चुनाव-समर में सब आजमाने लगे दम-खम
राजेश त्रिपाठी
भारत के लिए
कभी चुनाव गणतंत्र के पावन पर्व की तरह हुआ करते थे। इन्हें लेकर बच्चों से लेकर
बड़ों तक में बड़ी उत्सुकता रहती थी।
बच्चे पार्टी के चुनाव चिह्न वाले प्लास्टिक के बिल्ले शान से लगाये उन पार्टियों
के चलते-फिरते इश्तहार बने रहते थे। जिस दिन चुनाव होता तो अगर पास-पड़ोस के गांव
में बूथ हुआ तो माता-पिता व परिवार के साथ बच्चे भी बैलगाड़ियों में वहां जाते थे।
तब न बमबाजी या गोलीबारी का खौफ होता था न बूथ दखल का। सब कुछ शांति से होता था और
किसी के जीतने-हारने पर भी हंगामा नहीं होता था। लेकिन अब न उस वक्त जैसी
स्वार्थहीन, सार्थक राजनीति रही न वैसे स्वच्छ और जनहित के लिए समर्पित नेता।
नेताओं का आचरण बदला तो राजनीति में भी बदलाव आया। यह बदलाव अच्छे के लिए होता तो
सुखद था लेकिन यह तो राजनीति का वह कृ्ष्णपक्ष लेकर आया जिसमें नीति तो खो गयी बस
रह गया तो राज। इसके बाद शुरू हुआ येन-केन प्रकारेण सत्ता को हड़पने या चुनाव
जीतने के लिए हर तरह के छल-छंद और चालें चलने का सिलसिला। इसके साथ ही चुनाव चुनाव
न रह कर एक समर, एक युद्ध हो गये जिसमें महारथी वाकयुद्ध से लेकर हर हथियार अपने
विरोधी पर चलाने लगे। लोग बेलगाम हो गये। आरोप-प्रत्यारोप लगाने में शालीनता की
सारी सीमाएं लांघ गये।
अब जब
चुनावों की प्रक्रिया शुरू हो गयी है तो गहमागहमी और बढ़ गयी है। यों तो महीनों
पहले से माहौल गरमा चुका था लेकिन अब इसकी तपिश और बढ़ गयी है। नेताओं की वाणी और
तीक्ष्ण और धारदार हो गयी है। अपने प्रतिद्वंद्वी को श्रीहीन करने के लिए विरोधी
पक्ष वाले नेता गड़े मुर्दे उखाड़ने लगे हैं। उसे नाकारा, अवारा, चरित्रहीन,
हत्यारा और न जाने क्या-क्या बताने में भी नहीं चूकिए। यह मत पूछिए कि क्या वे
इसके बारे में कुछ सबूत भी पेश करते हैं। मकसद सच का साथ देने का नहीं बल्कि अपने विरोधी
के चरित्र हनन और उसे नीचा दिखाने का होता है। यह बात किसी एक दल के लिए नहीं
आज की राजनीति में हर दल इस दलदल में डूबा
है।
एक वक्त
था जब हमारे यहां सच्चा लोकतंत्र था लेकिन अब लोक गौण है और तंत्र उस पर मनमाने
ढंग से शासन कर रहा है। इससे लोक तमाम तरह की समस्याओं से घिरता जा रहा है। इन
समस्याओं को मिटाने में किसी की दिलचस्पी नहीं क्योंकि अगर समस्याएं नहीं रहेंगी
तो फिर लोगों को किस लोकलुभावन नारों से लुभाया जायेगा। कैसे वोट के लिए उन्हें
तरह-तरह के लॉलीपॉप दिखायें जायेंगे। जनता भी लाचार है वह नागनाथ को नहीं तो
सांपनाथ को चुनने को मजबूर है। राजनीति में हुए कई ऐसे प्रयोग नाकाम हो चुके हैं
जिन्हें भ्रष्टाचार और अनाचार के घटाटोप में आशा की किरण माना गया था। ऐसे में
मतादाता बेचारा क्या करे, उसे वोट तो देना ही है चाहे वह भ्रष्टाचार शिऱोमणि को
चुने या उससे कम भ्रष्टाचारी को चुनने को मजबूर होता है। वैसे इस बार चुनाव आयोग
ने उनकी सुविधा के लिए एक NOTA बटन
मुहैया कराया है। जिस मतदाता को अपने चुनाव क्षेत्र का कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं
