आनंद बजार प्रकाशन समूह में कर्मचारियों की हड़ताल समाप्त होने के कुछ दिन बाद ही प्रकाशन की साप्ताहिक हिंदी पत्रिका ‘रविवार’ ने फिर पहले जैसी गति पकड़ ली। अरसे बाद नयूजपेपर स्टैंड पर आयी अपनी प्रिय पत्रिका को लोगों ने हाथों हाथ लिया। मैं रविवार से जुड़ा था इसलिए उसकी प्रशंसा कर रहा हूं ऐसी बात नहीं है। उन दिनों के जो भी पाठक बड़ी उत्सुकता से इसके नये अंकों की प्रतीक्षा करते थे वे भी मेरी इस बात से सहमत होंगे कि उस समय रविवार जैसी निर्भीक और साहसी पत्रिका कोई और नहीं थी। मै पहले ही लिख चुका हूं कि एसपी सिंह ने हिंदी पत्रकारिता में रविवार के माध्यम से जो न दैन्यम् न पलायनम् का आदर्श प्रस्तुत किया वह अतुलनीय था। उनकी पत्रकारिता ने अपने कर्तव्य निर्वहन में ना कभी दीनता दिखायी ना किसी सत्ता के भय से किसी मुद्दे को उठाने से ही हिचक दिखायी। सच को सच की तरह प्रस्तुत करना ही उस समय रविवार की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण था।
कुछ दिन सब सामान्य चलता रहा फिर कार्यालय में हमारे सहकर्मियों के बीच सुगबुगाहट शुरू हुई कि सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी हमारे एसपी दा आनंद बाजार ग्रुप को छोड़ कर टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप ज्वाइन करने जा रहे हैं। जब यह चर्चा जोरों से चलने लगी तो लगा कि क्यों ना इस खबर की सच्चाई का पता एसपी साहब से ही लगा लिया जाये। यहां यह बताता चलूं कि मैं बिना किसी जरूरी प्रयोजन के एसपी के चैंबर में नहीं जाता था हालांकि हमारे कुछ साथी अक्सर उनके चैंबर घुस जाते और देर तक बातें करते रहते थे।
एक दिन मैंने जब देखा कि एसपी कुछ खाली होंगे तो मैं उनके चैंबर में पहुंचा और उनको नमस्कार किया।
एसपी ने कहा-बैठिए राजेश जी।
मै उनके सामने की कुर्सी पर बैठ गया।
एसपी बोले-कुछ कहना है राजेश जी।
मैं बोला-कहना नहीं पूछना है। मैंने सुना है आप हम लोगों का साथ छोड़ कर टाइम्स ग्रुप में जा रहे हैं। क्या यह सच है।
एसपी बोले-हां राजेश जी यह सच .है।
उनकी बात सुन कर मेरा चेहरा उतर गया।
मैं बोला-भैया आपसे पत्रकारिता के बारे में कितना कुछ सीखा, आपके नेतृत्व में काम करते हुए हम कितने गौरवान्वित थे कि हम एक ऐसे संपादक के साथ काम करते हैं जिसके लिए पत्रकारिता एक पेशा नहीं मिशन है। आपके बाद क्या होगा।
मेरे चेहरे की उदासी एसपी की पारखी नजर ने पढ़ ली थी।
वे मुझे ढाढस बंधाते हुए बोले-राजेश जी चिंता की कोई बात नहीं रविवार निकलता रहेगा। मैं नहीं तो कोई और संपादक आयेगा पत्रिका को और बेहतर निकालेगा।
मैं बोला-मैं जानता हूं आप मुझे यह ढांढस बंधाने के लिए कह रहे हैं। हो सकता है कोई और आये पत्रिका भी निकलती रहे लेकिन क्या गारंटी है कि इसका वह तेवर बरकरार रहे जो इसे एसपी सिंह ने दिया है।
एस पी बोले-नहीं ऐसी कोई बात नहीं। वैसे निराश क्यों होते हैं संभव है भविष्य में हम लोग फिर साथ काम करें।
मै समझ गया कि फिर से साथ काम करने की बात एसपी ने मेरा मन रखने के लिए कही थी। मैं उनको नमस्कार कर वापस अपने स्थान पर लौट आया।
*****
सब ठीक ठाक चल रहा था। हमारे साथ कुछ नये साथी जुड़ गये। इनमें हमारे प्रिय भाई जयशंकर गुप्त भी थे जिनसे मेरी खूब पटती थी। इसके लिए उनका सहज व्यवहार जो मुझे बहुत पसंद है। आपने भी देखा होगा कि इस धरा पर मनुष्य मानव का शरीर होने के बावजूद ऐसा दंभ लिये जीते हैं जैसे वे मानवेतर कोई श्रेष्ठतर व्यक्ति हैं वे हम जैसे सामान्य जनों से निकटता रखना अपनी तौहीन समझते हैं। जयशंकर भाई बहुत ही प्यारे सहज इनसान हैं। मैं बाहर का खाना खाने का आदी नहीं हूं इसलिए मै अपना टिफिन और पीने का पानी साथ ले जाता था। अगर कभी मुझे दोपहर को टिफिन खोलने में देर होने लगती तो जयशंकर भाई बलते-अरे पंडित टिफिन खोलिए जरा छेना खिलाइए।
यह रोज का क्रम बन गया था कि मैं टिफिन खोलता तो पहले जयशंकर भाई का छेना निकाल देते फिर कहीं पहला कौर तोड़ता।
