Sunday, May 16, 2021

कठिन संघर्ष से सफलता तक पहुंचे थे दुर्धष पत्रकार पांडेय जी

 


 


सन्मार्ग कोलकाता कार्यालय में लिये गये फोटो में बायें से दायें-हरिराम पांडेय, बुद्धिनाथ मिश्र जी, अभिज्ञात भाई, राजेश त्रिपाठी, (पीछे खड़े हुए) जयप्रकाश मिश्र, कमलेश पांडेय श्रवंतिका दास, अनुपम सिंह

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आदमी मुसाफिर है आता है जाता है, आते जाते रास्ते में यादें छोड़ जाता है। हाल ही हमें छोड़ गये भाई हरिराम पांडेय जी से जुड़ी कुछ यादें उपरोक्त पंक्तियों के साथ साझा कर रहा हूं। सचमुच अब उनकी यादें ही तो हैं जो हमारे दिलों में हमेशा उन्हें जिंदा रखेंगी। मैं यहां बताता चलूं की स्वभाव से अंतर्मुखी और जिनसे दिल, विचार मिलते हैं उनसे ही सहज हो पाता हूं या हिल-मिल पाता हूं। ऐसे लोगों में हमारे पांडेय जी भी शुमार थे। सच कहता हूं आज उन्हें थे लिखते हुए भी दिल में हूक-सी उठती है। मेरा नियम है कि मैं सुबह सबसे पहले अपना फेसबुक एकाउंट देखता हूं कि कहीं किसी ने अवांक्षित पोस्ट तो नहीं टैग कर दिया तो उसे पहले साफ कर दूं। इसी क्रम में 13 मई को भी जब मैं फेसबुक देख रहा था तभी मेरी नजर सुरेंद्र सिंह जी के एक लाइन वाले फेसबुक पोस्ट पर पड़ी तो दिल धक से रह गया। लिखा था हम सबके प्रिय हरिराम जी पांडेय नहीं रहे। बरबस रोना आ गया, विश्वास नहीं हो रहा था खबर पक्की है या नहीं जानने के लिए मैंने हरिराम पांडेय जी के बड़े पुत्र डाक्टर प्रशांत पांडेय जी को फोन किया, मैं सुबक रहा था, गला रुंध रहा था मेरी स्थिति भांप वे भी बिलख पड़े और बस इतना ही बोल पाये-हां अंकल पापा चले गये। जाहिर है उसके बाद का मेरा लंबा समय सुबकते बीता। जिस व्यक्ति के पास बैठ आपने कार्यालय में वर्षों काम किया हो, हंसे बोले हों उसका जाना अगर आपको रुला ना सके तो फिर आपको स्थितिप्रज्ञ ही कहेंगे। खैर नियति के आगे हम सभी हारे हैं और इस दुख को स्वीकारने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।

मुझसे उनकी जो यादें जुड़ी हैं उनमें विस्तार से जाने के पहले यह बताता चलूं कि वे सबको समान आदर देते थे। मुझे वे राजेश जी या त्रिपाठी जी नाम से ही संबोधित करते रहे। हां, एक बार मुझे भी उनके साथ राममंदिर के पास वाली गली में केसर वाली चाय पीने का अवसर मिला था।

उनसे मेरी पहली मुलाकात छपते छपते अखबार के कार्यालय में हुई थी। तब मैं आनंद बाजार प्रकाशन समूह के हिंदी साप्ताहिक रविवार में उप संपादक था। बाद में पांडेय जी सन्मार्ग में आ गये। इसे आत्मश्लाघा ना माना जाये यह तथ्य है कि उन्हें सन्मार्ग में लाने में प्रमुख भूमिका मेरे बड़े भैया रामखिलावन त्रिपाठी रुक्म जी की थी। पांडेय जी अक्सर इस बात को स्वयं लोगों से कहा करते थे कि सन्मार्ग में उनका प्रवेश रुक्म जी की वजह से हुआ। आज के स्वार्थी और सुविधावादी युग में इतना मानना भी बड़ी बात थी।

पांडेय जी चर्चा में अक्सर यह जिक्र करते थे कि वे रांची में कन्वेंट में पढ़ते थे तो वहां उनके अध्यापक फादर कामिल बुल्के थे जो बच्चों को हिंदी बोलने को प्रोत्साहित करते थे। वे गाहे-बगाहे अपने पिता जी का भी जिक्र करते थे जो आजादी के समय पुलिस सेवा में थे। उनसे जुड़ी विचित्र और रोमांचित कर देने वाली कथाएं वे सुनाते थे। मैं उनसे बार-बार अनुरोध करता कि पिता जी से जुड़ी कुछ घटनाएं वे अपने ब्लाग या फेसबुक में साझा करें ताकि आज की पीढ़ी को भी पता चल सके कि कैसा था वह समय और उस समय के लोग। यह अनुरोध अपूर्ण ही रह गया। अपने श्वसुर शिक्षाविद बी.बी. मिश्र जी का भी वे जिक्र किया करते थे कि वे यूनिवर्सिटी आफ लंदन में पढ़ाते हैं और लंदन में ही बस गये हैं। वे अक्सर कहते-श्वसुर जी वहां अकेले हैं बहुत उम्र हो गयी मैं तो नहीं जाऊंगा बंटी (डाक्टर प्रशांत पांडेय का पुकारू नाम) को भेज कर उन्हें यहां बुलवा लेंगे। लेकिन वह भी संभव नहीं हो सका बी.बी. मिश्र जी साल भर पहले गुजर गये।

उस वक्त जब उनसे पूछा कि –बंटी भैया को क्यों  भेजेंगे आप क्यों नहीं जायेंगे तो वे बोले मुझे वे पसंद नहीं करते मैं पत्रकार हूं ना।

