दिमाग से नहीं दिल
लिखते थे नीरज
उनका एक-एक बोल सीधे
दिल में उतर जाता था
राजेश त्रिपाठी
नीरज जी का जाना हिंदी गीत विधा के एक सशक्त अध्याय की परि समाप्ति
जैसा है। कारण, नीरज जी जैसे गीतकार और जन-जन के कवि धरा पर बार-बार नहीं आते।
नीरज यह नाम गीतों की दुनिया में ऐसे अमर हो गया कि उनका मूल नाम गोपाल प्रसाद गौण
हो गया। उनके मूल नाम को भले ही गिने-चुने लोग जानते हों लेकिन सरस गीतों, भाव-भरी
और सशक्त कविताओं के रचयिता नीरज से शायद ही कोई हिंदी साहित्य प्रेमी अपरिचित हो।
गीतकार तो बहुत हैं लेकिन उनमें कुछ ही हैं जो पढ़ने-सुनने वालों से सीधे जुड़
पाते हैं। नीरज जब गीत गाते या अपनी कविताएं पढ़ते तो सुनने वालों से उनका सीधा
तादाम्य होता था। मंत्रमुग्ध हो जाता था श्रोता उनके भाव,उनके सशक्त शब्द सुन कर
क्योंकि नीरज दिमाग से नहीं दिल से लिखते थे। उनका एक-एक शब्द सुनने वालों के दिल
में उतर जाता था।
नीरज का जीवन खुली किताब
था, कुछ भी ढंका-छिपा नहीं रहा इसलिए उनसे जुड़ी हर अच्छी-बुरी चीजें बाहर आती
रहीं। इस प्रसंग में विस्तार से न जाते हुए खुद उन्हीं के शब्दों में इस बारे में
कहें जो स्वीकारोक्ति ही लगते हैं-
इतने बदनाम हुए हम तो इस जमाने में।
लगेंगी आपको सदियां हमें भुलाने में ।।
न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर।
ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में।।
नीरज समानता, समरसता के
हामी थे। वे चाहते थे कि विकास का उजाला जन-जन तक पहुंचे। धरा का कोई भी कोना
अंधेरा न रह जाये। इन सार्थक भावों को समेटे उनका गीत प्रस्तुत है-
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहां रोज आए।
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेगे तभी यह अंधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहां रोज आए।
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेगे तभी यह अंधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
नीरज का कवि हृदय में जमाने में व्याप्त विषमता, जाति, वर्ग को लेकर
दिनों-दिन बढ़ते अंतर, विद्वेष से भीतर तक मर्माहत था। मानव-मानव में भेद को कवि
बरदाश्त नहीं कर पा रहा था इसीलिए उसका दिल बड़ी अकुलाहट, बड़ी बेचैनी से कह उठता
है-
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।
आग बहती है यहां गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहां जाके नहाया जाए।
प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अंधेरे को उजाले में बुलाया जाए।
मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूं भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।
जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आंसू तेरी पलकों से उठाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।
आग बहती है यहां गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहां जाके नहाया जाए।
प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अंधेरे को उजाले में बुलाया जाए।
मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूं भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।
जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आंसू तेरी पलकों से उठाया जाए।
नीरज के बारे में जितना कुछ कहा-लिखा जाये वे
जग के हर उपमान से बड़े थे क्योंकि वे यथार्थ के धरातल पे खड़े थे। उनके शब्द उनकी
मुकम्मल पहचान होते थे और कवि सम्मेलनों में उनका होना सुकून का सबब बनता था।
श्रोता उन्हें सुन धन्य होता था क्योंकि उनकी कविता उसके दिल, उसके एहसास पर गहरा
असर छोड़ती थी। एक लेख में उनके महान व्यक्तित्व को समेटना आसान नहीं, यह तो सूरज
को दीपक दिखाने के समान है।
भैया ने उनको नमस्कार किया और पूछा-‘नीरज जी आप यहां?’
