Friday, May 14, 2021

क्या वाल्मीकि के अवतार थे गोस्वामी तुलसीदास

 

 क्या वाल्मीकि के अवतार थे गोस्वामी तुलसीदास यह शीर्षक देने का उद्देश्य सनसनी फैलाना या किसी के सोच को प्रभावित करना नहीं है। ऐसे कुछ उल्लेख कहीं मिले इसीलिए इस विषय को उठाया और सोचा कि इसे आप तक भी पहुंचायें जिससे आप भी इस पर विचार मंथन करें। रत्नाकर दस्यु के श्रीमद् वालमीकि रामायण के रचयिता ऋषि वाल्मीकि की कहानी भी अनोखी है। रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास की भी जीवन गाथा भी कम विचित्र नहीं है। दोनों के रामकथा गाने का ढंग भी अलग-अलग और अनोखा है।  वाल्मीकि ने त्रेता युग में रामायण की रचना की। उनकी कथा के नायक  राम राजकुमार हैं, शासक हैं उन्हें वाल्मीकि ने जैसा देखा, जैसा पाया वैसा ही उनके चरित्र का वर्णन किया पर तुलसीदास ने राम गाथा को भक्ति भाव से लिखा। उनके रामचरित मानस के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। तुलसी ने राम के आदर्श रूप को एक भक्त के रूप में प्रस्तुत किया। वाल्मीकि की रामायण संस्कृत भाषा में थी इसलिए वह तत्कालीन पाठक समाज के उसी वर्ग में समादृत और प्रचलित हुई जिन्हें संसकृत का ज्ञान था। कुछ लोगों का मत है कि उसी रामायण को जनभाषा और सरल भाषा में गाने के लिए कवि वाल्मीकि ने कलयुग में गोस्वामी तुलसीदास के रूप में अवतार लिया। उन्होंने अपने रामचरित मानस को अवधी मिश्रित हिंदी में रच कर जन-जन में लोकप्रिय और समादृत बना दिया।
वाल्मीकि के गोस्वामी तुलसीदास को रूप में अवतार लेने की एक यह कथा भी प्रचलित है। संभवत: बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि सर्वप्रथम रामायण की रचना हनुमान जी ने की थी। उन्होंने पत्थरों की शिलाओं में अपने सुदृढ़ नखों से कुरेद-कुरेद कर यह रामायण लिखी थी। इसका नाम 'हनुमद् रामायण ' था। कहते हैं जब वाल्मीकि जी ने उस रामायण को देखा तो उन्हें लगा उन्होंने  संस्कृत में जो रामायण लिखी है वह श्रेष्ठता में हनुमान जी की रामायण के आगे कहीं नहीं टिकती। वे प्रसन्नता से नाचने लगे। उन्हें प्रसन्न देख हनुमान जी ने कहा- तुम जो चाहो वरदान मांग लो। लेकिन वाल्मीकि ने सोचा कि इनकी रचना अगर विश्व विख्यात हो गयी तो उनकी रामायण को कोई नहीं देखेगा। हनुमान जी ने वरदान मांगने को कहा था तो वाल्मीकि जी ने उनसे कहा कि अगर आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो मैं यह वरदान मांगता हूं कि आप अपनी लिखी इस रामायण को समुद्र में प्रवाहित कर दीजिए। हनुमान जी ने तो वरदान मांगने  के लिए कह ही दिया था तो उन्होंने शिला पर लिखी अपनी रामायण को समुद्र में प्रवाहित तो कर दिया लेकिन उनको वाल्मीकि पर बड़ा क्रोध आया।
