Wednesday, February 26, 2014

जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा

चुनाव आयोग ने चेताया, वादे करो तो निभाओ भी
राजेश त्रिपाठी
     
      यह हमारा सौभाग्य है कि हम एक ऐसे गणतंत्र के वासी हैं जहां जनता के लिए, जनता के द्वारा जनता की सरकार चुनने का हक अब तक नागरिकों के पास है। और यह बहुत बड़ी बात है कि सत्ता में न सिर्फ जनता की हिस्सेदारी हो अपितु उसे चुनने में उसकी सक्रिय भूमिका भी हो। एक और बड़ी बात है कि हमारे देश का चुनाव आयोग भी स्वतंत्र और स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव कराने में सक्षम है। उसने राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने की बात और कोशिश भी की है लेकिन क्या राजनीतिक दल भी इस बात को लेकर उतने ही ईमानदार और प्रयत्नशील हैं। यह प्रश्न तमाम तरह के किंतु-परंतु से घिरा है। हर दल यह डींग हांकता नजर आता है कि वह आपराधिक छिव वालों को टिकट नहीं देगा लेकिन हर बार यह सिर्फ जुबानी जमाखर्च बन कर रह जाता है। हर दल में आपराधिक छविवाले कुछ न कुछ लोग चुन कर आ जाते हैं और चुनाव आयोग का राजनीति को अपराधमुक्त करने का संकल्प धरा का धरा रह जाता है।      चुनाव के समय हर दल अपने चुनाव घोषणापत्र में बढ-चढ़ कर घोषणाएं करता है लेकिन चुनाव जीत कर सत्ता में आने के बाद शायद ही कोई दल इसके प्रति गंभीर होता है और इसे लागू करने की कोशिश करता है। चुनाव आते ही हर दल डफोरशंखी घोषणाएं, लोकलुभावन वादे करते हैं लेकिन सत्ता में आते ही सब भूल जाते हैं। अब चुनाव आयोग ने सतर्क किया है कि चुनाव घोषणापत्र या चुनावी भाषणों में किये गये वादे पूरे करने होंगे। यानी जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा। चुनाव आयोग ने घोषणा तो की है लेकिन वह इन घोषणाओं को न तो लागू करा सकता है और न ही इन्हें पूरा न करनेवालों पर कोई कार्रवाई ही कर सकता है। होना तो यह चाहिए कि जो राजनीतिक दल घोषणाएं कर के पूरा न करे उसे पहले सतर्क किया जाये और अगर वह बराबर ऐसा करता रहे तो उसकी मान्यता ही खत्म कर दी जाये। ऐसे डपोरशंखों का क्या काम जो देश की भोली-भाली जनता झूठे सब्जबाग दिखा कर वोट लूटते हैं और फिर कुर्सी पर विराजते ही सब कुछ भूल जाते हैं। भारत की गरीब और नासमझ जनता वर्षों से इन लोगों द्वारा ऐसे ही ठगी जाती रही है। जनता के पास कोई चारा नहीं वह सोचती है कि इस बार नागनाथ को नहीं लायेंगे उसने कोई काम नहीं किया पर वह करे तो क्या करे उसे सांपनाथ को चुनना पड़ता है जो खुद भी डफोरशंखी घोषणाओं वाला निकलता है।
      आप देखिएगा, चुनाव अब दो माह बाद आने ही वाले हैं, ये नेता आयेंगे और आपको नये वादों से लुभायेंगे जो सिर्फ वादे होंगे। देश की जनता में इतनी जागरूकता या हौसला ही नहीं कि वह पूछे कि पिछली बार जो वादे किये थे वे तो अभी तक अधूरे हैं। उन्हें पूरे किये बगैर नये  वादों की लिस्ट ले आये, ये कैसे पूरे होंगे जब पांच साल में वे पूरे नहीं हुए। दरअसल अब वक्त आ गया है कि देश की जनता को जागना होगा। जो नेता आपके पास आये हैं यह मान लीजिए कि उनमें शायद ही कुछ हों जो आपकी सच्ची सेवा की भावना लेकर आये हों। इनमें ज्यादातर ऐसे हैं जिन्हें आपकी दहलीज पर इसलिए आना पड़ा