मैंने इस तरह लिया महान संपादक प्रभाष जोशी का साक्षात्कार
आत्मकथा-66
नवंबर
1989 का महीना वह मनहूस महीना था जब उस वक्त की साहसिक,सार्थक और सशक्त पत्रकारिता
का अलख जगाने वाली पत्रिका बंद हो गयी। रविवार का बंद होना सिर्फ हमारे लिए नहीं
उन पाठकों के लिए भी एक बुरी खबर थी जिनके लिए रविवार की बड़ी अहमियत थी। यह किसी
साधारण पत्रिका के बंद होने की बात नहीं थी बल्कि एक ऐसी पत्रिका के बंद होने की
बात थी जो सत्ता के शीर्ष तक होने वाले भ्रष्टाचार अनाचार पर सवाल उठाने में नहीं
हिचकती थी।
आगे बढ़ने से पहले उदयन जी के कार्यकाल के समय
के एक प्रसंग का उल्लेख कर रहा हूं जो छूट गया था।
आनंदबाजार प्रकाशन समूह के हिंदी साप्ताहिक
रविवार में उप संपादक के रूप में काम कर रहा था। एसपी सिंह दिल्ली जा चुके थे और
उदयन शर्मा जी हमारे नये संपादक बन कर आ गये थे। एक दिन उदयन जी ने मुझे अपने
चेंबर में बुलाया और कहा-`पंडि़त, तुम्हें एक जिम्मेदारी सौंपता हूं। आज दिन भर आपकी आफिस से छुट्टी
लेकिन आपको मेरा एक जरूरी काम करना है।'
मैंने पूछा-`पंडित जी कैसा काम?'
उदयन जी बोले-`महान पत्रकार और गांधीवादी विचारक प्रभाष जोशी महानगर आ रहे हैं। वे
सन्मार्ग हिंदी दैनिक के संपादक रामअवतार गुप्त (अब स्वर्गीय) के प्रयास से
स्थापित संस्था पत्रकारिता विकास परिषद के समारोह में भाग लेने आ रहे हैं। आपको
महात्मा गांधी की विचारधारा पर उनका एक इंटरव्यू लेना है। यह इंटरव्यू ही हमारे
रविवार के अगले अंक की आमुख कथा होगी।'
मैंने कहा-` वे
समारोह में व्यस्त रहेंगे,
ऐसे में उन्हें पकड़ पाना क्या आसान
होगा?'
उदयन जी बोले-`यह आपकी समस्या है, मुझे
तो प्रभाष जी का इंटरव्यू चाहिए।'
खैर पंडित जी का हुक्म तो बजाना ही था। मैं
सीधा कोलकाता महानगर के भारतीय भाषा परिषद के सभागार पहुंच गया, जहां पत्रकारिता विकास परिषद का समारोह
चल रहा था। सीधे मैं श्री रामअवतार गुप्त जी से मिला और उनसे सारी बात बतायी और
कहा-`सर! जैसे भी हो मुझे प्रभाष जोशी जी का
इंटरव्यू लेना है। उदयन जी का आदेश है जो मैं आपकी मदद के बगैर पूरा नहीं कर
पाऊंगा।'
श्री गुप्त जी से पुराना परिचय था क्योंकि
मैंने पत्रकारिता का प्रशिक्षण सन्मार्ग से ही लिया था। सौभाग्य से मैं उनका
कृपापात्र भी था इसलिए उनसे यह आग्रह करने में मुझे झिझक या परेशानी नहीं हुई।
मेरी बातें सुन कर उन्होंने कहा-`राजेश जी, इसमें परेशान होने की क्या बात है।
कार्यक्रम खत्म होने के बाद जोशी जी हमारे सन्मार्ग कार्यालय जायेंगे। आप भी साथ
चलिए, वहीं उनका इंटरव्यू ले लीजिएगा।'
मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मेरा काम मुझे आसान
होता दिखा। कार्यक्रम खत्म होने के बाद कार में मैं श्री गुप्त जी और जोशी जी के
साथ ही बैठ गया। राह में श्री गुप्त जी ने मेरा परिचय जोशी जी को देकर मेरा काम और