उन्होंने वाल्मीकि को कहा कि तुमने कलियुगी व्यक्ति की तरह आचरण किये। मुझे अपनी दुर्लभ रामायण समुद्र में प्रवाहित करने को विवश किया अब मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुमको कलियुग में भी अवतार लेना होगा। यह सुन कर वाल्मीकि भयभीत हो गये। इस पर हनुमान जी ने उन्हें यह भी विश्वास दिलाया कि वे सदा उनके साथ रहेंगे और कलियुग का प्रभाव उन पर नहीं पड़ने देंगे। हनुमान जी के इस शाप के चलते ही कलियुग में वाल्मीकि को गोस्वामी तुलसीदास के रूप में अवतार लेना पड़ा। सभी जानते हैं की कलियुग में वाल्मीकि ने जब तुलसीदास के रूप में अवतार लिया तो हनुमान जी ने कई अवसर पर उनकी मदद की यहां तक की उनकी सहायता से ही तुलसीदास को चित्रकूट में राम के दर्शन भी हुए।
तुलसी कृत श्रीरामचरित मानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। उत्तर भारत में रामायण के रूप में कई लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। श्रीरामचरित मानस में इस ग्रन्थ के नायक को एक महाशक्ति के रूप में दर्शाया गया है जबकि महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में श्रीराम को एक मानव के रूप में दिखाया गया है। तुलसी के प्रभु राम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। रामचरित मानस के बारे में स्वयं तुलसी ने कहा है-
नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद्, रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोपि। स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा, भाषानिबंध मति मंजुलमातनोति।। अर्थात नाना पुराणों, वेद शास्त्र जिससे सहमत हैं रामायण में उसी का वर्णन किया गया है और कुछ नहीं। स्वयं सुख प्राप्ति के लिए अपनि मति के अनुसार इस रघुनाथ गाथा को भाषा में निबद्ध किया है। अत: यह विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने अपनी मौलिकता में और अपनी कल्पनाशीलता में सृजन धर्मिता का निर्वहन किया है। हृदयस्थ श्रीराम भक्ति के आश्रय में तथा भूतभावन भगवान शिव की कृपा से तत्कालीन उपलब्ध भारतीय पारम्परिक संस्कृत साहित्य का आधार लेकर श्रीरामचरितमानस को भाषा बद्ध किया है। रामायण के सृजन में उन्हें शोध की सामग्री महर्षि वेदव्यास प्रणीत पुराण, गीता, उपनिषद् आदि साहित्य से प्राप्त हुई है।
हृदय परिवर्तन के बाद दस्यु से ऋषि बन जाने वाले वाल्मीकि  ऋषि ने संस्कृत भाषा में एक महाकाव्य की रचना की। इस ग्रंथ में 24,000 श्लोकों को 500 सर्ग और 7 कांड में बांटा गया है। इस महाकाव्य में अयोध्या के राजा राम के चरित्र को आधार बनाकर विभिन्न भावनाओं और शिक्षाओं को बहुत सरल तरीके से समझाया गया है।
राजा राम का चरित्र वाल्मीकी ने एक साधारण मानव के रूप में चित्रित किया है जो बाल रूप से लेकर राजा बनकर न्यायप्रिय तरीके से राज करके अपनी प्रजा के हित के लिए किसी भी निर्णय को लेने में हिचकते नहीं हैं।  उनके द्वारा किये गए कामों में कहीं भी किसी दैवीय शक्ति का प्रयोग दिखाई नहीं देता है।
 अवधी भाषा में रची गयी रामचरित मानस सोलहवीं शताब्दी में तुलसीदास द्वारा रची गयी रचना है. वाल्मीकि रामायण को आधार मान कर रची गयी यह रचना एक भक्त का अपने आराध्य के प्रति प्रेम और समर्पण का प्रतीक है. तुलसीदास जी ने इस ग्रंथ में राम के चरित्र का निर्मल और विशद चित्रण किया है।
