उनके जैसे लोग अब धरती पर बिरले ही आते हैं
राजेश त्रिपाठी
चले गये सुदीप जी। हजारों को रुला गये। उनके
जैसे इनसान आजकल कम ही आते हैं और जाते हैं तो हजारों आंखें गम से नम हो जाती हैं।
उनके जैसे प्यारे और हर दिल अजीज इनसानों का सबसे बड़ा गुण होता है सहजता, समरसता
और सबसे स्नेह। जब उनके निधन का समाचार सुना तो 70 के दशक के वह दिन, पल, क्षण और
उनसे जुड़ी स्मृतियों, संदर्भों के पृष्ठ दिमाग में एक-एक कर उभरने लगे। हम लोगों
को सुरेंद्र प्रताप सिंह (हमारे प्यारे एसपी दा) के संपादकत्व में आनंद बाजार
प्रकाशन कोलकाता के पहले हिंदी साप्ताहिक ‘रविवार’ मे काम करते वक्त कुछ वर्ष बीत चुके थे। एक दिन
जब हम कार्यालय पहुंचे तो हमारा परिचय हमारे संपादकीय विभाग के एक नये साथी से
कराया गया। मध्य वय के एक गोरे-चिट्टे औसत कद के व्यक्ति जिनके होंठों पर स्मित
हास्य स्थायी भाव से रहता था। नाम बताया गया सुदीप जी। कुछ दिन बाद ही मेरी उनसे
गहरी आत्मीयता हो गयी क्योंकि वे मुझे बेहद सहज और विचारों और व्यवहार से बेहद
उदार दिखे। इसे मेरे स्वभाव की खामी कहें या खूबी मैं वैसे ही लोगों से तादाम्य
बैठा पाता हूं जो जमीन के सीधे-साधे इनसान हों पद की गरिमा के घमंड में चूर आसमान पर विचरने वाले व्यक्ति ना हों
जो अपने सहज मानवीय गुणों से परे कुछ और ही बन गये हों या बनने-दिखने का भान कर
रहे हों। हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह भी हमें सदा बड़े भाई से ही लगे सुदीप
जी में भी हमें वही सहजता और भ्रातृवत भाव नजर आया इसलिए मुझे उनसे सहज होने और आत्मीयता
स्थापित करने में देर नहीं लगी।
उनसे
बातचीत शुरू की, परिचय का दायरा बढ़ा तो उनसे जुड़ी जानकारियां भी एक-एक कर उजागर
होने लगीं। पता चला सुदीप जी कथाकार, कवि, उपन्यासकार तो हैं ही उन्हें कमलेश्वर
जी जैसे मशहूर साहित्यकार के साथ कहानियों की पत्रिका ‘सारिका’ में काम करने का सुअवसर
मिला था। उनका पूरा नाम गुलशन कुमार ‘सुदीप’ था। उनके बारे में जाना तो उनके प्रति स्नेह के
साथ-साथ श्रद्धा का भाव भी जगा यह एहसास भी कि हम जैसे नये-नये पत्रकारों को एक
य़ोग्य साथी का साथ मिला।
धीरे-धीरे
दिन बीतने लगे। सुदीप जी हमारी आत्मीयता और भी बढ़ती गयी। जिन दिनों की यह बात है
तब आनंद बाजार प्रकाशन में लाइनों से मैटर की कंपोजिंग होती थी। जो लोग लाइनों को
नहीं जानते उनके लिए बता दें कि यह विशालकाय मशीन होती है जिसमें नीचे की तरफ
रांगा पिघलता रहता है और उसमें पीतल की टाइप होती है जिसमें हिंदी अंग्रेजी या
अन्य भाषाओं के एक-एक अक्षर उभरे होते हैं। सामने बैठा लाइऩों आपरेटर मैटर पढ़-पढ़
कर कंपोज करता है और एक-एक अक्षर पिघते रांगे से गुजर कर पूरी लाइन ढाल देते हैं।
इसी तरह से पूरा मैटर कंपोज होता फिर उसका प्रिंट निकाल कर अखबार या पत्रिका की
पैज मेकिंग होती। तब तक फोटो टाइप सेंटिंग या लेजर प्रिंट का युग नहीं आया था। बाद
में इस युग को भी हमने वहां तो देखा।
एक दिन की बात है कि नीचे प्रेस में लाइनों
आपरेटर को किसी मैटर को पढ़ने-समझने में दिक्कत हो रही थी तो हमारे संपादक एस पी
सिंह जी ने मुझसे कहा-‘राजेश जी आपरेटर को कोई मैटर पढ़ने में दिक्कत हो रही है देखिए जरा समझा
दीजिए।‘
मैं नीचे प्रेस से वापस आकर अपनी सीट में बैठा ही था कि संपादक एसपी सिंह जी
ने कहा-‘राजेश जी मुझे कल
फिल्म निर्माता-निर्देशक वी शांताराम पर एक लेख चाहिए। आप तैयार करके लाइएगा।‘
मेरी समझ में ना आया कि एसपी ऐसा क्यों कह रहे हैं। तब तक
फिल्म संबंधी सारे लेख बंबई (अब मुंबई) से ही आते थे और नामी पत्रकार लिखते थे।
खैर मैंने दूसरे दिन वी शांताराम पर लेख एसपी सिंह जी को दे दिया। उन्होंने पसंद
किया यह जान कर मुझे बड़ी खुशी हुई लेकिन यह आश्चर्य बना ही रहा कि एसपी अचानक
मुझसे क्यों लिखाने लगे।
दूसरे
दिन जब मैंने पाया कि संपादक एसपी सिंह मालिक अभीक सरकार से मिलने उनके कक्ष में
