Thursday, May 20, 2021

भरतकूप में स्नान करने से मिलता है सब तीर्थों का फल, मिटते हैं रोग



उत्तर प्रदेश के चित्रकूट धाम जिले में है पावन तीर्थ भरतकूप। नाम से ही स्पष्ट है कि इस स्थान का किसी ना किसी तरह से भगवान राम के भ्राता भरत से संबंध है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बांदा जिला है। बांदा से सड़क पथ से पावन धाम चित्रकूट की ओर जाते वक्त मार्ग में पड़ता है भरतकूप जो एक पावन तीर्थस्थल है। यहां यों तो रोज ही तीर्थयात्रियों की भीड़ रहती है लेकिन मकर संक्रांति के दिन यहां बड़ा मेला लगता है और दंगल का भी आयोजन किया जाता है।इसके अतिरिक्त प्रति रविवार को और हर सप्तमी को यहां तीर्थयात्रियों का समागम होता है। मान्यता है कि भरतकूप का जल चामत्कारिक है। इससे स्नान करने पर सभी तीर्थों का पुण्य तो मिलता ही है साथ ही अनेक रोगों से भी मुक्ति मिलती है। मकर संक्रांति के दिन इस कूप के जल से स्नान करने से विशेष पुण्य फल मिलता है क्योंकि इस कूप में सभी तीर्थों और पवित्र नदियों का जल समाहित है। यहां यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि 2020 में अयोध्या में हुए रामजन्मभूमि मंदिर के शिलान्यास के भूमिपूजन के लिए भरतकूप से भी जल ले जाया गया था। 

लोगों की ऐसी आस्था है कि जो भी सप्तमी रविवार और मकर संक्रांति पर स्नान करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस भरतकूप का संबंध भगवान राम के वनवास काल में चित्रकूट में सर्वाधिक समय बिताने और उन्हें मनाने चित्रकूट आये भाई भरत से है। 