है कि आपका वोट ही उन्हें सत्ता-सुख दिला सकेगा। जब तक उनकी देह कुर्सी में नहीं टिक जाती, तब तक आप उनके लिए भगवान हैं। वे सत्ता में जम गये तो फिर जनता जाये भाड़-चूल्हे में। पांच साल तक तो उनका कुछ नहीं बिगड़ना। पहले जयप्रकाश नारायण और अब अण्णा हजारे की ओर से जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के राइट टू रिकाल की मांग अगर लागू हो जाये तो शायद कुछ स्थिति बदले। तब काम न करनेवालों को खौफ होगा कि उनकी कुर्सी छिन सकती है, राइट टू रिकाल ब्रह्ममास्त्र चला तो उन्हें जाना पड़ेगा लेकिन लगता नहीं कि राजनेता इसे लागू होने देंगे क्योंकि कौन अपने ऊपर मुसीबत आने देना चाहेगा।
      जिस कदर भ्रष्टाचार और अनीति हमारी राजनीति में घुल गयी है वह किसी से छिपी नहीं। जेल काट कर आये नेता तक शान से छाती ठोंक कर लंबी-लंबी बातें करते हैं और वे यह भी नहीं सोचते कि वे सजा काट कर आये हैं। ऐसा हमारे महान देश भारत में ही संभव है बाहर के देशों मे आपराधिक चरित्र के नेताओं को शायद ही जनता बख्शती हो या उन्हें जिताती हो। अपने यहां तो जेल से चुनाव लड़े और जीते जाते हैं। हमारा कहना यह है कि क्या हमारे यहां अच्छे लोगों की इतनी कमी हो गयी है कि जेल में बंद लोगों को ही चुनाव लड़ाया और जिताया जाये। कभी क्रांतिकारी भारत मां को विदेशी गुलामी से मुक्त कराने के लिए जेल में यातनाएं सहते थे, उनका वह प्रयास प्रणम्य और स्तुत्य है क्योंकि उसका उद्देश्य महान था। आज जो अपराध कर जेल जाते हैं उन्हें क्यों जिताया जाये, वे देश का क्या भला करेंगे। क्यों न पढ़े़ लिखे और सही व सक्षम दृष्टिकोण वाले लोगों को लाया जाये ताकि देश की शोचनीय दशा-दिशा बदल और सुधर सके।
      हमने महान और सशक्त भारत, समर्थ्य भारत, सुसंस्कृत भारत, सुशासित भारत का सपना देखा था। क्या वह सपना सपना ही रह जायेगा क्योंकि अब तक तो ऐसा नहीं दिखा कि कोई भी दल इसके लिए गंभीर या प्रयत्शील हो। सारे दल किसी न किसी तरह से अपनी हैसियत और सत्ता बचाने में लगे हैं। इस बार के चुनाव बड़े ही जटिल और कठिन होने वाले हैं क्योंकि दलों और फ्रंटों की भीड़ में कौन बाजी मार ले जायेगा कोई नहीं कह सकता। इन दिनों नेताओं की खीझ और गाली-गलौज की भाषा यह साबित कर रही है कि सभी इस वक्त बुरी तरह से घबराये हुए हैं। कोई भी अपनी जीत के लिए आश्वस्त नहीं है। ऐसे में फिर वे बढ़-चढ़ कर वादे कर रहे हैं और भारत की तकदीर-तसवीर बदलने का दावा कर रहे हैं। चुनाव आयोग ने कह तो दिया है कि जो वादे किये जायें उन्हें निभाया जाये लेकिन अगर वे न निभाये गये तो आयोग किसी का क्या कर लेगा। कायदे से लोकपाल या लोकायुक्त की तरह कोई ऐसी भी शक्ति होनी चाहिए जो इस पर भी नजर रखे कि जो शासक देश की जनता को बेवकूफ बनाते हैं, बड़ी-बड़ी घोषणाएं कर भूल जाते हैं उन पर  भी कार्रवाई हो सके। ऐसा जब तक नहीं होगा जनता डफोरशंखी वादों से ठगी जाती रहेगी और उसकी जिंदगी का अंधेरा और भी घना होता जायेगा। जिन्हें भारत की फिक्र है वह सचेत हों, ऐसा दबाव बनायें कि राजनेता जनता के प्रति जवाबदेह होना सीखें और उनकी प्राथमिकता पहले जनता और देश हो कुर्सी या सत्ता की रक्षा नहीं।

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