कहते हैं कि तुलसीदासजी महर्षि वाल्मीकि का अवतार थे जो मूल आदि काव्य रामायण के रचयिता थे। गोस्वामी तुलसीदास एक महान कवि थे। उनका जन्म राजापुर गांव (वर्तमान चित्रकूट धाम जिला) उत्तर प्रदेश में हुआ था। अपने जीवनकाल में तुलसीदास जी ने 12 ग्रन्थ लिखे और उन्हें विद्वान होने के साथ ही अवधी और हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक माना जाता है।
कहते हैं कि तुलसीदासजी महर्षि वाल्मीकि का अवतार थे जो मूल आदि काव्य रामायण के रचयिता थे।
भुलई नाम का एक व्यक्ति था। वह भक्ति-पथ और गोस्वामीजी की निन्दा किया करता था। उसकी मृत्यु हो गयी। सब लोग उसे अर्थी पर सुलाकर शमशान ले जा रहे थे। भुलई की स्त्री रोती हुई आई, और उसने गोस्वामीजी को प्रणाम किया। गोस्वामीजी के मुंह से सहज में निकल गया कि 'सौभाग्यवती भव!'
जब उसने अपने पति मृत्यु की बात बताई तो तुलसीदासजी ने उसके पति का शव अपने पास मंगवा लिया और मुंह में चरणामृत देकर उसे जीवित कर दिया। उसी दिन से गोस्वामी जी ने नियम ले लिया और बाहर बैठना छोड दिया।
. तुलसीदास बहुत ही उदार थे। किसी के मुख से राम नाम निकल जाये तो वे उस पर बहुत प्रसन्न थे। एक बार एक हत्यारा ब्राह्मण उनके यहां आया। दूर खडा होकर वह राम-राम कहने लगा। अपने इष्टदेव का नाम सुनकर तुलसीदासजी आनन्द में खो गए और उसके पास जाकर उसे हृदय से लगा लिया। आदर से भोजन कराया और बडी प्रसन्नता से कहा-
तुलसी जाके मुखनि ते, धोखेहु निकसत राम।
ताके पगकी पगतरी, मेरे तन को चाम ।।
यह बात जल्द ही सारे नगर में फैल गयी। शाम होते ही ज्ञानी, ध्यानी, विद्वान इकट्ठे हो गए। उन लोगों ने गोस्वामीजी से पूछा यह हत्यारा कैसे शुद्ध हो गया? तुलसीदास ने कहा वेदों, पुराणों में नाम-महिमा लिखी है उसे पढकर देख लीजिए।
तब उन लोगों का कहना था कि आप कोई ऐसा उपाय करें जिससे हमें विश्वास हो जाए तुलसीदास ने उस हत्यारे के हाथों से भगवान शिव के नन्दी को भोजन कराया, यह देखकर सबको विश्वास हो गया। चारों ओर जय-जय की ध्वनि होने लगी। निन्दकों ने तुलसीदास के चरणों को पकड़कर क्षमा मांगी।
गंगा तट पर स्थित राजापुर में आत्माराम की पत्नी प्रसव व्यथा से व्याकुल हो रही थी। दुबे जी बाहर परेशान बैठे थे तभी बच्चे को जन्म दिलानेवाली दाई दौड़ी-दौड़ी बाहर आयी। दाई ने ऐसी खबर सुनाई कि आत्माराम दुबे अपना सर पकड़ कर बैठ गए। दाई ने कहा कि लड़का हुआ है। लेकिन बच्चे को जन्म देने की पीड़ा से आपकी पत्नी की जान चली गयी। दुबे जी दुख से व्याकुल हो गये। कहते हैं जन्म के समय ही तुलसी के दो दांत थे और उन्होंने जन्मते ही राम नाम का उच्चारण किया था। कहते हैं कि इसीलिए कुछ लोग रामबोला बुलाने लगे थे। आत्माराम पत्नी की मृत्यु से बहुत दुखी थे उन्होंने एक ज्योतिषी को बुला कर बालक का भविष्य जानना चाहा। ज्योतिषी ने