जिस समय कैकेयी के हठ के चलते राजा दशरथ उनकी इच्छानुसार राम को वन भेजने को राजी हुए और उसके चलते उनके प्राण गये उस वक्त भरत और शत्रुघ्न अपनी ननिहाल तत्कालीन केकय राज्य (जिसे कैकेय, कैकस या कैकेयस नाम से भी जाना जाता है) में थे जो अविभाजित पंजाब से उत्तर पश्चिम दिशा में था। वे अयोध्या में होनेवाली घटनाओं से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे। वहां भरत ने एक सपना देखा। पर उसका अर्थ पूरी तरह नहीं समझ पा रहे थे। वैसे सपना देख कर वे बुरी तरह से डर गये। अपने मित्रों से उन्होंने सपने के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि-  मैंने  देखा  कि  समुद्र  सूख  गया। चंद्रमा धरती पर गिर पड़ा। वृक्ष सूख गए।एक राक्षसी हमारे पिता दशरथ को खींचकर ले जा रही है।वे रथ पर बैठे हैं। रथ गधे खींच रहे हैं। ̧जिस  समय  भरत  मित्रों  को  अपना सपना सुना रहे थे, ठीक उसी समय अयोध्या से घुड़सवार दूत वहाँ पहुँचे। दूत ने भरत को तुरत अयोध्या लौटने का संदेश दिया। संदेश पाते ही वे तत्काल अयोध्या  जाने के  लिए  तैयार  हो  गए। ननिहाल में भरत का मन नहीं लग रहा था। वे अयोध्या पहुँचने को उतावले थे। उनके नाना कैकयराज ने भरत को विदा किया। उनके साथ सौ रथ और सेना भी कर दी। आठ दिन की लंबी यात्रा के बाद वे अयोध्या पहुँचे। भरत  ने  अयोध्या  नगरी  को  दूर  से देखा।  नगर  उन्हें  सामान्य  नहीं  लगा।बदला-बदला सा था। उनका हृदय किसी अनिष्ट की आशंका से भर गया। नगर पहुँचते ही भरत सीधे राजभवन गए। वे महाराज दशरथ के प्रासाद की ओर गये।महाराज वहाँ नहीं थे। फिर वे कैकेयी के महल की ओर गये। कैकेयी ने बेटे को गले से लगा लिया। भरत की आंखें तो पिता को ढूंढ़ रही थीं। उन्होंने माँ से पूछा तो कैकेयी ने बताया कि पुत्र तुम्हारे पिता का निधन हो गया है। ̧भरत यह सुनते ही शोक में डूब गए।पछाड़ खाकर गिर पड़े। विलाप करने लगे। जब उन्हें पूरी घटना का पता चला तो अपनी मां पर उन्हें बहुत क्रोध आया। मां ने उन्हें राजपाट दिलाने का जो रास्ता अपनाया था उसके लिए उन्होंने मां को बहुत खरीृखोटी सुनायी। उन्होंने माता कौशल्या से जाकर अपने मां के किये की क्षमा मांगी, कौशल्या ने उन्हें क्षमा कर दिया। भरत ने निश्चय किया कि वे चित्रकूट जायेंगे और राम को मना कर अयोध्या वापस लाकर उनको उनका राज्य सौंप देंगे और स्वयं उनके दास बन कर रहेंगे। उन्होंने गुरु वशिष्ठ और अन्य वरिष्ठ जनों से अपनी इच्छा बतायी सब उनके प्रस्ताव से सहमत हो गये और कुछ नगरवासियों गुरु वशिष्ठ रानियों और सेना के साथ भरत चित्रकूट पहुंचे। वे अपने साथ सभी तीर्थों का जल और अभिषेक के लिए पावन सामग्री भी ले गये थे ताकि अगर राम वापस लौटने को तैयार हो जायें तो वे चित्रकूट में ही उनका राज्याभिषेक कर उन्हें अयोध्या वापस ले आयेंगे। अपने निश्चय के अनुसार वे चित्रकूट पहुंचे उनके साथ सेना, मंत्री, सभासद व अन्य जन थे। दूर से सेना आते देख निषादराज गुह और लक्ष्मण को संदेह हुआ कि भरत राम पर आक्रमण करने तो नहीं आ रहे हैं।  निषादराज आगे बढ़ कर भरत से मिले और सारी बात का पता चला तो वे निश्चिंत हो गये और सभी को वहां ले गये जहां राम, लक्ष्मण, सीता रहते थे। उन्होंने उनसे भरत के आने का कारण बताया। 

भगवान राम, लक्ष्मण और सीता चित्रकूट में कामद गिरि पर्वत पर्णकुटी बना कर रहते थे। राम ने भरत को आते देखा तो दौड़ कर गये और उन्हें गले लगा लिया। जनश्रुति है कि दोनों भाइयों का अगाध प्रेम देख पत्थर की शिला तक पिघल गयी और उन पर दोनों भाइयों के चरण चिह्न अंकित हो गये। चित्रकूट में कमादगिरि की परिक्रमा में शिला पर आज भी राम भरत मिलाप के चिह्न देखे जा सकते हैं। भरत ने राम को पिता दशरथ के निधन की खबर दी तो वे शोकाकुल हो गये राम, लक्ष्मण और सीता। राम गुरु वशिष्ठ, मंत्रियों, सभासदों, वरिष्ठ जनों और माताओं से भी मिले।

अगले दिन भरत ने राम से आग्रह किया कि वे अपने साथ राज्याभिषेक की सारी सामग्री लाये हैं। राम उनको राज्याभिषेक करने की अनुमित दें और फिर अयोध्या लौट कर अपना राज्य संभालें। राम इसके लिए तैयार  नहीं  हुए। उन्होंने कहा कि उनके लिए पिता की आज्ञा का पालन करना ही अनिवार्य और सर्वोपरि है। अब जब पिता ने अपने वचन के लिए ही प्राण त्याग दिये तब मैं उनके वचनों के पालन के बिना अयोध्या नहीं लौटूंगा। राम ने भरत को राजकाज समझाया। कहा कि अब तुम्हीं राज्य सँभालो। यह पिता की आज्ञा है। 

भगवान राम के उनके साथ अयोध्या न लौटने पर भाई भरत दुखी हो गये उनके मस्तिष्क पर  यह प्रश्न उठा कि राज्याभिषेक के लिए लाये गये सभी तीर्थों के  जल और सामग्री का क्या किया जाये।