आसान कर दिया। उस महान संपादक और मेरे बीच जो अपरिचय का संकोच था, वह छंट गया। मैं भी कुछ सहज हुआ और
जोशी जी से बात करने लगा। बातों बातों में मैंने इंटरव्यू वाली बात भी बता दी। वे
बिना नानुच के राजी हो गये।
हम सन्मार्ग कार्यालय पहुंचे तो गुप्त जी जोशी
जी को अपने कक्ष में ले गये। साथ में मैं भी था। जोशी जी और गुप्त जी में
वार्तालाप होने लगा। जोशी जी ने उनसे पूछा कि सन्मार्ग की प्रसार संख्या कितनी है।
मुझे याद है गुप्त जी ने जो संख्या बतायी, उससे
जोशी जी के चेहरे की चमक और भी दीप्त हो गयी। अब सोचता हूं कि शायद जनसत्ता के
कलकत्ता आगमन की भूमिका भी उसी क्षण बन गयी होगी।
थोड़ी देर की वार्तालाप के बाद गुप्त जी
कार्यालय से बाहर निकल गये और जाते-जाते कहते गये -`राजेश जी, अब आप इत्मीनान से जोशी जी का इंटरव्यू
लीजिए।'
मेरे सामने एक मनीषी थे, ऐसे मनीषी जिन्होंने अपार चिंतन-मनन
किया था और अपने क्षेत्र के महारथी थे। जो सुलझी हुई, सधी हुई और निर्भीक पत्रकारिता के
ध्वजवाहक के रूप में ख्यात और सम्मानित थे। उनसे मुझे एक और महान आत्मा गांधी के
दर्शन के बारे में जानना था। मैंने अपनी इच्छा जोशी जी से जाहिर की।
इसके बाद उनके मुख से गांधी दर्शन और उनकी
अवधारणा के बारे में जो कुछ धाराप्रवाह सुना, उससे
मैं मुग्ध हो गया। जोशी जी उपनिषदों, वेदों
से उद्धृत करते और बताते जाते कि क्या थी गांधी की अवधारणा। वह अवधारणा जिसमें
जन-जन के कल्याण और सुख की कामना थी। गांवों को एक ईकाई मान कर विकास को उस स्तर
तक ले जाने और गांव रूपी ईकाई को आत्मनिर्भर बनाने का सोच था गांधी का। जोशी जी ने
गांधी की अवधारणा पर विस्तार से बताते हुए कहा-`आज हम उस रास्ते से भटक गये हैं। हम विदेशी चाबी से देशी ताला खोलने
की कोशिश कर रहे हैं। क्या था हमारा भारतवर्ष। हमारे यहां वृक्षों की पूजा होती थी, मेघों की पूजा होती थी। हमारे यहां यह
परंपरा थी कि सुबह जब आंख खुले तो पृथ्वी पर पैर रखने के पहले हम प्रार्थना करते
थे- समुद्र वसने देवि पर्वत स्तन मंडले/ विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्शम्
क्षमस्व में। आज क्या हो रहा है। हम कहां जा रहे हैं। जीवन की आपाधापी में हम जीवन
के शाश्वत मूल्यों को भूल गये हैं। अपनी पहचान खो बैठे हैं हम।'
जोशी के इंटरव्यू पर आधारित यह आलेख `हम विदेशी चाबी से देशी ताला खोलने की
कोशिश कर रहे हैं' शीर्षक से रविवार साप्ताहिक की आमुख
कथा बना और इसे खूब सराहा गया। यह मेरी प्रभाष जी से पहली मुलाकात थी। उतने बड़े
पत्रकार होकर भी वे मुझे असहज नहीं लगे और थोड़ी देर की बातचीत में वे बहुत अपने
से लगने लगे थे। बड़े लोगों की यही सच्ची विशेषता होती है कि वे अपने बड़प्पन का रौब
किसी पर गालिब नहीं करतेे।(क्रंमश:)
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