वह इस बटन को दबा कर यह संतोष तो कर सकता है कि उसे इनमें से किसी को अपना
बहुमूल्य वोट नहीं देना। अब शहरी क्षेत्र के पढ़े-लिखे मतदाता भले ही NOTA बटन का इस्तेमाल करना जान लें
लेकिन ग्रामीण क्षेत्र के मतदाता इसे समझ भी पायेंगे या नहीं कहा नहीं जा सकता।
इस बार के चुनाव इसलिए चुनौतीपूर्ण हैं कि केंद्र में शासक दल से
लेकर खुद को सत्ता के प्रबल दावेदार मान रहे दलों या नेताओं तक को यह पता नहीं कि
अंततः जनता किसके पक्ष में खड़ी होगी। सच यह है कि 'ये पब्लिक है सब जानती है'
जनता से कुछ छिपा नहीं है वह पहले से ज्यादा जागरूक हो चुकी है और बटन दबाते वक्त
आखिरी क्षण में भी उसका मानस बदल सकता है। नेता चाहे जितने बढ़-चढ़ कर दावे करें,
टीवी चैनलों के ओपीनियन पोल चाहे जिसे
राजगद्दी सौंप रहे हों लेकिन चुनाव के वक्त तो राजा मतदाता है जो किसी का भी भाग्य
संवार या बिगाड़ सकता है।
चुनाव आये तो छोटे से लेकर बड़े दलों में भगदड़ मच गयी। छुटभैयों
की कौन कहे किसी-किसी दल के तो बड़े धाकड़ नेता तक अपना दल छोड़ उस दल से जा जुड़े
जिसके प्रति उनको उम्मीद है कि जीत उसकी होगी। कहीं-कहीं तो किसी दल की पूरी यूनिट
ही इस दल में जा समायी। किसी-किसी दल ने या तो इससे गठबंधन कर लिया या इसमें विलय
कर अपने राजनीतिक परिदृश्य को एक व्यापक फलक देने की कोशिश की। वर्तमान में देश का
जो राजनीतिक परिदृश्य है उसमें जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, कुशासन, घूस, महंगाई और न
जाने कितनी मुश्किलों से पिस रही है। वह परिवर्तन के लिए बेताब है। जाहिर है
परिवर्तन होगा लेकिन क्या यह परिवर्तन सिर्फ चेहरे बदलने तक सीमित होगा या कि इससे
राजनीति और प्रशासन का चरित्र जभी बदलेगा। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है केंद्र में
ऐसे व्यक्ति के हाथों में सत्ता को होना जो दृढ़प्रतिज्ञ हो, जिसे देश के गौरव,
देश की सुरक्षा, जन-जन के हित की चिंता हो। जो आये तो भारत को आंखें दिखाते और उस
पर गुर्राते पड़ोसिय़ों का हौसला भी पस्त हो और वे भारत से बदसलूकी करने से पहले सौ
बार सोचें। यह कोई भी हो सकता है लेकिन ऐसा जो भी होगा शायद भारत के पक्ष में वहीं
सही साबित होगा।
आज जो माहौल है उसमें राजनीति आक्रामक से आक्रामक होती जा रही है।
बडे-बड़े जमे-जमाये दलों के नेता तक अपने विरोधी दल के नेता को कोसने, उसका
चरित्रहनन करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे। ऐसे प्रसंगो को भी खींच कर लाया जा
रहा है जो शायद ही किसी तरह से उनके राजनीतिक कैरियर से ताल्लुक रखते हों। फिर
इसके जवाब में दूसरा पक्ष भी बीस ही साबित होना चाहता है। इससे दलों के समर्थकों
और कार्यकर्ताओं में भी रोष का संचार होता है जो चुनावों को हिंसक बनाने का कारण
बनता है। हमें याद है हमने भी बचपन में चुनाव देखें हैं वहां दो-चार पुलिसवाले ही
मतदान के दौरान प्रबंध के लिए काफी होते थे अब तो ज्यादा से ज्यादा अर्धसैनिक बल
