कथा सौ साल पुराने शंख की
राजेश त्रिपाठी
अपने पूर्वजों की वस्तुओं को सहेज, संभाल कर रखना अपने आप में एक सुखद
और गौरवपूर्ण एहसास होता है। उन वस्तुओं को देखते ही आपका पुरानी यादों में खो
जाना, उन क्षणों को महसूस करना जो बहुत-बहुत पीछे छूट चुके हैं, स्वाभाविक है।आज
मैं यहां अपने पिता जी के द्वारा प्रयुक्त जिस चतुर्मुखी शंख की कहानी सुनाने जा
रहा हूं, वह अब एक शताब्दी पुराना हो चुका है। आप जब अपनी जड़ों से उखड़ कर कहीं
और बसने जाते हैं तो अपने पीछे कई खट्टी-मीठी यादों के साथ कुछ वस्तुएं भी छोड़
जाते हैं जिन्हें साथ लाना संभव नहीं होता। पिछले साल इसी महीने में जब गांव गया
था तो यह देख कर बहुत खुशी हुई कि वर्षों पहले मैंने जिस घर में जन्म लिया था, वह
अब एक परिवार का आसरा बना हुआ है। उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के बबेरू तहसील के
उस गांव से मेरा पूरी तरह से नाता उस वक्त टूटा जब 95 वर्ष की उम्र में पिता जी का
देहावसान हो गया। मां अकेली पड़ गयीं तो उन्हें अपने साथ रखने के लिए कोलकाता लाना
पड़ा। उस वक्त पिता जी के स्मृति चिह्न के रूप में मैं जिस शुभ और मंगलकारी वस्तु को
ला पाया, वह है एक चतुर्मुखी शंख। वह शंख अब भी मेरे पास पिता जी की पावन स्मृति
के रूप में विद्यमान है। पिता जी हमेशा पूजा-पाठ और भजन में तल्लीन रहते थे। आशु
कवि थे, जमाने भर की कहानियां उन्हें याद थीं। अंग्रेजों के शासनकाल में बांदा में
कैनाल सेक्शन में अंग्रेज अधिकारियों के साथ काम कर चुके थे। उस वक्त की स्मृतियां
वे अक्सर हम लोगों से उस वक्त साझा करते थे जब हम शैशवकाल में थे। हमने तो
अंग्रेजों के शासन को देखा नहीं पर उनके मुंह से सुना कि भले ही हम गुलाम थे,
पराधीन थे लेकिन उस समय का शासन अपराधियों के लिए बहुत सख्त था इसलिए आपराधिक
घटनाएं कम होती थीं।
चूंकि पिता जी धार्मिक प्रकृति के थे तो उनका हम से भी यह आग्रह रहता
था कि हम धर्म के आस्था के पथ पर चलें। जितना हो सके ईश वंदना, अर्चना और धार्मिक
ग्रंथों का अध्ययन मनन करें, उनके पावन, जनहितकारी संदेशों का जीवन में उतारें और
तदनुसार जीवन जीएं। जब हम प्राथमिक शाला में थे तभी से हमारे लिए सुबह के नाश्ते से
पहले स्नान और हनुमान चालीसा का पाठ अनिवार्य कर दिया गया था। पिता जी कहते थे कि
जिस घर में पूजा होती है और शंख की ध्वनि होती है वहां प्रभु की कृपा से बाधाएं
नहीं आतीं। कुछ प्रगतिशील और पाश्चात्य भावनाओं से जीवन जीने वाले इसमें आडंबर और
ढोंग देखें हमें कोई दुख नहीं, हम इस बात की गारंटी भी नहीं देते कि सचमुच शंख
बजाने या पूजा करने से भवबाधाओं से बचा जा सकता है। हां इतना जरूर कह सकते हैं कि
