Thursday, September 12, 2024

‘रविवार’ के बंद होने पर हम सबको बहुत दुख हुआ

 आत्मकथा-65




उदयन जी चले गये और रविवार के भविष्य पर भी जैसे प्रश्नचिह्न लग गया। वह क्या पहले जैसा निकल पायेगा या फिर अकाल मौत को प्राप्त होगा।

 इस प्रकरण में आगे बढ़ने के पहले रविवार के अपने कुछ साथियों को याद कर लेना चाहता हूं। सबसे पहले जो नाम याद आता है वह हरिवंश जी का है जो वर्तमान में राज्यसभा के उप सभापति हैं। उन्हें पहली बार तब देखा जब वे रविवार कार्यालय में एस पी सिंह से मिलने आये थे। पता चला उस वक्त वे किसी बैंक में हिंदी अधिकारी थे। कुछ अरसे बाद ही उन्होंने रविवार ज्वाइन कर लिया।  उनके बारे में सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें पुस्तकें पढ़ने का बहुत ही शौक है। आऩंद बाजार प्रकाशन कार्यालय में एक व्यक्ति पुस्तकें बेचने आता था। उसके सबसे बड़ खरीदार हमारे हरिवंश जी ही होते।  एक दिन की बात है मॆं आनंद बाजार कार्यालय की छत पर बनी कैंटीन से चाय पीकर लौटा तो देखा हरिवंश जी किताबों का एक सेट लिये बैठे हैं।

उन्होंने मुझे बुलाया और बोले-राजेश जी .यह आपके लिए है। यह विवेकानंद जी का लिखा राजयोग है। पैसे उन्होंने दे दिये थे।

मैंने कहा- पैसा में कल दे दूंगा।

उन्होंने कहा-कोई बात नहीं जब सुविधा हो दे दीजिएगा।

उनका जिक्र आया है तो यह भी बताता चलूं कि उनके रविवार में रहते वक्त ही र्क प्रभात खबर हिंदी दैनिक के रांची संस्करण के निकलने की भूमिका बन गयी थी। यहां तक कि उन्होंने उसका मास्टहेड भी बनवा लिया था। उनको पता था कि मैं इंडियन आर्ट कालेज में आर्ट की शाम का क्लास ज्वाइन करता था। एक बार उन्होंने प्रभात खबर के मास्टहेड की कई डिजाइनें मेरे सामने रख कर कहा कि मैं उनमें किसी एक को चुनूं जो सर्वथा अनुकूल हो। मैंने उसमें से एक डिजाइन चुन ली जो बाद में प्रभात खबर का मास्टहेड बनी। संभव है समय के अंतराल से हरिवंश जी इसे भूल गये हों पर मेरे स्मृतिपटल पर हर बात ताजा है ।

 हमारे साथ संजील क्षितिज भी थे जो मध्यप्रदेश सरकार की नौकरी छोड़ कर आये थे।

 अनिल ठाकुर अच्छे कवि और प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले रविवार में रहे। उनकी लिखी भागलपुर आंखफोड़ कांड की स्टोरी नने तहलका मचा दिया था।

 कमर वहीद नकवी, रामकृपाल सिंह, राजशेखर मिश्र, किरण पटनायक संजय द्विवेदी  अदि भी रविवार में थे।

एक और बात याद आ गयी सोचता हूं उसे भी बताता चलूं। हमारे मालिक अभीक सरकार पाकिस्तान की यात्रा पर गये थे उनकी इस यात्रा के बारे में पाकिस्तान के उर्दू अखबारों मॆं समाचार छपा था। उनंहौंने मुझे बुलाया, काफी पिलायी और कहा-मैं पाकिस्तान गया था देखिए तो वहां के उर्दू अखबारों में क्या लिखा है। मैंने सारा कुछ उन्हें सुना दिया और एक गलती की ओर इशारा भी कर दिया। उन लोगों ने आनंद बाजार पत्रिका की जगह किसी और अखबार का नाम लिख दिया था। इस पर उन्होंने कहा-अच्छा किया आपने याद दिला दिया। मैं उऩको इस बारे में लिखूंगा।

                       ***

दिन गुजरते रहे रविवार किसी तरह घिसट कर चलता रहा। उदयन जी के जाने के बाद योगेंद्र कुमार लल्ला जी एक तरह से सहायक संपादक के रूप में काम संभाल रहे थे। वे रविवार के एक अंक की तैयारी कर रहे थे। उस अंक की कवर स्टोरी दंगों पर थी। लल्ला जी ने उस कवर की हेडिंग रखी थी 'दंगों का दावानल'। मैंने इस हेडिंग पर आपत्ति की और कहा कि इसमें कुछ बदलाव कर दीजिए। दावानल की जगह कहर कर दीजिए।

