्रति हर हाल में जवाबदेह हैं । जन आकांक्षाओं को प्राथमिकता देना उनकी मजबूरी और प्रतिबद्धता भी है। लेकिन आंदोलन करना और एक राज्य की सत्ता चलाना दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। आंदोलन में आप स्वतंत्र होते हैं लेकिन जब आप सत्ता में होते हैं तो आपको उसके ऊंच-नीच, सही-गलत का ध्यान भी रखना होता है। सत्ता की अपनी आवश्यकताएं, प्रतिबद्धताएं और कम्पल्शंस होते हैं जो जरूरी नहीं कि जनता की हर आकांक्षा से मेल खायें। वहां कभी-कभी आपको न चाह कर भी ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जो संभव है जनता को पसंद न आयें लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के रूप में आपके लिए आवश्यक ही नहीं बाध्यकारी हों। यह बात आम आदमी की छवि के साथ सत्ता में आये अरविंद को भी समझनी होगी और उनसे बड़ी-बड़ी आशाएं पाले बैठी उस जनता को भी जो उन्हें सत्ता तक लायी है। उन्हें सत्ता तक आपने पहुंचाया है, उन पर भरोसा है तो फिर अब उन्हें काम करने का समय दीजिए, बेवजह उन पर दबाव न बढ़ाइए। अरविंद का इतिहास गवाह है कि वे और कुछ भले ही करें जनता से गद्दारी या बेईमानी तो कभी नहीं करेंगे चाहे उन्हें पद और सत्ता ही क्यों न खोनी पड़े फिर दबाव क्यों, व्यक्ति को अपनी योजनाएं इत्मीनान से लागू करने दीजिए ताकि उनके विरोधियों का मुंह धुआं हो जाये।
      ए के किस तरह दबाव में घिरे हैं इसका पता हाल की घटनाओं से चल गया। उनके लिए दो डुपलेक्स बंगले क्या अलाट हुए कि हड़कंप मच गया कि आम आदमी बंगले में कैसे रह सकता है। वैसे इसके लिए खुद अरविंद ही जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने ही कहा था कि वे आम आदमी की तरह ही रहेंगे और कोई सुख-सुविधा नहीं लेंगे। जन विरोध के कारण अरविंद को बंगले लेने का फैसला बदलना पड़ा। अब वे अपने लिए एक छोटा बंगला मांग रहे हैं। इतना ही नहीं अरविंद ने अपनी खुद की वैगनार कार छोड़ सरकारी इनोवा गाड़ी ली तो उस पर भी सवाल उठने लगे। यह तो हद ही हो गयी। आपका नेता अगर अपने वादों-इरादों में अटल है और जनसेवा के लिए प्रतिबद्ध है तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि वह महल में रहे या बड़ी गाड़ी में चढ़े। अब उसे सत्ता तक पहुंचाया है तो सत्ता से जुड़ी आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को भी समझिए, सहिए। अरविंद को सांस लेने की फुरसत दीजिए। कौशांबी के उनके निवास से लेकर दिल्ली तक अगर हमेशा लोग उन्हें घेरे रहेंगे, दबाव डालते रहेंगे तो वे सोचने-समझने का समय कब पायेंगे। वे बार-बार अगर यह कहते हैं कि वे आज भी आम आदमी हैं तो उन पर बेवजह शक करने के बजाय यकीन करना चाहिए और उन्हें शांति-धैर्य से अपनी योजनाओं को लागू करने का मौका देना चाहिए क्य़ोंकि उनकी राह आसान नहीं है।
      वे सत्ता में आम आदमी के रूप में आये हैं और उसके वीआईपी कल्चर को बदलना चाहते हैं लेकिन यह रातोंरात होने वाला नहीं। संतरी से लेकर अधिकारी तक इस कल्चर के रंग में रंगे हैं यह रंग उतरने मे देर लगेगी और इसके लिए काफी मेहनत भी करनी होंगी। केजरीवल जितने दृढ़ प्रतिज्ञ हैं, अपनी जिद पूरी करने के लिए किसी भी हद तक जाने को प्रतिबद्ध हैं उससे उनकी चाल या चरित्र पर शक करना कतई वाकिफ नहीं। सत्ता संभालते ही उन्होंने अपने कुछ वादे पूरे कर दिये जो पिछली सरकार वर्षों तक नहीं कर पायी यह बात उनके प्रति विश्वास तो जगाती है कि उन्होंने जो कहा है वह कर दिखायेंगे। लेकिन यहां भी एक लेकिन बहुत बड़े सवाल के रूप में आ खड़ा होता है। सवाल यह कि लोकलुभावन घोषणाएं कर लोगों को रिझाना तो आसान है लेकिन सत्ता में आकर उन सारी घोषणाओं को पूरा करना टेढ़ी खीर है। कारण योजनाएं तो हवा से पूुरी होती नहीं उनके लिए आर्थिक आधार चाहिए और किसी भी घोषणा से पहले यह जांच लेना जरूरी होगा कि उसे पूरा करने के संसाधन या आर्थिक आधार सरकार के पास हैं या नहीं। जो दो वादे 'आप' सरकार ने पूरे किये हैं उनके बारे में भी लोगों का कहना है कि इससे दिल्ली सरकार पर बहुत बड़ा आर्थिक बोझ पड़ेगा। ऐसे कुछ और वायदे पूरे करने में अगर दिल्ली का अर्थतंत्र गड़बड़ा गया तब तो भारी मुश्किल होगी।  ऐसे ही कुछ लोग शराब माफिया के हमले में मारे गये सिपाही के परिजनों को एक करोड़ का मुआवजा दिये जाने पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं जो शायद अब तक का सबसे बड़ा मुआवजा और 'आप' सरकार का साहसिक और प्रशंसनीय कदम है। आदमी के प्राणों या बलिदान की कीमत नहीं आंकी जा सकती लेकिन जब व्यावहारिक धरातल पर आते हैं तो इसके अलावा और भी कई सच्चाइयों का सामना करना पड़ता है। लोगों का कहना है कि जो भी किया जाये सोच समझ कर किया जाये जिससे वादे भी पूरे हों और सरकार पर किसी तरह का आर्थिक संकट न आये।