पूजा करने, धर्मग्रंथों को पढ़ने से मानसिक शांति और सात्विक, सुंदर और उत्तम जीवन
जीने का संदेश अवश्य मिलता है। अपनी आस्थाओं, धार्मिक प्रवृत्तियों और आचरणों से
जुड़े रहने की प्रेरणा माता-पिता जी से मिली। पिता जी ब्राह्म मुहूर्त में उठ कर
माला लेकर रामनाम का जाप करने बैठ जाते थे। मां ग्राम देवी के स्थान में शाम को
दीपक जलाना कभी नहीं भूलती थीं। उनके साथ शंख लेकर मैं भी जाता था। मेरा काम शंख
बजाना था। जो चतुर्मुखी शंख हमारे पास है वह आम शंखों से कुछ बड़ा है और उसे बजाने
के लिए अच्छा-खासा जोर लगाना पड़ता था।
शंख का धार्मिक अनुष्ठानों में बड़ा महत्व है। इसकी ध्वनि से वातावरण
शुद्ध होता है। पूजा के समय शंख में जल भर कर रख दें, पूजा संपन्न होने के बाद घर
में उसे छिड़क दें वातावरण शुद्ध होगा, सकारात्मक ऊर्जा का सृजन होगा। पिताजी कहा
करते थे कि अगर शंख के पिछले हिस्से को कान में लगाओ तो राम-राम की ध्वनि सुनायी
देती है। हमने कई बार ऐसा करके देखा लेकिन राम-राम तो नहीं लेकिन ऐसा करते वक्त निरंतर
हवा की एक अविरत ध्वनि अवश्य सुनायी देती रही। एक शतक प्राचीन इस शंख का प्रयोग आज
भी हमारे यहां छोटी-बड़ी पूजाओं में होता है। मिथ्या भाषण नहीं करूंगा, अब नित्य
तो इसे बजा नहीं पाता।
एक वक्त था जब मैं अपने गांव से तकरीबन आठ किलोमीटर दूर बबेरू के
कॉलेज में पढ़ता था, तब भी अपने गांव के विशाल तालाब में एक चबूतरे में पीपल के
पेड़ के नीचे स्थापित हनुमान जी की प्रतिमा के पास रोज शाम दीपक जलाता था। दीपक
जलाने के बाद मैं काफी देर तक शंख बजाता था। शाम के सन्नाटे में वह ध्वनि आठ
किलोमीटर तक का फासला तय कर लेती है इसका पता मुझे अपने कॉलेज के होस्टल में
रहनेवाले कुछ साथियों से चला। उनमें से किसी ने एक दिन पूछा की रोज शाम को आपके
गांव की ओर से शंख की ध्वनि आती है। पता नहीं कौन नियमित शाम को शंख ध्वनि करता
है। मैंने मुस्करा कर कहा भाई –‘मैं ही हनुमान जी के
स्थान पर दीपक जला कर शंख ध्वनि करता हूं।‘ उनमें से एक साथी
बोला-‘यार आपकी शंख ध्वनि तो आठ किलोमीटर दूर तक सुनी
जाती है। संभव है इससे दूर भी जाती हो।’
उस शंख से मुझे इतना लगाव है कि मैं हमेशा उसको सुरक्षित और अक्षत
रखने के प्रयास में रहता हूं। उसे हाथ से स्पर्श करते और बजाते वक्त बरबस पिता जी
की स्मृति ताजा हो जाती है। एहसास होता है कि कभी इसे उनका स्पर्श मिला था। यह शंख
मेरे लिए मात्र एक शंख नहीं उस कालखंड की अमोल धरोहर है। ऐसी कई जीचें गांव में
छूट गयीं जो पूर्वजों की अमोल स्मृतियां बन सकती थीं। उनमें से एक मेरे चाचा
स्वामी कृष्णानंद जी की पीतल की एक बालटी भी थी जिसमें नीचे उनका नाम खुदा
था-स्वामी कृष्णानंद जी, कुटी बिलबई। उसे मां ने कब बेंच दिया मैं जान नहीं पाया.
