Wednesday, September 25, 2024

प्रभाष जोशी जी के नेतृत्व में काम करना सौभाग्य की बात थी

आत्मकथा-68





दिल्ली से वापस लौट कर मैं इस उम्मीद में रहने लगा कि कहीं से कुछ ना कुछ अच्छी खबर आज नहीं तो कल अवश्य आयेगी। भैया बराबर ढांढस बंधाते और कहते –चिंता क्यों करते हो मैं तो काम कर ही रहा हूं ना। कोई ना कोई राह निकल ही आयेगी।

लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी तभी एक आशा की किरण दिखाई दी। सन्मार्ग हिंदी दैनिक में एक विज्ञापन दिखा एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के लिए उप संपादकों की आवश्यकता है योग्य प्रत्याशी आवेदन करें1उसमें अखबार या संस्थान का नाम नहीं था। सोचा आवेदन कर देते हैं बेकार बैठे रहने से अच्छा है जो भी काम मिले कर लेना चाहिए।

 आवेदन कर दिया। कुछ दिन बाद ही  पत्र आया और उसमें तब के ग्रेट ईस्टर्न होटल (अब इसके नये रूप के साथ ही इसका नाम और मालिकाना भी बदल गया है) में रिटेन परीक्षा के लिए उपस्थित होने का आदेश था। ग्रेट ईस्टर्न पहुंचा तो पाया ढेर सारे अपरिचित चेहरे थे। बहुत लोग बिहार से आये थे और कुछ कोलकाता के जाने पहचाने चेहरे भी थे। बाकायदे लिखित परीक्षा दी और घर वापस लौट आये।

 एक सप्ताह बाद ही दिल्ली से एसपी सिंह का पत्र आया। पत्र में लिखा था-राजेश जी कोलकाता से जनसत्ता निकलने जा रहा है आप उसमें आवेदन कर दीजिए।

 मैंने उनसे कहा-भैया यह पता नहीं कि वह जनसत्ता है। विज्ञापन में एक राष्ट्रीय गैनिक लिखा था।

 एसपी सिंह ने कहा- मैं जानता हूं वह जनसत्ता ही है जो कोलकाता से निकलने जा रहा है। मैंने आपसे वादा किया था कि मैं आपके लिए दिल्ली में नवभारत टाइम्स में जगह बनाऊंगा किंतु किसी वजह से मैं ही नवभारत छोड़ रहा हूं आपके लिए क्या जगह बना पाऊंगा।

हम लोग रविवार में रहते हुए प्रभाष जोशी के नेतृत्व में निकलने वाले जनसत्ता की पत्रकारिता से बहुत अच्छी तरह से परिचित और प्रभावित थे। हमारे रविवार के कार्यालय में जनसत्ता की फाइल रहती थी। अगर कहीं किसी अखबार में कोई महत्वपूर्ण खबर दिखती और उस पर स्टोरी करने की बात उठती तो एस पी कहते कि देख लो जनसत्ता ने छापा है या नहीं अगर छापा हो तो स्टोरी की जा सकती है। प्रभाष जोशी के नेतृत्व में निकलने वाले जनसत्ता की ऐसी ही साख थी।

लिखित परीक्षा देने के बाद मैं उसके परिणाम की परीक्षा कर ही रहा था कि दो सप्ताह बाद जनसत्ता दिल्ली कार्यालय से आये एक पत्र ने मुझे चौंका दिया। उस पत्र में निर्देश था कि आप अमुक दिनांक को ग्रेट ईस्टर्न होटल के रजनीगंधा हाल में पहुंचे। पत्र पढ़ कर मुझे अजीब लगा। मैं सोचने लगा कि क्या पहले मेरे द्वारा दी गयी परीक्षा की कापी खो गयी। काफी सोच विचार के बाद सोचा चलो दोबारा भी परीक्षा दे ही देते हैं।

 मैने दोबारा परीक्षा दे दी। मुझे परीक्षा लेने आयी इंडियन एक्सप्रेस की टीम से पता चला कि प्रभाष जोशी आये हैं और कोलकाता के ग्रांड होटल में ठहरे हैं।

वहां गया और उन्हें प्रणाम कर पूछा -`पंडित जी आप कितनी बार परीक्षा लेंगे। मैं तो पहले भी परीक्षा दे चुका हूं। क्या कापी खो गयी है।'

इस पर जोशी जी बोले-` नहीं राजेश जी, डिस्पैच में गड़बड़ी हो गयी। आपके पास तो इंटरव्यू की चिट्ठी जानी थी, भूल से परीक्षा वाली चली गयी। आपने परीक्षा दे दी तो?'

` जी हां, अब और परीक्षा तो नहीं देनी होगी?'



                                प्रभाष जोशी

जोशी जी बोले-`नहीं अब आपके पास इंटरव्यू का ही लेटर जायेगा।'

दिन बीते कुछ अरसा बाद इंटरव्यू लेटर आया और हमें सुबह आठ बजे ही होटल ताज पहुंचने के लिए कहा गया। जो कोलकाता के चिडियाघर के पास है। मुझे याद है झमाझम बारिश हो रही थी, मैं नियत समय पर होटल पहुंच गया लेकिन मेरा नंबर शाम पांच बजे के बाद आया। इतनी देर तक बैठा-बैठा अनखना गया था लेकिन जब जोशी जी से सामना हुआ, उन्होंने हंस कर स्वागत किया। याद है इंटरव्यू लेने वालों में जोशी जी के अलावा अमित प्रकाश सिंह (प्रख्यात कवि त्रिलोचन शास्त्री जी के सुपुत्र) भी थे। अमित जी ही कोलकाता जनसत्ता के समाचार संपादक बने। दोनों ने कुछ सवाल किये और मेरा चयन हो गया।