इस पर सती अनुसुइया के पति अत्रि ऋषि ने परामर्श दिया की इसे चित्रकूट के पास ही एक पवित्र कुएं में समर्पित कर दिया जाये। भरत ने वैसा ही किया और तभी से यह कुआं पावन तीर्थस्थल बन गया और इसका नाम भरत जी पर ही भरतकूप हो गया। तुलसीदास कृत रामचरित मानस में कुछ इस तरह से उल्लेख मिलता है-

 अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।

राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप॥

इसका अर्थ यह है कि- अत्रिजी ने भरतजी से कहा कि इस पर्वत यानी कामद गिरि के समीप ही एक सुंदर कुआँ है। इस पवित्र, अनुपम और अमृत जैसे तीर्थजल को उसी में स्थापित कर दीजिए॥

 पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा॥

तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू॥2

इसका अर्थ यह है कि उस पवित्र जल को उस पुण्य स्थल में रख दिया। तब अत्रि ऋषि ने प्रेम से आनंदित होकर ऐसा कहा- हे तात! यह अनादि सिद्धस्थल है। कालक्रम से यह लोप हो गया था, इसलिए किसी को इसका पता नहीं था॥2॥

इस कूप के बारे में कहा गया-

 भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा॥

प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी॥4॥

अर्थात अब इसको लोग भरतकूप कहेंगे। तीर्थों के जल के संयोग से तो यह अत्यन्त ही पवित्र हो गया। इसमें प्रेमपूर्वक नियम से स्नान करने पर प्राणी मन, वचन और कर्म से निर्मल हो जाएँगे॥

यहां विराजमान हैं राम-सीता की मूर्तियां यहां पर बना भरतकूप मंदिर भी अत्यंत भव्य है। इस मंदिर में भगवान राम, सीता, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघन की मूर्तियां विराजमान है। सभी प्रतिमाएं धातु की हैं। अब  आप जो वीडियो देख रहे हैं उसमें भरतकूप की पुजारन मां वहां के मंदिर और उनमें स्थापित मूर्तियों के बारे में बता रही हैं।

वास्तुशिल्प के आधार पर मंदिर काफी प्राचीन है। माना जाता है कि बुंदेल शासकों के समय में मंदिर का निर्माण हुआ था। कुएं में नहाने से असाध्य रोग हो जाते हैं। 

 '' इस कूप में स्नान करनेवाला भगवान राम के  प्रताप से मृत्यु के पश्चात स्वर्गगामी होता है और मोक्ष को प्राप्त करता है।'' मकर संक्रांति में यहां लाखों लोग आते हैं।यहां मकर संक्रांति के मौके पर यहां 5 दिन मेला लगता है,

इस कुएं में स्नान कर तीर्थयात्री पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं। वैसे हर अमावस्या में भी यहां पर श्रद्धालु स्नान करने के बाद चित्रकूट जाते हैं और फिर मंदाकिनी में स्नान करते हैं।

अत्रि मुनि की आज्ञा अनुसार जल को कूप में स्थापित करने के बाद

 कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।

अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ॥

भावार्थ:-कूप की महिमा कहते हुए सब लोग वहाँ गए जहाँ श्री रघुनाथजी थे। श्री रघुनाथजी को अत्रिजी ने उस तीर्थ का पुण्य प्रभाव सुनाया॥

 कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती॥

नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई॥1॥

भावार्थ:-प्रेमपूर्वक धर्म के इतिहास कहते वह रात सुख से बीत गई और सबेरा हो गया। भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई नित्यक्रिया पूरी करके, श्री रामजी, अत्रिजी और गुरु वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर,॥1॥

 सहित समाज साज सब सादे। चले राम बन अटन पयादे॥

कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं॥2॥

भावार्थ:-समाज सहित सब सादे साज से श्री रामजी के वन में भ्रमण (प्रदक्षिणा) करने के लिए पैदल ही चले। कोमल चरण हैं और बिना जूते के चल रहे हैं, यह देखकर पृथ्वी मन ही मन सकुचाकर कोमल हो गई॥