स्वामी कृष्णानंद जी मेरे सगे चाचा थे और संस्कृत के निष्णांत विद्वान थे।
उन्होंने चित्रकूट की पीलीकोठी के संस्कृत विद्यालय से शिक्षा पायी थी। उन्होंने
सांसारिक बंधनों में फंसने के बजाय स्वामी बनना पसंद किया और बांदा-बबेरू रोड में
बिलबई ग्राम के पास एक कुटी बनायी, वहां एक मंदिर और कुएं का निर्माण कराया। मैंने
अपने चाचा को देखा नहीं उनके जीवन की कहानियां पिता जी से ही सुनी। पिता जी ने
बताया कि जब चाचा ने मंदिर और कुंआ बनाया तो ईंटें पथवाईं और उन्हें पकाने के लिए
भट्ठा लगवाने के लिए सड़क किनारे के पेड़ काट
कर उस लकड़ी का इस्तेमाल कर लिया। अब सरकारी मोहकमे को पता चला कि
स्वामी जी ने सरकारी पेड़ कटवा लिये तो केस दर्ज हो गया। स्वामी कृष्णानंद जी को
कोर्ट में तलब किया गया।
जज ने उनसे पहला सवाल किया-स्वामी जी। आपने यह क्या किया, सरकारी पेड़
काट कर भट्टे में लगा डाले।
स्वामी-क्या करे हुजूर, कुआं बनवाना था, वहां आज बांदा-बबेरू मार्ग के
यात्री पल भर रुक कर गर्मी के दिनों में पानी पीते हैं, कुटी में थोड़ा सुस्ता
लेते हैं और फिर अपने गंतव्य को बढ़ जाते हैं। प्रभु का छोटा- सा मंदिर भी बना लिया है।
जज- वह सब तो ठीक है लेकिन सरकारी संपत्ति का बिना इजाजत इस्तेमाल कर
आपने गलत काम किया है आपको जुर्माना तो देना ही पड़ेगा।
स्वामी-हुजूर मैं तो ठहरा भिखारी। जुर्माना भरने के लिए तो मुझे लोगों
के सामने झोली फैलाने पड़ेगी। मैं शुरुआत आपसे ही कर रहा हूं। जितना जुर्माना बनता
हो आप ही भर दें हुजूर। मैं कहां से लाऊं।
स्वामी कृष्णानंद जी का जवाब सुन जज मुसकराये और बोले –जाइए स्वामी
जी, आपसे कौन पार पायेगा। अब से ऐसा मत कीजिएगा।
स्वामी- नहीं हुजूर, अब ऐसी गलती नहीं होगी।
पिछले साल इसी माह में 35 साल बाद जब गांव गया तो स्वामी कृष्णानंद जी
की कुटी देखने भी जाने का सुअवसर मिला। मैं तो पहले भी गांव में था तो बांदा
आते-जाते कुटी में जरूर उतरता था। पिछली बार जाकर देखा की कुटी तो नहीं रही लेकिन
कुछ सुजान लोगों ने उस जगह पर विद्यालय बनवा दिया है जहां बच्चे पढ़ते हैं। किसी
ने मंदिर और कुएं में रंग-रोगन भी करवा दिया था। यह देख कर अच्छा लगा कि चाचा की
स्मृति को कई दशक बाद भी गांव वालों ने संभाल कर रखा है। उनके प्रति जितनी
कृतज्ञता व्यक्त करें कम होगी।
कहते हैं हम उन्हीं स्वामी कृष्णानंद जी के अवतार हैं। हम नहीं जानते
कि यह कहां तक सच है लेकिन एक बात तो है कि अगर हममें कूट-कूट कर धार्मिक
प्रवृत्ति भरी है तो यह हमारे पूर्वजों की ही प्रेरणा और देन हो सकती है।
No comments:
Post a Comment