तक राज्यों में चुनावों के दौरान झोंक दिये जाते हैं। यहां तक कि दूसरे राज्यों तक
से इन बलों को उधार लेना पड़ता है। आखिर यह स्थिति क्यों आयी। क्या पहले की तरह
चुनाव का प्रबंध स्थानीय पुलिस प्रशासन नहीं कर सकता। चुनाव आयोग का कहना है कि यह
चुनावों को सुचारु रूप से चलाने के लिए किया जा रहा है। जाहिर है इस तरह की स्थिति
राजनीतिक दलों और उसके समर्थकों में घटती सहिष्णुता और बढञती हिसक प्रकृति से आयी
है। चुनावों में धनबल और बाहुबल की भूमिका जब से प्रबल हुई है तब से चुनाव चुनाव
कम एक युद्ध बन गये हैं ।
हमारे देश में ज्यादातर लोग ऐसे हैं जो चाहते हैं कि हर पांच साल
में राज्यों और केंद्र की सत्ता बदले। ऐसा होने पर किसी भी दल में शासन को अपनी
जमींदारी समझने की भूल नहीं होगी। परिवर्तन होता रहेगा तो संभव है शासन में
भ्र।्टार की सडांध कम हो। समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने भी शायद वर्षों पूर्व
यह भांप लिया था कि एक दल की सत्ता अगर स्थायी हुई तो उसके भ्रष्ट होने का अंदेशा
है। इसीलिए उन्होंने कहा था कि 'जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं।' यानी
सत्ता हर पांच साल में बदली जानी चाहिए।
इस बार सभी दलों के अपने दावे हैं, उन्होंने अपने घोषणापत्रों में
लोगों को नये-नये सुहाने सपने दिखाये हैं। वे लोकलुभावन नारे लगा रहे हैं लेकिन
इनके प्रति वे कितने ईमानदार हैं और कितने दावे थोथे हैं यह जनता को तय करना है।
वे नेता जो अपने संसदीय क्षेत्र से ही चुनाव लड़ रहे हैं उनके बारे में तो जनता
जानती है कि वे उनका कितना भला कर चुके हैं, संसद में उनकी कितनी समस्याएं उठा सके
हैं और वे उन्हें उसी कसौटी पर परखेंगे।
बाकी नये लोगों को वे उनके व्यवहार और उनके अब तक के कार्यकलाप से जांचेंगे।
हर बार अपराधियों को टिकट नहीं देने के लिए चुनाव आयोग भी ताकीद
करता है और राजनीतिक दल भी इस पर हामी भरते हैं लेकिन फिर भी अपराधी टिकट पा जाते
हैं। इस बार भी राजनीतिक दलों की सूची में दागदार नेता आपको मिल ही जायेंगे। शायद
सभी को भ्रम है कि आज बाहुबल के बगैर चुनाव जीते ही नहीं जा सकते। अपराधियों को
संसद तक भेजने से कोई रोक सकता है तो केवल मतदाता ही। अगर मतदाता तय कर ले ंकि वे
किसी भी तरह से अपराधी तत्वो को वोट नहीं देंगे तो इनका जाना रुक जायेगा। पर जनता
भी क्या करे वह तो इनके गुर्गों और खुद इनके रौब-दाब से त्रस्त हैं। ऐसे में यह
सोचना बेमानी है कि हम कभी भारत में अपराधमुक्त राजनीति देख पायेंगे। यह जनता पर
है कि वह इसे हर हाल में रोके क्योंकि अगर ऐसी प्रवृत्ति वाले लोग संसद में जाते
रहे तो फिर हो चुका राजनीति का शुद्धीकरण।
भारत की आज की जरूरत है व्यक्तिपरक, राष्ट्रहित की राजनीति न कि
स्वार्थपरक, स्वजन हित-पोषण की राजनीति। क्या हम उम्मीद करें कि हमारा भारत जल्द
ही राजनीति के इस कृष्ण पक्ष से मुक्त हो स्वस्थ और स्वच्छ राजनीति के दौर में कदम
रखेगा। आमीन।
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