Friday, September 20, 2024

दिल्ली से एसपी सिंह, उदयन शर्मा के आश्वासनों के साथ कोलकाता वापसी

 आत्मकथा-67



रविवार साप्ताहिक का उस वक्त अचानक बंद हो जाना जब वह अपनी सफलता और लोकप्रियता के चरम पर था, हम सबको स्तब्ध कर गया। जाहिर है कि उसके बाद मैं उदास रहने लगा। मेरी यह मनस्थिति मेरे भैया और जाने माने साहित्यकार पत्रकार रामखिलावन त्रिपाठी रुक्म से छिप ना सकी।

 भैया ने कहा-उदास और परेशान क्यों होते हो,इतने समय तक काम किया अब आराम करो। चिंता किस बात की मैं तो काम कर ही रहा हूं। यह सोच कर चलो कि योग्य व्यक्ति को ज्यादा दिन तक बेकार नहीं बैठना पड़ता। कहीं ना कहीं देर सबेर काम मिल ही जाता है।

 यहां यह बताता चलूं कि मेरे भैया का मूल नाम गौण हो गया था और लोग उनके उपनाम रुक्म से ही उनको जानते थे। मैं जो कुछ भी थोड़ा बहुत लिख पाता हूं वह उनके चरणों में बैठ कर सीखा है।

 भैया के ढांढस बंधाने से मेरी चिंता कुछ दूर हुई और अपने को व्यस्त रखने के लिए मैंने कहानियां आदि लिखना शुरु कर दिया। किसी तरह से अपने को व्यस्त रखने के प्रयास में रहता ताकि इस सोच को अपने पर हाबी ना होने दूं कि मैं बेकार हो गया हूं।

                                                ***

भगवान की बड़ी कृपा रही कि कुछ दिनों बाद हमारे रविवार में साथी रहे राजेश रपरिया का दिल्ली से फोन आया। उन्होंने कहा- आप दिल्ली आइए और यहां से मेरठ जाकर अमर उजाला दैनिक के मालिक, संपादक अतुल माहेश्वरी से मिल कर बात कर लीजिए। मैंने आपके बारे में उनसे बात की है, वे आपसे मिलना चाहते है।

 भैया शाम को जब आफिस से लौटे तो मैंने उनसे राजेश रपरिया के फोन और अमर उजाला के बारे में बताया।

 उन्होंने कहा-कल मैं आफिस से छुट्टी ले लेता हूं। चलते हैं देखें शायद वहीं तुम्हारी रोजी रोटी लिखी हो।

 भाभी निरुपमा को इसका पता चला तो वे भैया पर बिफर गयी। वे बोलीं-हम अपने देवर को अपने यहां से इतना दूर नहीं जाने देंगे। यह चले गये तो हम फिर पहले जैसे अकेले हो जायेंगे।

 भैया बोले- जाते हैं बात कर के देखते हैं जरूरी नहीं कि वहां काम करना ही पड़े। सब कुछ सुनेंगे समझेंगे सही लगा तो ही स्वीकार करेंगे वरना लौट आयेंगे।

 रविवार में हमारे साथ रहे निर्मलेंदु साहा दिल्ली जा चुके थे। वे उन दिनों नवभारत टाइम्स में फीचर संभालते थे। इंद्रधनुष परिशिष्ट का संपादन करते थे। हम उन्हें निर्मल नाम से पुकारते रहे। हमने फोन से उनको अपने दिल्ली  आने की सूचना दी तो वे बहुत खुश हुए। कहा कि वे भी हमारे साथ मेरठ जायेंगे।

अगले सप्ताह ही हम राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली के लिए रवाना हो गये।

 दुसरे दिन हम लोग दिल्ली पहुंचे और टैक्सी पकड़ कर पटपड़गंज पहुंचे। वहां एक होटल में समान रखने के बाद आसपास टहलने के बाद खाना खा कर आराम करने लगे। रात होटल में बीती।

दूसरे दिन सुबह हमने निर्मल को फोन किया। पता चला वे मयूर विहार में रहते हैं। उन्होंने जब सुना कि हम होटल में रह रहे हैं तो गुस्सा हुए और बोले-मेरा फ्लैट होते हुए भी तुम लोग होटल में क्यों ठहरे। मैं आता हूं अपना सामान समेटो जितने दिन दिल्ली में रहो मेरे साथ रहो।

 कुछ देर में ही निर्मल टैक्सी लेकर आ गये। आनन फानन होटल का बिल चुकाया गय़ा और हम निर्मल के साथ टैक्सी में मयूर बिहार की ओर चल पड़े।