नीरज जी बोले-‘हां,
निर्माता से मिलने आया हूं। भीतर विजिटिंग कार्ड भेजा है, कोई जवाब नहीं आया।‘
निर्माता
भैया के परिचित थे। उन्होंने भीतर जाकर उनसे कहा-‘अरे
भाई आपने जिनको बाहर बैठा रखा है वे हिंदी के महान गीतकार हैं। उन्हें तुरत अंदर
बुलाइए।‘
निर्माता
को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने तुरंत नीरज जी को अंदर बुलाया। बाद में
फिल्म ‘पहचान’ के टाइटिल सांग ‘पैसे की पहचान यहां इनसान की कीमत कोई नहीं बच के निकल जा इस
बस्ती में करता मुहब्बत कोई नहीं ’ में
नीरज जी ने अपने उस उपेक्षा की शिकायत की जो बहुत से मशहूरो-मारूफ लोगों को उनके
हाथों झेलने पड़ती है जिनका साहित्य से कोई नाता नहीं और जो सस्ते, सतही, फूहड़
गाने ही पसंद करते और फिल्मों में भरते हैं।
फिल्मी गीतों को जो ऊंचाई शकील बदायूंनी,
कैफी आजमी, शैलेंद्र, गुलजार,इंदीवर जैसे गीतकारों ने दी वह अब जावेद अख्तर के
अलावा किसी और में नहीं दिखती। फिल्मी गीतों के गिरते स्तर के बारे में एक बार
प्रसिद्ध गीतकार इंदीवर ( अब स्वर्गीय) से चर्चा हुई। यहां यह बताना अप्रासंगिक न
होगा कि श्यामलाल बाबू राय यानी इंदीवर मेरे बांदा जिले के पड़ोसी जिले झांसी के
थे। फिल्म ‘सरस्वतीचंद्र’ के गीत ‘चंदन सा बदन,
चंचल चितवन’
लिखनेवाले इंदीवर जब ‘झोपड़ी में
चारपाई ’ जैसा सस्ता, फूहड़, निम्न कोटि का गीत लिखते हैं तो मेरे जैसे
व्यक्ति को जो ‘चंदन सा बदन’ लिखनेवाले इंदीवर का भक्त था, गहरी चोट पहुंचती है। इंदीवर जी
एक फिल्म (जो बनी नहीं, मुहूर्त तक ही सिमट कर
रह गयी) के गीत लिखने कोलकाता आये थे। मुहूर्त कवरेज के लिए मैं भी गया था।
उनसे भेंट हुई तो मैंने शिकायती लहजे में
कहा-‘क्या इंदीवर जी ‘चंदन
सा बदन’ लिखनेवाला लेखक इतनी नीचे उतर गया ‘झोपड़ी में चारपाई’ यह
साहित्य का कौन-सा उत्कर्ष है।‘
उन्होंने जो उत्तर दिया वह दिल का दुख और गहरा कर गया। उन्होंने
कहा-‘भैया ऐसा पेट की खातिर करना पड़ा। अब कोई भी चंदन सा बदन
नहीं लिखाना चाहता। ऐसे सस्ते, फूहड़
गानों का दौर है, न लिखें तो भूखों मरें।‘
उनका जवाब सुन कर मैं स्तब्ध रह गया। मेरे सवाल का जवाब मुझे
मिल गया था। इस प्रसंग को लिखने का एक ही मतलब था कि फिल्मी दुनिया में अब
साहित्यकारों की कोई इज्जत नहीं। वैसे दृष्टांत है कि अतीत में भी कई बड़े-बड़े
साहित्याकारों का जिन्होंने फिल्मों की ओर रुख किया था जल्द ही मोहभंग हो गया।
यह जरूर है कि नीरज जी जब फिल्मी दुनिया में
गये तो छा गये। उनका एक-एक गीत हिट हुआ। सुना है कि फिल्मों में उन्हें लाने का
श्रेय देव आनंद को जाता है। उनकी फिल्म ‘प्रेम
पुजारी’ में उन्होंने शानदार गीत लिखा ‘रंगीला
रे तेरे रंग में क्यूं रंगा है मेरा मन’ जिसे
सचिन देव बर्मन ने संगीत से सजाया और लता मंगेशकर ने गाया था बहुत हिट हुआ। वैसे
फिल्म ‘नयी उमर की नयी फसल’ के
गीत ‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’ को
जितनी तारीफ मिली शायद ही किसी गीत को मिली हो। इस गीत का एक-एक बंद जिंदगी का
आईना है जिसमें उभरते अक्स किसी के भी हो सकते हैं। इसकी स्थितियां बहुत ही
जानी-पहचानी लगती हैं और यह गीत सीधे दिल में उतरता है।
नीरज के लिखे हर फिल्मी गीत में उनकी
अपनी अलग पहचान थी। चाहे वह ‘ कन्यादान’ फिल्म का ‘लिखे जो खत तुझे’ हो या ‘शोखिय़ों में घोला जाये फूलों का शवाब’ (फिल्म प्रेमपुजारी) या ‘कहता
है जोकर सारा जमाना’ (मेरा नाम जोकर) या इसी फिल्म का ‘ये भाई जरा देख के चलो’ गीत
दोनों ही प्रासंगिक, कथानक से ओतप्रोत जुड़े और जीवन के ऊंच-नीच की कहानी कहते
सार्थक गीत हैं।
नीरज जी का व्यक्तित्व अथाह सागर है जिसमें
अवगाहन करना हम जैसे अकिंचन के लिए आसान नहीं। उनके बारे में जो जाना-सुना उसके
आधार पर उनके व्यक्तित्व का एक खाका खींचने की कोशिश की। जानता हूं बहुत कुछ छूट
गया होगा क्योंकि नीरज जी के जीवन को शब्दों में समेटना आसान नहीं। जितना कह पाया
उतना ही उनको श्रद्धांजलि स्वरूप समर्पित है। इस महान व्यक्तित्व को शतश: नमन।
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