आनंद बाजार पत्रिका प्रकाशन समूह के पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मचारियों की हिम्मत
और जज्बे के जोर से 51 दिन व्यापी लंबी हड़ताल तो टूट गयी लेकिन इसे हड़ताली
कर्मचारियों ने अपनी हार के तौर पर लिया। यह उन्हें कतई बरदाश्त नहीं था कि उनका
लंबा आंदोलन इस तरह से ध्वस्त कर दिया जाये। उन्होंने अपना आंदोलन जारी रखने का
निर्णय लिया। काम पर लौटने के बजाय वे आनंद बाजार कार्यालय से चंद कदम की दूरी पर
स्थित हिंदुस्तान ब्लिडिंग के सामने धरना देकर बैठ गये। ड्यूटी ज्वाइन करने के बजाय
वे आंदोलन करते रहे। अपने ही संस्थान के खिलाफ उनकी नारेबाजी जारी रही। इतना ही
नहीं जो महिला पत्रकार हड़ताल भंग होने के दिन कार्यालय में प्रवेश नहीं कर पायी
थीं वे अगले दिन से ड्यूटी ज्वाइन करने आतीं तो हड़ताली कर्मचारी उन्हें भी धमकाते।
आनंद बाजार पत्रिका हड़ताल टूटने के बाद से लगातार छपने लगी थी लेकिन उसके वितरण
में भी बाधा डालने की कोशिश की जा रही थी। इस पर कई राजनीतिक दलों के नेताओं ने
अभीक सरकार से संपर्क किया और कहा कि हम अपने कार्यकर्ताओं की मदद से अपने-अपने
इलाके में आनंद बाजार पत्रिका का वितरण बिना बाधा के करवा सकते हैं। अभीक सरकार
इसके लिए राजी नहीं हुए और उन्होंने कहा कि इस परेशानी से हम खुद निपटेंगे। हड़ताली
काम पर नहीं लौटे और उन्होंने किसी ना किसी तरह से उत्पात और बाधा डालते रहे। जहां
तक प्रबंधन का प्रश्न है उनकी कोशिश अपने कर्मचारियों को हर संभन सहायता पहुंचाने
का भरसक प्रयत्न रहा। सुबह का नाश्ता, दिन और रात का भोजन हम सबको निरंतर मिल रहा
था। इसमें भी बाधा पहुंचाने की कोशिश बराबर जारी रही। हड़ताली कर्मचारी रास्ते में
उन गाड़ियों पर हमला करते जो आनंद बाजार प्रकाशन के कर्मचारियों के लिए भोजन बनाने
का सामान चावल. साग-सब्जी आदि लाती थीं। इसके बावजूद प्रबंधन डिगा नहीं।
कर्मचारियों को रोजाना मिलनेवाले नाश्ते, दो वक्त के भोजन में एक दिन का भी व्यवधान
नहीं आया। * हम लोग रविवार के अगले अंकों के लिए मैटर तैयार करने में जुटे थे। दिन
तो किसी ना किसी तरह से कट जाता था मुश्किल रात को आती थी। दूसरों की नहीं जानता
मेरी बड़ी खराब आदत यह है कि अपरिचित जगह में मुझे कतई नींद नहीं आती। हड़ताल टूटने
के बाद से ही रोज रात का एक अजीब सिलसिला बन गया था। जब आधी रात होती और हम अलसायी
आंखों से ऊंघते होते उस वक्त हड़ताली आकर मेन गेट का बंद शटर जोर जोर से पीटने
लगते। इसे सुन कर अंग्रेजी साप्ताहिक ‘संडे’ के पत्रकार तुषार पंडित हर डिपार्टमेंट
में दौड़े आते और कहते- सावधान आक्रमण आक्रमण। जाहिर है इसके बाद से दहशत का माहौल
रहता। सबकी नींद काफूर हो जाती। यह रोज का सिलसिला बन गया था। इस सांसत के बीच थी
हमारी जिंदगी। इसी तरह हफ्तों तक चलता रहा। इस तरह के माहौल में रहने जीने का पहले
कभी मौका नहीं मिला था। कुछ दिन बाद ही मेरी तबीयत खराब होने लगी। फिर बुखार आ गया।