लल्ला जी ने पूछा-इसमें क्या आपत्ति है।

मैंने कहा- मुझे लगता है यहां अग्नाक्षर की स्थिति बन गयी है।

उन्होंने पूछा- क्या राजेश तुम विज्ञान के छात्र रहे हो इस सबमें क्या पड़ गये।

मैंने कहा- मैंने जो भी थोड़ा बहुत लिखना अपने बड़े भैया के कदमों में बैठ कर सीखा है उन्होंने ही बताया था कि कविता या किसी और लेखन में अग्नाक्षर नहीं आना चाहिए यह अनर्थकारी हो सकता है।

 लल्ला जी ने हंस कर टाल दिया। में यहां जो भी लिख रहा हूं उसमें एक शब्द भी अतिरंजित या मिथ्या नहीं है।

लल्ला जी बात करने के बाद मैं आफिस से निकल गया।

मैं स्टेट्समैन के सामने शटल टैक्सी के इंतजार में खड़़ा था तभी हमारे कानूनी सलाहकार बिजित बसु मेरे पास आये और बोले-राजेश तुम लोगों की मैगजीन रविवार बंद हो गयी।

मैंने कहा- बिजित दा क्या मजाक कर रहे हैं। अभी तो हम लोग पूरा अंक फाइनल कर प्रेस भेज चुके हैं।

बिजित दा बोले- हां में प्रेस से आ रहा हूं उसमें यह स्टिकर चिपकवा कर 'अपरिहार्य कारणों से इस अंक से रविवार का प्रकाशन बंद किया जा रहा है'। यह सुन कर मैं धक से रह गया। जिस रविवार से हमारा इतना गहरा लगाव हो गया था, जो उस समय की हिंदी पत्रिकाओं में सर्वाधिक चर्चित था उसका था हम सबके सपनों का टूट जाना, मीडिया महानायक एसपी सिंह द्वारा चलायी गयी पत्रकारिता की सार्थक.सशक्त धारा का सूख जाना।यह खबर हमारे लिए सबसे दुखद और दिल तोड़नेवाली थी।

 दूसरे दिन मैं कार्यालय़ पहुंचा तो लल्ला जी ने मुझे अपने पास बुलाया और बोले-राजेश तुम्हारा कहा सच हो गया। रविवार बंद हो गया।

मैने कहा- मैं जानता हूं बिजित दा ने मुझे कल ही बता दिया था।

इसके बाद मैंने उन्हें अग्नाक्षर के बारे में बताया।

मैंने उदाहरण दिया कि एक दरबारी कवि थे जिन्हें दरबार ले जाने के लिए राजा की पालकी आती थी। आपमे से जो लोग उस समय की भाषा से परिचित होंगे वे जानते हैं उन्हें पता होगा कि उस समय कल के लिए काल्ह शब्द प्रयुक्त होता था।

अब कवि तैयार होकर अपने द्वार पर खड़े थे और पालकी आने में देर हो रही थी। अचानक कवि के मुख से निकल गया-बेला आयी काल की अभी ना आयी पालकी। काल्ह की जगह वे काल बोल गये और काल उन्हें ले गया। उनकी मौत हो गयी।

मैंने उन्हें एक और घटना सुनायी जो मेरी आंखों देखी थी और वह कोलकाता की उस कालोनी की थी जहां मैं रहता था। हमारे फ्लैट के दूसरे तल्ले में एक बंगाली कवि गोविंद हल्दर रहते थे। वे सरकारी कार्यालय में काम करते थे और अच्छे कवि थे। उनकी एक पहचान यह भी थी कि उनकी लिखी कविताएं मुजीबुर्हमान के समय बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध में मुक्ंति योद्धा गाते थे। उनमें से कुछ बहुत चर्चित हुए थे जैसे -मोरा एकटि फूल के बचाबो बोले युद्ध कोरी, पूर्व दिगंते सूर्य उगेछे लाल।

बाद के दिनों में हल्दर बाबू की आंखें खराब हो गयी थीं। उन्हें धुंधला दिखने लगा था। जाडे के दिन थे हम लोग अपनी कालोनी के छोटे से मैदान में धूप ले रहे थे।

 अचानक हल्दर बाबू बोले-राजेश मैंने अपनी आंखें खुद नष्ट कर ली हैं।

 मैने पूछा वह कैसे।

उन्होंने कहा-मैंने अपनी एक बांग्ला कविता में लिख दिया था-एक दिन सूर्य केडे नेबे अमार चोखेर ज्योति। इसका हिंदी में अर्थ है कि -एक दिन सूर्य छीन लेगा मेरी आंखों की ज्योति।

वे बोले- देखो मैं लगभग अंधा हो गया हूं।

बड़े बूढे भी बोलते हैं कि जो भी बोलो सोच समझ कर तोल मोल कर बोलो क्योंकि मुंह से निकली बोली और बंदूक से निकली बोली गहरा घाव करती है बंदूक की गोली का घाव भले भर जाये लेकिन बातों से मिले घाव मुश्किल ही भरते हैं। (क्रमश:)

 

 

 

No comments:

Post a Comment