आत्मकथा-74
श्रीश जी से नमस्ते आदि की औपचारिकताएं पूरी हुईं उसके बाद वे बोले कि उनको भी अपना कार्ड बनवाना है ताकि वे दिल्ली संस्करण के लिए समारोह का कवरेज कर सकें। हम लोग फिल्म समारोह निदेशालय के कलकत्ता स्थित अस्थायी कार्यालय गये और सारी बात बतायी तो वहां अधिकारियों ने कहा-‘आपके अखबार के लिए कलकत्ता के लिए एक कार्ड बना दिया गया है और कार्ड नहीं बन सकता।‘
श्रीश जी बोले-‘ मैं कलकत्ता नहीं दिल्ली संस्करण के लिए कार्ड मांग रहा हूं वहां हमारा मुख्य संस्करण है। हम वहां के लिए उद्घाटन समारोह व अन्य कार्यक्रमों का कवरेज कैसे करेंगे।‘
उस अधिकारी ने तपाक से कहा- ‘टीवी देख कर कवरेज कीजिए।‘
इसके बाद श्रीश जी अधिकारी से तो कुछ नहीं बोले पर मुझे ताकीद कर दी कि समारोह के आयोजन में जहां भी जो भी अव्यवस्था दिखे उसे जोरदार ढंग से उजागर कीजिएगा। उनके कहने पर ही मैंने उनको कार्ड ना मिलने की खबर को शीर्षक दिया-‘ पत्रकार को कहा गया कार्ड नहीं टीवी देख कर खबर बनाइए।’
उसके बाद से लगातार उनके साथ मैं फिल्म समारोह का कवरेज करता रहा। वे मेरा हौसला बढ़ाते रहे और मैं उनके निर्देश पर जैसी रिपोर्ट करता रहा शायद ही कोई वैसा कर पाया हो। इसे आत्मश्लाघा ना माने मुझे मेरे सीनियर (श्रीश जी) से फ्रीहैंड मिल गया था और मैंने उसका अक्षरश: पालन किया। हमारे शीर्षक होते थे-‘पत्रकार कार्ड के लिए टापते रहे अधिकारियों के रिश्तेदार हाल में धंस गये।‘ अब तो शीर्षक याद नहीं आ रहे लेकिन हमारी नजर हर उस अव्यस्था पर रही जो फिल्म समारोह निदेशालय की ओर से हुई।
श्रीश जी के ही कहने पर मैंने फिल्म समारोह निदेशालय की तत्कालीन डायरेक्टर से फोन पर समय लिया ताकि उऩका ध्यान इन अव्यस्थाओं की ओर दिला सकूं। उनसे समय मिल गया लेकिन जब मैं वहां गया तो उनके सहायक ने मुझे उनसे नहीं मिलने दिया। मैंने देखा कि दूसरे पत्रकार निदेशक से मिल-मिल कर जा रहे हैं। इस पर मैने उस सहायक से पूछा-‘ मैने समय ले रखा है मुझे जाने नहीं देते और ये कैसे जा रहे हैं।‘
उसका उत्तर था कि –‘नहीं आपको नहीं मिलने दिया जायेगा।‘ मुझे इस बात का एहसास हो गया कि जनसत्ता की रिपोर्टिंग के चलते शायद ये चिढे हैं जो इनकी अव्यवस्था की बखिया उधेड़ रही है। मैंने जब बार-बार जिद की तो वह सहायक बोला-‘आपको सारी प्रचार सामग्री दे गयी और क्या चाहिए।‘
मुझे बड़ा गुस्सा आया मैने कहा-‘अगर प्रचार सामग्री से ही काम चला लेना था तो आप लोग इतनी बड़ी टीम लेकर क्यों आये। यह तो मैं पीआईबी में कार्यरत अपने मित्र अधिकारी से भी ले लेता। समारोह के नाम पर क्या असुविधा हो रही है उसकी खबर आपको देना और उसकी ओर आप लोगों का ध्यान आकर्षित करना है।‘
शोर-शराबा सुन कर कलकत्ता पीआईबी कार्यालय के मेरे परिचित मित्र उठ कर मेरे पास आये और बोले –‘क्या बात है भाई साहब क्या परेशानी है।‘ मैंने अपने उस साथी से बताया कि यह हमारा स्थानीय मामला नहीं है मुझे दिल्ली वालों से जवाब चाहिए।
फिल्म निदेशालय के निदेशक से पत्रकार को नहीं मिलने दिया गया यह खबर भी हमने प्रमुखता से छापी। श्रीश जी ने मुझसे कह रखा था कि-‘आप जो कर रहे हैं बेहतर कर रहे हैं यह जारी रहना चाहिए। अगर कोई फिल्म अच्छी होगी तो मैं आपको देखने को कहूंगा।‘