बेटे को देख कर कि-यह ऐसे खराब नक्षत्र में जन्मा है कि जन्मते ही मां को खा गया। इसके चलते पिता पर भी प्राण का संकट है। ज्योतिषी की बात सुन कर आत्माराम दुबे अपने बेटे तुलसी को घर से निकाल दिया। दाई को उस बालक पर तरस आ गया और वह उसे लेकर अपने घर चली गई। चुनिया दाई बच्चे को घर लेकर गई तो उसकी सास और उसके पति ने उसे बहुत भला-बुरा कहा। कुछ दिनों बाद तुलसी के पित आत्माराम दुबे की मौत हो गई और चुनिया दाई की भी सांप के काटने से मौत हो गयी। चुनिया दाई के पति का शक अब यकीन में बदल चुका था उसने उस बच्चे को घर से बाहर निकाल दिया। वह बच्चा पेड़ के नीचे जाकर सोया खाने के लिए लोगों से भीख भी मांगी। लेकिन सारे उसे मनहूस समझ कर भगा दिया करते।एक दिन वह भीख मांगते-मांगते मंदिर पहुंच गया। वहां पर उसकी मुलाकात संत नरहरी दास से हुई। उन्होंने उस पर तरस खाकर उसको अपने पास रखा और उसे राम का पाठ पढ़ाया। संत जी उसे अपने आश्रम में ले गए और उसे वेदों का ज्ञान भी कराया। संत ने उन्हें यह भी बताया कि किस तरह राम भगवान ने 14 वर्ष का वनवास काटा गरीबों और मजदूरों की मदद करी। और फिर उन्हें आचार्य शेष सनातन के साथ काशी ले गए।
 वह चाहते थे कि आगे का ज्ञान वह आचार्य से प्राप्त करें सनातन बाबा ने उन्हें वेदों का ज्ञान दिया और उसे बहुत सारी धार्मिक किताबें भी पढ़ाई। शिक्षा पूरी होने के बाद उसके गुरु जी ने उससे दक्षिणा यह मांगा की जाओ सबको राम का पाठ पढ़ाओ।
तब तक तुलसी का नाम रामबोला ही था। वे वापस अपने गांव पहुंचे और वहां पर जाकर राम नाम पर सत्संग करने लगे सुनने के लिए बहुत लोग आया करते क्योंकि उसके सत्संग से लोगों के दुख मिट जाया करते थे। यही रामबोला आगे चल कर तुलसीदास हुए और उनके गुणों की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। उसके बाद एक गांव के बंधु पाठक को तुलसीदास के बारे में पता चला तो उन्होंने उससे अपनी बेटी का विवाह करवाने का निश्चय किया। तुलसीदास से रत्नावली का विवाह करा दिया।
तुलसी अपनी पत्नी रत्नावली से बहुत प्रेम करते थे। वह उसके बिना एक पल भी नहीं रह सकते थे। एक दिन जब यह काम से घर वापस लौटे। उन्होंने देखा कि उनकी पत्नी अपने मायके गई हुई है। वह उसके बिना नहीं सकते थे और तो उससे मिलने के लिए वह रात तेज बारिश की अंधेरी  रात में भी उफनती यमुना नदी को तैर कर पार करने के बाद अपनी पत्नी से मिलने गए। उसके घर चले गए उन्हें देख रत्नावली बहुत परेशान हुई । रामबोला को विक्षिप्त हालात में अपने पास आया देख उनका अनादर करते हुए कहा कि 'अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।। ' यानी इस हाड़ मांस की  देह से इतना प्रेम, अगर इतना प्रेम राम से होता तो जीवन सुधर जाता सारे दुख मिट जाते। भव बाधा नहीं व्यापती।
पत्नी की इस झिड़की तो जैसे रामबोला का जीवन ही बदल दिया। उनके रामबोला से तुलसीदास बनने का सर्वाधिक श्रेय रत्नावली को ही जाता है। पत्नी के उपदेस ने उनका जीवन ही बदल कर रख दिया। पत्नी की बात सुनकर उन्होंने सब कुछ त्यागने का निश्चय कर लिया। वह गंगा के तट पर गए और राम नाम का जाप करने लग गए।