 मयूर बिहार के निर्मल के फ्लैट में पहुंचे तो वहां नीरेंद्र नागर जी मौजूद थे। वे पहले कोलकाता में सन्मार्ग के संपादकीय विभाग में काम कर चुके थे। निर्मल को हमारे पहुंचने से बहुत खुशी हुई। रात बीती और हमरी सुबह मयूरों की समवेत धुन के साथ हुई। तब हमें उस इलाके का मयूर बिहार नाम पड़ने का पता चला। सुबह देखा तो चारों ओर मयूर ही मयूर दिख रहे थे।

दूसरे दिन सुबह ही हम अंतरराज्यीय बस अड्डे पहुंचे और मेरठ जानेवाली बस में बैठ गये। गरमी के दिन थे। उत्तर प्रदेश की गरमी से हम परिचित थे लेकिन वर्षों तक कोलकाता में रहने के बाद वह गरमी असह्य और बेचैन करनेवाली लग रही थी। खैर हमारी बस मेरठ की ओर बढ़ चली। हमने कंडक्टर से पहले ही बता दिया था कि वह हमें अमर उजाला के दफ्तर के पास उतार दे। कंडक्टर ने बात तो सुनी पर ना मुंह से हां कहा ना गरदन ही स्वीकृति में हिलायी।

कई घंटों के बाद जब बस अमर उजाला के दफ्तर के पास से गुजरी तो मुझे अखबार के कार्यालय के भवन में बड़ा सा नाम अमर उजाला लिखा दिखा। मैं कंडक्टर से बोला-भाई रोकिए हमें यहीं उतरना है। कंडक्टर अक्खड़ आवाज में बोला- मुझसे क्या बोलता ड्राइवर से बोल।

 हम तो यही जानते थे कि बस को सही जगह रुकवाना चलाना कंडक्टर की जिम्मेदारी है वह तो कह रहा है कि ड्राइवर से रोकने को कहो।

मैं सीट सो उठा और ड्राइवर का हाथ पकड़ कर कहा- भाई रोकिए हमें उतरना है। वह भी रोकते रोकते कुछ दूर ले ही गया।

खैर हम बस से उतर कर अमर उजाला के दफ्तर की ओर चल पड़े। गर्मी बहुत अधिक थी.तीखी धूप थी हम उसके बीच ही चलने को मजबूर थे। मेरठ का पहला बुरा अनुभव हुआ।

 खैर गरमी का जुल्म झेलते हम लोग मेरठ के बाहरी क्षेत्र में स्थित अमर उजाता के दफ्तर पहुंचे।

वहां पहुंच कर हम अखबार के संपादक और मालिक अतुल माहेश्वरी से मिले। उनसे लंबी बातचीत हुई। तय हुआ कि वे सोलह हजार मासिक वेतन देंगे। मैंने कहा कि मेरे बच्चे कोलकाता में पढ़ते हैं उनके लिए स्कूल की व्यवस्था भी करनी होगी। वे बोले –मेरी स्कूलों में पहुंच है मैं किसी भी कनवेंट स्कूल में उनका दाखिला करवा दूंगा।

उनसे विदा लेने के पहले हमने पूछा- आपके अखबार में गांव और जिले जिले  की खबर कैसे आ जाती है। अतुल जी ने बताया कि हमने बसों में लेटरबाक्स लगा रखे हैं। उसमें गांव जिले के लोग अपनी खबरें डाल देते हैं। हम उन खबरों को वैरीफाई कर छापते हैं।

बातचीत पूरी होने के बाद हमने अतुल जी से नमस्कार किया और बाहर निकल आये। अब तक मैं उनके आफर को लेकर ऊहापोह में था कि क्या करूं। मन में कई तरह के प्रश्न घुमड़ रहे थे। सोच रहा था कोलकाता में तो भैया का साथ है यहां आया तो मैं एकदम अकेला पड़ जाऊंगा। अभी मैं यह सोच ही रहा था कि भैया ने कहा- मैं तुम्हें यहां नहीं भेजना चाहता। यह शहर दंगों के लिए कुख्यात है। मान लो तुम रात ड्यूटी में हो और शहर में कुछ गड़बड़ी की खबर मिली तो आफिस में तुम उधर तुम्हारा परिवार बेचैन हो जायेगा। ना मैं तुम्हें यहां नहीं आने दूंगा।

हम लोग यह चर्चा कर ही रहे थे कि सामने एक चाय की गुमटी दिखाई दी। हमने सोचा कि दिल्ली वापस जाने के लिए बस पकड़ने से पहले चाय पी लेते हैं। हम गुमटी के अंदर बैठ गये और बैरे को तीन कप चाय लाने को कहा।

 हम चाय पीना शुरू करते इससे पहले देखा कि हमसे कुछ दूर बैठे एक व्यक्ति ने एक बड़ा सा बिस्कुट खा रहा था कि तभी बिस्कुट उसके गले में अटक गया। उसकी आंखों में आंसू आ गये। वह इशारे से पानी मांग रहा था लेकिन पानी सर्व करने वाला लड़का नहीं सुन रहा था। हम लोग चिल्लाये –अरे इधर पानी दो आदमी के गले में बिस्कुट अटक गया है।