 कुस कंटक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं॥

महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे॥

भावार्थ:-कुश, काँटे, कंकड़ी, दरारों आदि कड़वी, कठोर और बुरी वस्तुओं को छिपाकर पृथ्वी ने सुंदर और कोमल मार्ग कर दिए। सुखों को साथ लिए (सुखदायक) शीतल, मंद, सुगंध हवा चलने लगी॥3॥

 सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं॥

मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी॥

भावार्थ:-रास्ते में देवता फूल बरसाकर, बादल छाया करके, वृक्ष फूल-फलकर, तृण अपनी कोमलता से, मृग (पशु) देखकर और पक्षी सुंदर वाणी बोलकर सभी भरतजी को श्री रामचन्द्रजी के प्यारे जानकर उनकी सेवा करने लगे॥

दोहा :

 सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।

राम प्रानप्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात॥

भावार्थ:-जब एक साधारण मनुष्य को भी (आलस्य से) जँभाई लेते समय 'राम' कह देने से ही सब सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं, तब श्री रामचन्द्रजी के प्राण प्यारे भरतजी के लिए यह कोई बड़ी (आश्चर्य की) बात नहीं है॥

चौपाई :

 एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं॥

पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा॥1॥

भावार्थ:-इस प्रकार भरतजी वन में फिर रहे हैं। उनके नियम और प्रेम को देखकर मुनि भी सकुचा जाते हैं। पवित्र जल के स्थान (नदी, बावली, कुंड आदि) पृथ्वी के पृथक-पृथक भाग, पक्षी, पशु, वृक्ष, तृण (घास), पर्वत, वन और बगीचे-॥

 देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।

कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ॥

भावार्थ:-भरतजी ने पाँच दिन में सब तीर्थ स्थानों के दर्शन कर लिए। भगवान विष्णु और महादेवजी का सुंदर यश कहते-सुनते वह (पाँचवाँ) दिन भी बीत गया, संध्या हो गई॥

भरत बार-बार राम से लौटने का आग्रह करते रहे। राम हर बार पूरी विनम्रता और दृढ़ता के साथ इसे अस्वीकार करते रहे। भरत निराश हो गये। जब राम लौटने को तैयार नहीं हुए तो भरत ने भी कहा- मैं भी खाली हाथ नहीं जाऊँगा। आप मुझे अपनी खड़ाऊँ दे दें। मैं चौदह वर्ष उसी की आज्ञा से राजकाज चलाऊंगा। ̧भरत का यह आग्रह राम ने स्वीकारकर लिया। अपनी खड़ाऊँ दे दी। भरतने  खड़ाऊं  को  माथे  से  लगाया  और कहा,चौदह वर्ष तक अयोध्या पर इन चरण-पादुकाओं का शासन  रहेगा। ' 

भगवान राम की खड़ाऊ लेकर भरत अयोध्या लौट गए। वहां राम की खड़ाऊं सिंहासन पर स्थापित कर स्वयं अयोध्या नगर के बाहर नंदीग्राम में एक कुटी बना कर संन्यासियों की तरह तपस्या और राम के लौटने की प्रतीक्षा करने लगे।

भरतकूप टीन के शेड से ढका हुआ है। ताकि इसमें कोई भी पत्ता ना गिरे। भरतकूप के पास एक बाल्टी भी रखी रहती है।  इस बाल्टी को आप कुएं में डाल कर पानी निकाल सकते हैं और आपके पास जो भी बर्तन हो, या प्लास्टिक की बोतल हो आप उसमें भर सकते हैं। लोग इस जल को अपने साथ ले जाते हैं।

  यहां पर एक बड़ा सा पीपल का वृक्ष है। पीपल के वृक्ष के नीचे ही भरतकूप स्थित है। यहां पर आकर बहुत अच्छा लगता है। बहुत शांति मिलती है। 

तकरीबन दो हजार साल पहले बुंदेले शासकों के समय में निर्मित पौराणिक भरतकूप मंदिर जल्द ही नए स्वरूप में नजर आएगा। मंदिर को पर्यटकों और श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केंद्र बनाने के लिए काम शुरू हो गया है। पहली बार राजा छत्रसाल ने मरम्मत कराई थी।

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