गये तो मैंने सुदीप जी से पूछा-‘भाई साहब। बंबई के पत्रकार अच्छा-खासा फिल्मों पर लिख रहे
थे फिर एसपी दा ने मुझे क्यों लिखने को कहा।‘
सुदीप जी |
मैं क्या कहता मुसकरा कर रह गया। उसके
बाद तो अक्सर ही मुझसे फिल्मों पर लिखाया जाने लगा। उन दिनों मशहूर फिल्म पत्रकार
देवयानी चौबाल की बड़ी धूम थी। अंग्रेजी की फिल्म पत्रिका “स्टार एंड स्टाइल ‘’ में फिल्मी गासिप पर आधारित
उनका कालम ‘नीताज नैटर’ बेहद मशहूर था। हमारे
संपादक एसपी सिंह जी ने देवयानी से वैसा ही कालम ‘रविवार’ के लिए लिखने को कहा। वे लिखने लगीं और हमारे एक
सहयोगी उसका हिंदी में अनुवाद करने लगे। वह पत्रिका में ‘सुनते हैं’ नामक स्तंभ में छपने लगा।
कुछ दिन बाद एसपी सिंह जी ने कहा इस कालम का अनुवाद आप करेंगे। मैं अनुवाद करने
लगा। इसे आत्मश्लाघा ना समझें मेरा आंतरिक अनुरोध है। कुछ दिन बाद देवयानी चौबाल
का एसपी सिंह के नाम फैक्स आया जिसमें लिखा था कि-‘आपके जो भी सहयोगी मेरे
कालम का अनुवाद कर रहे हैं उन्हें धन्यवाद, आभार। बस भाषा भर बदली है उन्होंने
मेरे स्टाइल से ही लिखा है। मुझे लगता है जैसे मैंने ही लिखा हो।’
दिन,
महीने वर्ष ऐसे ही गुजरते रहे। सुदीप जी बीच-बीच में बंबई जाते जहां उनका परिवार
था। उनकी पत्नी उन दिनों मुंबई में ही पढा़ती थीं। हम पाते थे कि जब सुदीप जी
मुंबई में अपने परिवार से मिल कर आते तो कुछ दिनों तक उनके चेहरे पर उदासी के भाव
रहते थे। परिवार से बिछुड़ने का दुख उनके चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता था। उन्हें
सहज होने में कुछ दिन लगते।
एक
बार वे जब बंबई में परिवार से मिल कर आये तो कुछ बदले-बदले से लगे। उनके चेहरे पर
स्थायी भाव से रहनेवाला स्मित हास्य गायब था और गहरी उदासी उभर आयी थी । हमसे उनकी
उदासी का कारण पूछा ना गया। सोचा गर दर्द को कुरेदा तो वह कहीं और ना गहरा हो
जाये। ज्य़ादा दिन नहीं लगे उनके दर्द की वजह जानने में। दो दिन बाद जब विभाग के
सारे सहयोगी जा चुके थे। कार्यालय में मैं, निर्मलेंदु और सुदीप जी रह गये थे तो
सुदीप जी ने निर्मलेंदु से कहा-‘निर्मल, तीन डोसे मगाओ। आज
आपके साथ डोसा खाने का मन कर रहा है। ‘
निर्मल ने कार्यालयीय सहायक
से कह कर तीन डोसे मंगा लिए। हम सब डोसे खाने लगे। सुदीप जी भी इधर-उधर की बातें
करते रहे।
डोसे
खत्म होते-होते तक हमने पाया कि सुदीप जी की आंखें भर आयीं थीं। उनके चेहरे पर
उभरी उदासी अब और गहरा गयी थी जो साफ नजर आ रही थी।
अचानक
वे बोले-‘राजेश जी और निर्मल
भाई, मैं कल बंबई वापस लौट रहा हूं हमेशा के लिए। मैंने इस्तीफा दे दिया है। आप
जैसे प्यारे भाई बहुत याद आयेंगे।‘ इतना कहते-कहते वे रोने ही लगे।
हम
लोगों की भी आंखें भर आय़ीं। मैंने पूछा-,’क्या हुआ भाई जी अचानक।‘
वे दुख से अपनी भर आयी आवाज
को संभालते हुए बोले-‘हां राजेश जी, अचानक ही यह फैसला लेना पड़ा। इस बार जब मैं बंबई पहुंचा तो
मेरी बेटी इतना खुश हुई, उसका चेहरा इतना खिल गया कि मैं कह नहीं सकता। मैंने बहुत
गहराई से सोचा कि मैं क्यों इतनी मेहनत कर रहा हूं अपने परिवार के चेहरे पर खुशी
और हंसी देखने के लिए ना। पर मैं ऐसा कर कहां पा रहा हूं। जब कई महीने बाद मैं
इनसे मिलते आता हूं तो इनके चेहरे खिल जाते हैं, खुशी का ठिकाना नहीं रहता। जब मैं
वापस लौटने लगता हूं तो उन्हें लगता है जैसे उनसे उनकी सारी खुशियां ही छीन ली जा
रही हैं। इस बार मैंने बहुत गंभीरता से सोचा कि मैं इनकी इच्छा के विपरीत इऩसे दूर
रह रहा हूं जो ठीक नहीं है। क्या है बंबई में रह कर पटकथा वगैरह लिख लूंगा। कम
पैसे मिलेंगे लेकिन सबसे बड़ी खुशी तो मिलेगी अपनों के चेहरों पर खुशी की मुसकान।
कल बंबई के लिए निकल रहा हूं तुम लोगों की बहुत याद आयेगी।‘
हमें भी तो आपकी बहुत याद आयेगी सुदीप जी। आपसे जो जाना, जो सीखा आपका जो
स्नेह मिला वही हमारे जीवन की संचित निधि है। प्रभु के चरणों में आपको स्थान मिले
यही प्रार्थना और कामना है।
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