 इस पर वह लड़का बोला- अभी सामने वाले का नंबर है उसे चाय देकर फिर इधर देखूंगा।

 इसके बाद उस आदमी के आसपास बैठे लोग और हम लोग एक साथ चिल्लाये-पहले इधर पानी दो देख नहीं रहे उसे कितनी चकलीफ हो रही है।

 सबके डांटने पर वह लौटा और उसने उस आदमी को पानी दिया। उसने गले में अटके सूखे बिस्कुट को पानी के घूंट के साथ गले से उतारा तब कहीं उसके जान में जान आयी। उसने हम लोगों की ओर इस तरह देखा जैसे हमारे द्वारा की गयी मदद के लिए एहसानमंद हो रहा हो। मेरठ का यह अनुभव भी हमारे लिए बहुत खराब रहा।

हम लोग जब वापस दिल्ली पहुंचे तब तक शाम हो चुकी थी। तय हुआ कि सुबह नवभारत टाइम्स के कार्यालय में सुरेंद्र प्रताप सिंह जी से मिला जाये।

 

निर्मल ने फोन से सुरेंद्र जी को यह सूचना दे दी कि कोलकाता से राजेश अपने भैया के साथ आया है और आपसे मिलना चाहता है।एसपी सिंह ने स्वीकृति दे दी। यह उस वक्त का मामला था जब पंजाब में तनाव था। नवभारत टाइम्स के कार्यालय में पहुंचे तो देखा नीचे से ऊपर तक सशस्त्र सुरक्षा प्रहरी। उन्होंने जानना चाहा कि किससे मिलना है। हम लोगों ने एसपी सिंह जी का नाम बता दिया। उनमें से एक सुरक्षाकर्मी ने इंटरकम से एसपी को फोन लगाया और उनसे हम लोगों का नाम बता कर पूछा कि क्या इन्हे भेजा जाये। एसपी का सकारात्मक जवाब आने पर उन्होंने हमे जाने के लिए कहा।

 हम जब एसपी सिंह के चैंबर में पहुंचे तो देखा वे बहुत व्यस्त थे। दरअसल उसी दिन विश्वनाथप्रताप सिंह ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। एसपी संजय पुगलिया को समझा रहे थे तुम यह देखो कि इस इस्तीफे का मार्केट में क्या असर पड़ेगा।

 व्यस्त रहने के बावजूद उन्होंने हमें समय दिया। मैंने अमर उजाला के मालिक से हुई सारी बातें उन्हें बता दीं।

 सारी बातें सुन कर एसपी बोले-क्या राजेश जी आनंद बाजार जैसे बड़े संस्थान में काम करने के बाद आप कस्बाई पेपर में जायेंगे। मैं आपको बता दूं जो सोलह हजार रुपये देने को वे बोले हैं वह पांच छह महीने तक ठीक मिलेंगे उसके बाद उसमें छह हजार वे आपकी पत्नी के नाम कंट्रीब्यूटर के नाम देने लगेंगे यानी आपके हाथ में आयेंगे एक हजार। आपकी पत्नी को भी कुछ महीने कंट्रीब्यूटर के रूप  में पांच हजार मिलेंगे फिर वे बंद हो जायेंगे। एक हजार में आप कैसे जिंदगी चलायेंगे आप। थोड़ा इंतजार कीजिए मैं आपके लिए यहां जगह बनाता हूं। हम उनको नमस्कार कर नवभारत कार्यालय से बाहृर निकल आये।

 पता चला विजया टावर में संडे आब्जर्बर का कार्यालय है। अंबानी के इस अखबार के संपादक उदयन शर्मा जी थे। सोचा दिल्ली आये हैं तो पंडित जी से मिलते चले। उनके कार्यालय पहुंचे तो वे बड़े प्रेम से मिले।

सारा हाल सुनने के बात वे बोले-भैया को कोलकाता वापस जाने दो आप मेरी कुर्सी छोड़ कर किसी कुर्सी मैं बैठ जाओ तुम्हें मेरे साथ काम करना है।

 मैने पंडित जी का आभार जताया और कहा-अभी बिना तैयारी के आया हूं एक बार कोलकाता लौटता हूं फिर वापस आपके दर्शन करूंगा।

 उस पर उन्होंने बस इतना भर कहा- तुम जब चाहे आ जाओ तुम्हारे लिए जगह मैं बना ही लूंगा।

 मैं और भैया अपनी इस यात्रा की यादें समेटे कोलकाता लौट आये और कहीं से कोई खबर आने की प्रतीक्षा करने लगे। (क्रमश:)

 

 

 

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