इसके बाद वह राजपुर गांव में गये और वहां पर उन्होंने राम का सत्संग हिंदी में शुरू कर दिया क्योंकि उस समय हिंदी और संस्कृत बोली जाती थी। उनके सत्संग से काफी लोगों को राहत मिल गई लेकिन कुछ ऐसे ब्राह्मण से जो चाहते थे कि रामायण का प्रचार केवल संस्कृत भाषा में होना चाहिए क्योंकि संस्कृत भाषा ही सही है रामायण को पढ़ने के लिए। कुछ ब्राह्मणों ने उनका बहिष्कार भी किया लेकिन वह अपना काम करते रहे।
तुलसी ने रामचरितमानस में भगवान श्रीराम के चरित्र का चित्रण जितने प्रभावशाली तरीके से किया गया है, उतने ही प्रभावशाली तरीके से भगवान राम के माध्यम से जीवन को जीने का तरीका भी बताया है। रामचरितमानस में मनुष्य को बताया गया है कि जीवन को सफल और सुखी बनाना है तो राम को भजने के साथ ही सांसारिक व्यवहार का भी ध्यान रखना होगा।
विरक्त हो जाने के उपरांत तुलसीदास ने काशी को अपना मूल निवास-स्थान बनाया।तुलसीदास के जीवन का सर्वाधिक समय यहीं बीता। काशी के बाद सबसे अधिक दिनों तक अपने आराध्य राम की जन्मभूमि अयोध्या में रहे। मानस के कुछ अंश का अयोध्या में रचा जाना इस तथ्य का प्रमाण है। उनके जन्म स्थान राजापुर के तुलसी कुटीर में उनके रामचरित मानस के हस्तलिखित पृष्ठ सुरक्षित हैं जिनके दर्शन किये जा सकते हैं। कुछ पृष्ठ चित्रकूट धाम में कामदगिरि की परिक्रमा में तुलसीदास द्वारा लगाये गये पीपल के पुराने वृक्ष के पीछे एक कुटी में रहनेवाले साधु के पास हैं जिन्हें वे आग्रही दर्शनार्थियों को प्रेम से दिखाते हैं। यहां अभी जो वीडियो आप देख रहे हैं उसमें मेरा छोटा बेटा अवधेश त्रिपाठी और छोटी बहू कल्याणी त्रिपाठी परिक्रमा पथ पर तुलसी की हस्तलिपि में रामयण के पृष्ठों को देख और उनके बारे में साधु से जानकारी ले रहे हैं। 
तीर्थाटन के क्रम में तुलसीदास प्रयाग, चित्रकूट, हरिद्वार आदि भी गए। रामायण की कथा उन्होंने सर्वप्रथम अपने गुरु नरहरि दास से ही सुनी। वे कहते हैं- मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकरखेत। समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहउ अचेत।
  वे कहते हैं कि उन्होंने अपने गुरु से सूकरखेत में यह कथा (रामकथा) सुनी पर उस समय बालपन था इसलिए समझ नहीं पाया।
जिस सूकरखेत का उल्लेख तुलसीदास ने यहां किया है वह वर्तमान  में उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले का सोरों नगर है। यह नैमिषारण्य तीर्थ के समीप हैं।
आज भी यह माना जाता है की रामचरित्र मानस ही वाल्मीकि जी के रामायण का अनुवाद है ।और हनुमान जी आज भी धरती पे रहते हुए श्री राम जी भक्ति करते है कहते है जहा रामजी के भजन गाये जाते है वहा  हनुमान जी अवश्य होते हैं।
तुलसीदास ऋषि वाल्मीकि के ही अवतार थे इसका उल्लेख भविष्योत्तर पुराण में भी मिलता है। उसमें एक श्लोक है-

