आज अचानक पुरानी फाइलों को पलटते हुए भैया की एक फाइल हाथ लग गयी।
उसमें उनकी कुछ मुक्तछंद की कविताएं मिल गयीं जो मैंने पहले नहीं देखीं थीं। वे
कुछ भी लिखते मुझे पढ़ाते जरूर थे। जाने क्यों उन्होंने इन कविताओं को चुपचाप फाइल
में कैद कर दिया। इनमें एक कविता ऐसी है जिसमें वे अपनी जड़ों की तलाश करते महसूस
होते हैं। सोचा, इसे सुधी पाठकों के सामने लाया जाये और उन्हें रुक्म त्रिपाठी के
इस नये रूप से परिचित कराया जाये। प्रस्तुत हैं कविता-
मेरा नारा
रुक्म त्रिपाठी
अस्सी साल बाद
आया याद
अपना गांव
जिसके पूर्व में
पद्म-पुष्पों से
सुरभित तालाब
पश्चिम में
कलकल निनाद करती सरिता
ऊंचे टीले पर बसा
ब्राह्मणों का थोक
जहां जन्मा मुखिया
का
प्रथम पुत्र
यानी मैं
किंतु दुर्भाग्य
शैशवावस्था में हो
गया
मातृ-पितृविहीन
कुल-पुरोहित का कथन
विचित्र है विधि का
विधान
मां-बाप पर भारी पड़ती
है
मूल नक्षत्र में
जन्मी संतान।
मां से अधिक चाहता
मामा
तभी उसके रिश्ते में
जुड़ी होती हैं
दो मांएं
मा मा
जिसने इस अनाथ को
जतन से पाला
अस्सी साल बाद
अचानक याद आया
अपना गांव
जहां गड़ा अपना नारा*।
जिसने मां के गर्भ मे
मुझे था पाला
सोचा उसे खोद लाऊं
स्मृति स्वरूप
कांच की मंजूषा में
जतन से सजाऊं।
गांव के टीले के
नीचे
दलितों की बस्ती
जहां सुअर अगोरता
मिला
उनका पालनहार
बूढ़ा दलित
जिसने बताया
बहुत पहले से
गांव के जन्मे
बच्चों का नारा
हंसिया से काटती थी
मेरी मां
अब वह नहीं है
आपका नारा भी
मां ने ही काटा होगा
उसे कहां गाड़ गयी
पता नहीं
सुन कर उस
देविस्वरूपा
दलित सेविका के प्रति
उठा मस्तक श्रद्धा
से
नत हो गया
और उच्च वर्णीय गर्व
से भरा
मेरा ब्राह्मणत्व तिरोहित हो गया।
नारा*= गर्भनाल अंग्रेजी
में जिसे प्लेसेंटा कहते हैं
भैया रुक्म त्रिपाठी (बायें) के साथ ब्लागर राजेश त्रिपाठी |
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