मेरी यह स्थित देख कर हमारे संपादक एस पी सिंह जी ने मेरे बड़े भैया को फोन कर के
कहा कि-आप भाई को ले जाइए वैसे भी अभी यहां कोई विशेष काम नहीं हो रहा। यह ठीक हो
जायेंगे और स्थितियां सामान्य हो जायेंगी तो हम इन्हें बुला लेंगे। एस पी सिंह ने
मेरे भैया को समझा दिया था कि वे ओरिएंट सिनेमा की गली की तरफ से टैक्सी लेकर आयें
और प्रेस के गेट पर रुक जायें। भाई राजेश को उधर से ही निकालेंगे सामने हड़ताली
बाधा पहुंचा सकते हैं। भैया ने वैसा ही किया और मैं घर लौट आया। घर लौट कर डाक्टर
को दिखाया और उनकी दवा से एक हफ्ते में बुखार ठीक हो गया। मैंने एस पी सिंह जी को
फोन किया और कहा-भैया बुखार तो उतर गया है पर कमजोरी है। आप जैसा कहें वैसा करूं।
उधर एस पी सिंह जी का जवाब आया-अभी कोई विशेष काम तो हो नहीं रहा आप आराम कीजिए जब
स्थितियां थोड़ा अनुकूल होंगी हम बुला लेंगे। * दो हफ्ते बाद स्थितियां धीरे-धीरे
अनुकूल होने लगीं। जब हड़ताली कर्मचारी आनंदबाजार पत्रिका का महानगर में वितरण और
रेल द्वारा दूसरी जगह जाने को रोकने में असफल रहे को धीरे-धीरे उनका हौसला भी पस्त
होने लगा। अब उनको अपनी नौकरी जाने का भय भी सताने लगा था। स्थितियां अनुकूल होने
पर एस पी सिंह ने मुझे भी कार्यालय बुला लिया। अब स्थिति यह बनी कि हम सुबह ड्यूटी
टाइम में आफिस जाने और शाम को अवकाश के बाद घर वापस आने लगे। आनंद बाजार संस्थान
में स्थितियां सामान्य हुईं और दैनिक आनंद बाजार पत्रिका का प्रकाशन और वितरण
सामान्य हुआ तो एक और बड़ी घटना हुई। संस्थान के द्वार पर यह नोटिस चिपका दी गयी कि
जो हड़ताली कर्मचारी सात दिन के अंदर अपनी ड्यूटी ज्वाइन नहीं करेंगे उनकी सेवाएं
समाप्त कर दी जायेंगी। इस नोटिस से हड़तालियों में हड़कंप मच गया। उनमें से जो अपने
गांव चले गये थे उन्हें उनके साथियों की ओर से सूचना भेजी गयी कि जल्दी लौटो वरना
नौकरी चली जायेगीऑ। जिस दिन हड़ताली कर्मचारियों ने आनंदबाजार कार्यालय में प्रवेश
किया उस दिन का दृश्य भी अजीब था। जब हड़ताली कर्मचारी कार्यालय में प्रवेश कर रहे
थे तो अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका संडे के संपादक एमजे अकबर बहुत खफा हो गये। वे उन
सीढ़ियों पर खड़े हो गये जिससे हड़ताली चढ़ कर ऊपर आ रहे थे। अकबर जोर-जोर से चीख
कर कर रहे थे-इन लोगों ने काम रक आनेवाली हमारी महिला पत्रकारों को धमकाया और
अपशब्द कहे। मैं इन्हें भीतर नहीं आने दूंगा। पास खड़े मालिक अभीक सरकार उनसे
अनुरोध कर रहे थे-अकबर साहब इनसे भूल हुई, इन्हें माफ कर दीजिए। अपने ही कर्मचारी
हैं कहां जायेंगे। अकबर ने कहा-नहीं कभी नहीं। अगर ये यहां रहेंगे तो फिर मैं
इस्तीफा दे देता हूं। आर रख लो इन्हें। अभीक सरकार के बहुत समझाने पर अकबर नरम पड़े
और हड़ताली कर्मचारी काम पर लौट आये। (क्रमश:)
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