      'आप' की सरकार ने कई रैन बसेरे और हजारों स्कूल बनाने के अलावा और भी वादे किये हैं। ये सभी वादे सही और जन अपेक्षाओं के अनुकूल हैं लेकिन इन्हें आनन-फानन में पूरा नहीं किया जा सकता और इसके लिए भारी धनराशि चाहिए होगी। अरविंद केजरीवाल और उनकी 'आप' सरकार से उम्मीदें लगाये बैठी जनता को इस हकीकत को भी ध्यान में रखना होगा। अरविंद केजरीवाल एक अच्छे रणनीतिकार हैं और उन्हें योगेंद्र यादव जैसे सुलझे और निपुण साथियों का सहयोग भी प्राप्त है इसलिए वह जो भी करेंगे एक सोची-समझी और चतुर रणनीति के अनुसार ही करेंगे जिससे वेवजह की किसी भी परेशानी से बच सकें। लेकिन उन्हें अपने साथियों को वाणी में नियंत्रण रखने और बड़बोलापन या अनाप-शनाप बयानबाजी से बचने की ताकीद करनी चाहिए। अगर 'आप' भी बाकी दलों की तरह अशालीन बयानबाजी में उतर आयी तो फिर वह उस कीचड़ को कैसे साफ कर पायेगी जिसका संकल्प लेकर वह आयी है। 'आप' और उसके विधायकों, समर्थकों का आचरण ऐसा हो जो एक मिसाल हो और दूसरों को भी शुचिता की राह पर ले चले यही तो सबका काम्य है।
      'आप' से आज देश को बड़ी आशाएं हैं और इसे उत्तर, दक्षिण, पूर्व , पश्चिम सभी ओर से अपार जन समर्थन मिल रहा है। देश के कोने-कोने में लोगों में 'आप' का सदस्य बनने की होड़ से ही इसका पता चल जाता है। इस पार्टी से अपने-अपने क्षेत्र के नामी-गिरामी व्यक्ति भी जुड़ गये हैं। आज नहीं तो कल दूसरी पार्टियों के ईमानदार व्यक्ति भी, जो अपनी पार्टी में घुटन महसूस कर रहे हैं 'आप' की बांह थाम सकते हैं। अगर 'आप' के सूत्रों की मानें तो उसके पास लोकसभा के टिकट मांगने के लिए अब तक 73 हजार आवेदन आ चुके हैं। 'आप' ने भी अब दिल्ली के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर छाने का मन बना लिया है और आगामी लोकसभा की अनेक सीटों पर लड़ने की घोषणा कर दी है। अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की है कि वे लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे और पार्टी के प्रचार और उसे मजबूत बनाने में ध्यान केंद्रित करेंगे। यह अच्छी बात है क्योंकि पार्टी को उनकी जरूरत है, दिल्ली को उनकी जरूरत है और देश को भी।
      'आप' ने देश को एक नयी दिशा दी है। भ्रष्टाचार के घटाटोप, घोटालों के दलदल से मु्क्ति का एक आश्वासन दिया है जो एक उम्मीद की किरण है। लोगों को इससे एक राजनीतिक विकल्प भी मिला है। अगर 'आप' योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ता है तो आज नहीं तो कल वह देश की सत्ता भी पा सकता है और अपने अनुरूप देश का चेहरा भी बदल सकता है। 'आप' के पास खोने को कुछ नहीं है। उसने शून्य से शुरुआत की है उसके बाद जो भी आता है वह लाभ ही होगा। 'आप' से लोगों की आकांक्षाएं असीम हैं लेकिन अरविंद केजरीवाल के पास संसाधन और सामर्थ्य सीमित हैं लोगों को इस बात का भी ध्यान रखना होगा। अपने नेता से आवश्यकता से अधिक आशा लगा बैठना उचित नहीं होगा क्योंकि आशाएं टूटती हैं तो बहुत दुख देती हैं। 'आप' और उनके नेताओं को भी लोकलुभावन घोषणाओं के बजाय ऐसी ही घोषणाएं करनी चाहिए जो व्यावहारिक हों और जिन्हें पूरा किया जा सके। 'आप' की सरकार का पग-पग एक अग्निपरीक्षा का दौर है और उसे फूंक-फूंक कर कदम रखना है ताकि वह अपने विरोध करनेवालों को लोकहित की राजनीति का पाठ पढ़ा सके। 'आप' ने राजनीति का जो नया दौर शुरू किया है विरोधी उसे जमने नहीं देना चाहेंगे क्योंकि अगर ऐसी राजनीति चल पड़ी, जम गयी  तो फिर उनकी राजनीचति का क्या होगा। दिल्ली के बाद अब पूरा देश अरविंद की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है और उन्हें अब देश की कसौटी पर खरा उतरने की कवायद शुरू कर देनी चाहिए। यह जरूर है कि स्वार्थ, लोलुपता और लंपटता की सडांध में डूबी राजनीति के बीच 'आप' और अरविंद का उत्थान एक ताजा हवा के झोंके मानिंद है। इसका स्वागत होना चाहिए और इसे यथासंभव जनसमर्थन मिलना चाहिए।

No comments:

Post a Comment