   वाल्मीकिस्- तुलसीदासः कलौ देवि भविष्यति।              -       

  रामचन्द्रक- थामेतां भाषाबद्धां- करिष्यति॥

  इस श्लोक का अर्थ  यह है कि शिवजी पार्वती जी से कहते हैं कि हे देवि

वाल्मीकि कलियुग में तुलसीदास के रूप में अवतार लेंगे और सरल देशज

भाषा  रामकथा लिखेंगे।

एक उल्लेख यह भी मिलता है कि स्वयं ब्रह्मा ने वाल्मीकि से कहा था कि आप कलियुग में पुन:अवतार लीजिएगा और रामकथा को नये ढंग से सहज-सरल भाषा में

गायेंगे।


   तुलसीदास को संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिंदी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। अपने जीवनकाल में उन्होंने 12 ग्रंथ लिखे। 
वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस में बहुत सारे अन्तर हैं जिन्हें दोनों ग्रन्थ पढ़ने पर सरलता से देखा जा सकता है। इनमें से कुछ अन्तर इस तरह है...
सर्वप्रथम दोनों ग्रन्थों को लिखने की भावना में ही बहुत अन्तर है। ऋषि वाल्मीकि ने जहाँ मूलकथा को एक अवतार के रूप में बताने का प्रयत्न किया है, वहीं तुलसीदास ने श्रीराम की भक्ति में ग्रन्थ लिखा है। वाल्मीकि के राम देवताओं के हित के लिए विष्णु के अवतार हैं परन्तु तुलसीदास के राम स्वयं सर्वशक्तिशाली, अनादि, अनन्त ईश्वर हैं। स्वयंभुव मनु-शतरूपा तपस्या से राम को प्रसन्न कर उन्हें पुत्र रूप में पाने का वरदान माँगते हैं। तब प्रभु कहते हैं –आप सरिस कहं खोजहुं जाई। नृप तव तनय होब मैं आई। दूसरा अन्तर जो सभी जानते हैं, वह भाषा का है। रामायण कई शताब्दियों तक संस्कृत में पढ़ी-सुनी जाती रही, उसका अनुवाद दक्षिण भारत की अन्य भाषाओं में तो हुआ था परन्तु उत्तर भारत में नहीं। ऐसे में जब सम्पूर्ण भारत में इस्लाम का प्रचार-प्रसार हो रहा था, धर्मांतरण का बोलबाला था, तुलसीदास ने श्रीराम के सुराज्य के अर्थ को समझाने हेतु रामकथा को जनमानस की भाषा में कहने का बीड़ा उठाया। उन्होंने इसके लिए अवधी भाषा को चुना। वह अयोध्या में रहते थे और उन्होंने अयोध्या में ही इस ग्रन्थ को रामनवमी के दिन लिखना प्रारम्भ किया। उन्होंने अपने रामचरित मानस ग्रंथ में भी इसका उल्लेख इस तरह किया है-संवत् सोलह सौ इकतीसा। कहहुं कथा प्रभु पद धर सीसा। नौमी भौमवार मधुमासा। अवध पुरी यह चरित प्रकाशा।।
 वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास के रामचरित मानस के कथा-प्रसंगों में भी बहुत अंतर है. रामायण में केवट का कोई वर्णन नहीं हैं। रामचरितमानस में रामभक्ति में ऐसे प्रसंग जोड़े गए हैं। रामायण में निषादराज गुह भारद्वाज ऋषि के आश्रम में नहीं गए थे जबकि रामचरितमानस में वह राम के साथ ही आश्रम में जाते हैं।
       रामायण में राम को भारद्वाज ऋषि चित्रकूट में रहने का सुझाव देते हैं, रामचरितमानस में वाल्मीकि यह सुझाव देते हैं। इससे संबंधित चौपाई है-चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहं सब भांति तुम्हार सुपासू।।
    
      रामायण में सीता राम से मृग को पकड़ कर लाने के लिए कहतीं हैं जिसे वह अयोध्या ले जा सकें। रामचरितमानस में सीता मृगचर्म लाने को कहतीं हैं।
रामायण में लक्ष्मण को पहले ही सन्देह हो जाता है कि मृग रूप में मायावी मारीच ही होगा परन्तु रामचरितमानस में ऐसा नहीं है।
रामायण में मारीच मरते समय सीता और लक्ष्मण दोनों को पुकारता है परन्तु रामचरितमानस में केवल लक्ष्मण को पुकारता है।
रामचरितमानस में सीता का नहीं छायासीता का हरण होता है जबकि रामायण में ऐसा नहीं है।

ऐसे और भी कई अंतर वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास की रामचरित मानस में हैं।

तुलसीदास जी के जन्म-मरण के बारे में ये दोहे प्रचलित हैं।

पंद्रह सै चौवन विषै,कालिंदी (यमुना) के तीर,

सावन शुक्ला सप्तमी,तुलसी धरेउ शरीर।

गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म विक्रमी सम्वत् 1554 की श्रावण शुक्ल सप्तमी को

संवत सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर।श्रावण शुक्ला सप्तमी ,तुलसी तज्यो शरीर ॥

इस तरह से वह रामकथा गाकर जो आज पूरे विश्व में विख्यात है यह महाकवि अपनी इहलोक की लीला समाप्त कर परमधाम को सिधार गये। उनकी अमर कृति रामचरित मानस घर-घर में समादृत है। इसे धार्मिक प्रवृत्ति के लोग श्रद्धापूर्वक गाते हैं, इस पर आधारित रामकथा का मंचन रामलीला के रूप में करते हैं।

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