जनसत्ता की टीम में मुझे. अरविंद चतुर्वेद, कृपाशंकर चौबे और पलाश विश्वास को वरिष्ठ पाया गया। यह खुद प्रभाष जी ने ही तय किया। उन्होंने प्रारंभ में मुझे शिफ्ट इनचार्ज बना दिया, वह भी रात की शिफ्ट का। रात 2 बजे तक की ड्यूटी अखर रही थी, लेकिन जोशी जी का आदेश था, जो टाला नहीं जा सकता था। एक दिन मैं जब कोई कापी एडिट कर रहा था, तभी किसी के हाथों का स्पर्श अपने कंधे पर महसूस किया। कोई हलके से मेरे कंधे दबा रहा था। मैं यह सोच ही रहा था कि कौन है, तभी जोशी जी की चिरपरिचित आवाज उभरी-`भाई अपने राजेश जी के कंधों पर बडा भार है।' मैं अचकचा कर उठा और मैने उन्हें प्रणाम किया। फिर अक्सर ही उनके दर्शन होने लगे और हम उनकी पत्रकारिता के और जीवन के अनुभवों से समृद्ध और धन्य होने लगे। वे अक्सर जब भी कलकत्ता आते संपादकीय के साथियों से अवश्य मिलते थे। उन्हें अपने अनुभव सुनाते और पत्रकारिता के गुर भी सिखाते। उनका इस बात पर बड़ा जोर रहता कि खबरें आसान और बोलचाल की भाषा में लिखी जायें। इसके लिए वे कहा करते-`जिस तरह तू बोलता है, उस तरह तू लिख।' किसी समाचारपत्र की लोकप्रियता और सफलता के बारे में उनका कहना था कि कोई समाचारपत्र जब ठेलावाले, रिक्शावाले या पानवाले जैसे सामान्य तबके के व्यक्ति के पास दिखेगा, तभी वह कामयाब माना जायेगा। हमें याद है वे शब्द भी खूब गढ़ते थे। आतंकवादियों के लिए प्रभाष जी ने शब्द गढ़ा मरजीवड़े। उनका इस बात पर भी जोर रहता कि समाचारपत्र जिस अंचल से निकलता है, उस अंचल की क्षेत्रीय भाषा का उसमें समावेश हो। जैसे कलकत्ता जनसत्ता के लिए उन्होंने कहा था कि आप आवश्यकता या जरूरत की जगह दरकार लिख सकते हैं जो बंगला में भी प्रचलित है।

जनसत्ता में उनका साप्ताहिक स्तंभ कागद कारे लोग बेहद पसंद करते थे। वे मध्य प्रदेश के मालवा अंचल के थे और उनके इस स्तंभ में अक्सर वहां की सोंधी मिट्टी की महक, वहां के लोकरंग पाठक महसूस कर सकते  थे। यह स्तंभ जोशी जी की व्यक्तिगत स्मृतियों या उनके अपने घर-परिवार, साथियों या सम सामयिक विषयों तक सीमित रहते थे लेकिन इसका फलक इतना व्यापक होता था कि हर व्यक्ति इसे पढ़ कर प्रीतिकर महसूस करता था। मैं मूलतः बुंदेलखंड का हूं लेकिन कभी-कभी कागद कारे में उनके मालवा के रंग मुझे अपनी माटी, अपने घर-गांव के लगे। भारत की विविधता में एकता का यह अनुपम उदाहरण है कि आपको हर अंचल के लोकरंग कहीं न कहीं बेहद अपने लगेंगे, भले ही उनमें भिन्नता हो।

जोशी जी मूलतः अंग्रेजी के पत्रकार रहे थे। जहां तक याद आता है जब गोयनका जी ने हिंदी दैनिक जनसत्ता निकालने की सोची तो जोशी जी को चंड़ीगढ़ से लाया गया, जहां वे इंडियन एक्सप्रेस में थे। मूलतः अंग्रेजी के पत्रकार होने के बावजूद कुछ ही अरसे में उन्होंने जनसत्ता को वह लोकप्रियता दिलायी जो अपनी मिसाल आप है। याद है मैं तब आनंदबाजार प्रकाशन समूह के हिंदी साप्ताहिक रविवार में उप संपादक था। प्रारंभिक दिनों में जनसत्ता और एक्सप्रेस समूह के अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस को खबरों की विश्वसनीयता के लिए जाना जाता था। उस वक्त जब कभी कोई विवादास्पद स्टोरी ब्रेक होती या किसी घोटाले का परदाफाश होता, एसपी सिंह हम लोगों से कहते -जरा इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता की फाइल देख लीजिए, वहां स्टोरी आयी है तो ठीक है।

रविवार के दिनों की ही बात है, हम लोग अक्सर जनसत्ता देखते ही थे। वह अखबार समाचारों की दृष्टि से तो औरों से अलग था ही उसका लेआउट भी अनोखा था। सारे अखबार आठ कालम के होते हैं जनसत्ता छह कालम का। एक दिन अखबार के प्रथम पृष्ठ पर पाठकों के प्रति एक अपील छपी थी कि जनसत्ता की प्रसार संख्या 1 लाख पहुंच चुकी है, अब इसे मिल बांट कर पढ़ें, हम इससे अधिक नहीं छाप सकते। यह जोशी जी के सतत प्रयास, निष्ठा और उनकी सूझबूझ का ही परिणाम था, जो यह पत्र इतना लोकप्रिय हुआ। यह हमारा सौभाग्य रहा कि हमें भी उस महामना का आशीर्वाद और मार्गदर्शन मिला जो सदैव हमारा संबल और पाथेय रहेगा। (क्रमश:)

 

 

 

 


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