सुरेंद्र प्रताप सिंह |
गरमी अपने चरम पर थी। ऐसे में पीने के पानी के लिए मेरा भरोसा सिर्फ और सिर्फ घर से ले जाया गया एक बोतल पानी ही होता था। पानी खत्म हो जाये तो मुझे बाकी समय प्यासे ही गुजार देना पड़ता था। आफिस के अन्य लोग तो कार्यालय में उपलब्ध नलों में आने वाला पानी पी लेते थे मैं वैसा नहीं कर पाता था।
एक बार मेरे साथ कार्यालय में अजीब वाकया घट गया। एक दन की हात है मै अपने काम में व्यस्त था। यहां मैं यह बताता चलूं कि जब हमारे साथियों की संख्या बढ़ी तो रविवार से जुड़े साथी दो अलग अलग कमरों में बैठने लगे। कुछ लोग एसपी के साथ भवन की बाहरी दीवार से सटे गलियारे जैसे हिस्से में जैसे बैठते थे वैसे ही बैठे रहे मै उधर से उस बड़े कमरे में आ गया जिसमें हमारे कुछ साथी और बच्चों की बांग्ला पत्रिका आनंदमेला का संपादकीय विभाग साथ-साथ बैठता था।
यह उस समय की बात है जब आनंद बाजार पत्रिका के कार्यालय में नये ढंग का डेकोरेशन किया गया था। हर विभाग की दीवारें कांच की पारदर्शी हो सकी थीं। ऐसे में अगर हम एसपी सिंह वाले कमरे से अपने आनंदमेला के कमरे में जायें तो वहां जाते वक्त कांच की पारदर्शी दीवार के चलते अंदर का पूरा दृश्य स्पष्ट दिखाई देता था। जिस घटना का मैं जिक्र करने जा रहा हूं उसके लिए यह बताना आवश्यक है।
गर्मी के दिन थे दोपहर का समय था मै आनंदमेला वाले सेक्शन में अपने काम में व्यस्त था तभी एसपी सिंह वाले कमरे से हमारे साथी गंगाप्रसाद आये और बोले आपको एसपी ने बुलाया है।
मैं वहां से उठ कर एसपी के कक्ष में आया और बोला- भैया आपने बुलाया।
एसपी बोले-नहीं तो। किसने कहा।
मैंने कहा-गंगाप्रसाद बोले की आप बुला रहे हैं।
एसपी बोले-नहीं देखिए कहीं वे आपसे कोई मजाक या शरारत तो नहीं कर रहे।
मैं वापस लौटा तो बगल की पारदर्शी कांच की दीवार से दिख गया कि गंगाप्रसाद और हमारे एक और साथी विजयकुमार मेरी पानी की बोतल से पानी पी रहे हैं। मैंने तो उन्हें देख लिया पारदर्शी कांच की दीवार के उस पार से उन दोनों ने भी मुझे देख लिया और हड़बड़ी में मेरी बोतल गिरा दी और उसका सारा पानी गिर गया।
मैं अंदर पहुंचा और मेरे मुंह से बस इतना निकला-यह क्या किया आप लोगों ने अब यह ब्राह्मण कई घंटों तक प्यासा रह जायेगा। पानी पीना था तो पूछ कर पी लेते। आपने मेरा दिल दुखा दिया, अच्छा नहीं किया।
उस दिन बाकी के घंटे मैं प्यासा ही रह गया।
दूसरे दिन जब मैं कार्यालय पहुंचा तो सबसे पहले एसपी ने अपने कक्ष में बुलाया।
वे मुझसे बोले-राजेश जी क्या आप श्राप देना जानते हैं।
मैं बोला –नहीं भैया पर आप यह क्यों पूछ रहे हैं।
एस पी बोले-कल गंगाप्रसाद और विजयकुमार मिश्र ने चोरी से आपका पानी पी लिया था और आप बहुत दुखी हुए थे। आपका श्राप उनको लग गया। गंगाप्रसाद वापस लौटते वक्त ट्रेन में चढ़ते समय ट्रेन प्लेटफार्म में गिर गये और उनको काफी चोट लग गयी। उधर विजयकुमार मिश्र घर लौटे तो उनके पिता जी ताला बंद कर अपने किसी परिचित के यहां चले गये थे। उन्हें रात बरामदे में गुजारनी पड़ी और मच्छड़ों ने उन्हें काट कर उनका चेहरा और हाथ-पैर लाल कर दिये।
मैं बोला-नहीं भैया मैंने आज तक किसी का अहित नहीं चाहा चाहे किसी ने मेरे साथ किसी ने कितना भी बुरा किया हो मैंने सभी का भला ही चाहा पर यह सच है कल मैं उनकी शरारत के बाद घर लौटने तक प्यासा ही रह गया।
इसके कुछ समय बाद गंगाप्रसाद एक अखबार में काम करने पटना चले गये। वहां से जब भी कोलकाता आते तो हम लोगों के कार्यालय में सबसे मिलने आते थे। तब मेरी बोतल से पानी पीने के पहले पूछ लिया करते थे।
यहां यह स्पष्ट कर दूं कि श्राप कुछ और नहीं व्यथित दिल से निकली एक आह या करुण पुकार होती है जिससे संभव है किसी का अहित हो जाता हो इसलिए प्रयास होना चाहिए की सबसे से प्रेम का व्यवहार कर उनका आशीष ही लेना चाहिए। (क्रमश:)
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