अब श्रीश जी का वरदहस्त मुझ पर था तो मैं भी अपनी तरफ से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा था। उस दौरान दिल्ली से आये एक बुजुर्ग पत्रकार अक्सर मुझसे खबर ले लेते थे। मैं उनसे परिचित नहीं था। एक दिन श्रीश जी ने मुझे उनके पास बैठे देखा तो मुझे आगाह किया-‘राजेश जी इन सज्जन को कोई खबर मत बताइएगा यह हमारे प्रतिद्वंदी एक हिंदी अखबार के लिए समारोह की रिपोर्टिंग कर रहे हैं।‘ मैंने उनसे कहा-‘भाई साहब मैं तो समझ रहा था कि ये दिल्ली के किसी अखबार के लिए काम कर रहे हैं, अच्छा हुआ आपने सजग कर दिया।‘उसके बाद वे सज्जन रोज की तरह मुझसे पूछते कि कोई खबर है क्या मैं मना कर देता
लेकिन दूसरे दिन जनसत्ता में जोरदार खबर पाकर वे कहते –‘अरे आप तो कह रहे थे कोई खबर नहीं इतनी जोरदार खबर छापी आपने।‘ मैं कुछ कह कर टाल देता था।
एक दिन उन साहब ने मुझे चौंका दिया। मुझे बुलाया और मेरे कान में बोले-‘कल संभल कर रहिएगा, कल नंदन में आतंकी हमला होने वाला है।‘ मैंने यह बात श्रीश जी से बतायी तो वे हंसने लगे और कहा-‘सुरक्षा के इतने कड़े प्रबंध हैं राजेश लगता है उस आदमी ने मजाक किया है या तुम्हें भ्रम में डाल कर यह गलत अखबार जनसत्ता में छपवाना चाहता है ताकि अखबार बदनाम हो जाये। वैसे एहतियात के तौर पर आप अपने रिपोर्टर प्रभात रंजन दीन से यह बात बता कर उनसे कहिएगा कि वे कोलकाता पुलिस मुख्यालय से फोन कर इस बारे में जानकारी ले लें।‘
मैंने कार्यालय आकर प्रभात रंजन दीन से पूरी बात बतायी और कहा कि श्रीश जी ने कहा है कि आप कोलकाता पुलिस मुख्यालय से पता कर लें। उन्होने पुलिस मुख्यालय में फोन किया तो वहां का अधिकारी हंसने लगे और बोले ‘हमें पता नहीं और किस पत्रकार को पता चल गया कि आतंकी आ रहे हैं।‘
हम निश्चिंत हो गये और श्रीश जी को भी धन्यवाद दिया कि किसी पत्रकार की गलत खबर जनसत्ता में प्लांट कराने के गुनाह से उन्होंने बचा लिया। उन दिनों मैं अपनी रिपोर्टिंग में नाम नहीं देता था। मेरी वह रिपोर्ट तब जनसत्ता के सभी संस्करणों में जाती थी। एक दिन नंदन परिसर [कोलकाता का वह परिसर जहां फिल्म समारोह आयोजित किये जाते हैं] में ही श्रीश जी बोले-‘राजेश जी आप अपनी रिपोर्ट्स में नाम क्यों नहीं देते।‘
मैंने कहा-‘छोड़िए ना भाई साहब काम करना है, नाम का क्या।‘
मैं उन्हें रोकूं इससे पहले वे हमारे स्थानीय संपादक को फोन पर कह चुके थे-‘राजेश जी ना भी कहें तो भी फिल्म समारोह की उनकी रिपोर्ट में उनका नाम अवश्य दें।‘
मैंने कहा-‘भाई साहब इसकी क्या जरूरत थी।‘
वे बोले-‘जरूरत थी राजेश जी।‘हम लोगों ने समारोह में होनेवाली अव्यवस्था की जम कर धज्जी उड़ायी थी। उसकी आंच फिल्म निदेशालय के अधिकारियों तक पहुंची थी यह पता मुझे तब चला जब इंडियन एक्सप्रेस की ओर से फिल्म समारोह निदेशालय के अधिकारियों और डायरेक्टर के सम्मान में भोज दिया गया। उस वक्त हमारे स्थानीय संपादक रहे श्यामसुंदर आचर्य ने डायरेक्टर से मेरा परिचय कराते हुए कहा-‘ये राजेश त्रिपाठी हैं इन्होंने हमारे लिए समारोह का कवरेज किया है।‘ इस पर डाइरेक्टर ने भौंहे तरेरते हुए कहा-‘ओह सो यू आर मिस्टर राजेश त्रिपाठी।‘ मेरे मुंह से भी तपाक से निकल गया-‘एस आई ऐम।‘
श्रीश जी से वही मेरी पहली और आखिरी मुलाकात थी। उन्होंने दिल्ली जाकर फैक्स संदेश भेजा-‘राजेश जी आपने समारोह का बहुत अच्छा कवरेज किया, इसके लिए धन्यवाद।‘ अफसोस फैक्स मैजेस के वे शब्द कागज से तो मिट गये पर मेरे मन मस्तिष्क में एक वरिष्ठ पत्रकार के आशीर्वचन से अंकित हो गये।
उन्हें हम फिल्मों का इन साइक्लोपीडिया कहते थे। बहुत ही विस्तृत और अद्भुत था उनका फिल्मी ज्ञान। उनके लेख पढ़ कर हमने बहुत जानकारी पायी। श्रीश जी जैसे पत्रकार जब जाते हैं एक बड़ा शून्य कर जाते हैं। (क्रमश;)