उनसे पूछा-पत्रकार होना गुनाह है क्या। तो उनका जवाब था कि श्वसुर जी कहते हैं पत्रकार बनना क्या जरूरी था और कुछ नहीं कर सकते थे।

अब उनके एक और प्रसंग पर आते हैं। यह बात भी उन्होंने ही सुनायी थी सच है या झूठ कह नहीं सकता पर उनके कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि वह सच लगे। एक दिन उन्होंने बताया-त्रिपाठी जी रात की ड्यूटी कर के मैं सोया ही था कि अपने ही कार्यालय का एक व्यक्ति आया और मुझे झिंझोड़ कर जगाया। मुझे लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गया। मैंने हकबका कर पूछा- क्या हुआ, वह व्यक्ति बोला-अच्छा पांडेय जी अगर टार्च में बैटरी की जगह यूरेनियम भर दिया जाये तो क्या होगा। पांडेय जी ने बताया कि उन्हें इतना गुस्सा आया कि वे कह नहीं सकते। वे गुस्से को पीकर इतना भर बोले- टार्च का तो मैं नहीं जानता पर यूरेनियम रखने के जुर्म में तुम जेल में होगे।

वे सचमुच खोजी पत्रकार थे और उनकी हर स्टोरी चौंकानेवाली होती थी और कई सवाल खड़ी करती थी। कई बार लगता  था कि इस स्टोरी पर तो बवाल पक्का है। लेकिन कुछ नहीं होता था क्योंकि वे हर स्टोरी पर महीनों काम करते, सारे डाक्युमेंट जुटाते तब उसे छपने को देते थे। उनके बारे में तो सन्मार्ग के ही कुछ साथियों ने बताया था कि एक स्टोरी के तथ्य खोजने के लिए उन्होंने एक सामान्य मजदूर के रूप में रह कर वहां काम तक किया जहां खाद्य तेल में मिलावट की बात सुनने में आयी थी। यह उनका दुस्साहस ही था क्योंकि भेद खुल जाने में जान तक जाने का भय था।

कालांतर में मैं सन्मार्ग के ओडिशा संस्करण का स्थानीय संपादक बना और भुवनेश्वर में जाकर काम संभालने लगा। अगर कोई बड़ी स्टोरी हमारे कोलकाता संस्करण में छपती थी तो वह ओडीशा संस्करण में भी ली जाती थी। ऐसी ही पांडेय जी की स्टोरी छपी तो कटक (ओडीशा) से खुफिया विभाग का फोन मेरे पास आया और उनका पहला सवाल था-यह स्टोरी आपको कहां से मिली।हमें इसका डिटेल चाहिए।

मैंने जवाब दिया-यह स्टोरी हमारे मुख्यालय कोलकाता से ओरिजिनेट हुई है। मैं थोड़ी देर बाद इसका विस्तृत विवरण दे पाऊंगा।

इसके बाद मैंने पांडेय जी को फोन किया-अरे महाराज, क्या बवाल मचाये हैं, आपकी स्टोरी पर कटक के खुफिया विभाग से फोन आ गया वे पूरा डिटेल चाहते हैं।

इस पर पांडेय जी ने कहा-मेरा नंबर दे दीजिए बात कर लेते हैं, मेरे पास इससे संबंधित सारे डाक्युमेंट हैं।

यादें तो बहुत हैं, वर्षों उनके बगलवाली सीट में बैठ कर काम किया। कंप्यूटर के बारे में वे उतने स्पर्ट नहीं थे पास बैठता था मुझसे जो बन पड़ती सहायता कर देता था।खुश होते और कहते-त्रिपाठी जी आपने मेरी मुश्किल दूर कर दी।

मैं उनसे कहता ठीक से सीख लीजिए और वे सचमुच सीखने का आग्रह दिखाते।

उनसे जुड़ी तमाम यादें हैं जिन्हें थोड़े में समेटना आसान नहीं। मैंने जब सत्यनारायण व्रत कथा को गीत में ढाला और उसे बुंदेलखंड की कन्हैया कैसेट कंपनी ने संगीतबद्ध कर यूट्यूब में डाला तो पांडेय जी के पास भी वीडियो भेजा। उन्होंने मुझे बताया कि वह वीडियो उन्होंने अपने परिचितों,रिश्तेदारों तक भेज दी है। मैंने सोचा था कि मेरा मन रखने के लिए, मुझे प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने यह बात कही होगी लेकिन उनके छोटे बेटे गौरव पांडेय (गोलू) के विवाह के रिसेप्शन में जब मैं गया तो उन्होंने अपने परिचितों और रिश्तेदारों से यह कह कर ही परिचय कराया-यही हैं सत्यानारायण वाले हमारे राजेश त्रिपाठी।

उन लोगों ने जिस मुसकान और प्रेम के साथ मेरा अभिवादन किया उससे प्रमाणित हो गया कि पांडेय जी ठीक ही कह रहे थे।

थोड़े शब्दों में कहें तो पांडेय जी अपनी मिसाल आप थे।  उन्होंने जीवन में बड़ा संघर्ष किया और अपने अध्यवसाय से सफलता, लोकप्रियता के शीर्ष तक पहुंचे। वे हमेशा हमारी यादों में जिंदा रहेंगे। लिखा तो बहुत जा सकता है पर अपनी इन दो पंक्तियों से इस स्मृति-यात्रा को विराम देता हूं कि-माना कि किसी के जाने से दुनिया खत्म नहीं होती। पर इससे जाने वाले की अहमियत तो कम नहीं होती।

1 comment:

  1. आपने बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है. ऐसे ही आप अपनी कलम को चलाते रहे. Ankit Badigar की तरफ से धन्यवाद.

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