Tuesday, December 10, 2024

अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती से दिलचस्प और यादगार भेंट

आत्मकथा-72

 


जनसत्ता में फिल्म से संबंधित समाचारों, समारोहों आदि के कवरेज का जिम्मा मुझ पर ही था। फिल्मों से संबंधित सारी खबरों के अलावा कभी कभी मैं जनसत्ता के साथ मुफ्त में दी जानेवाली साप्ताहिक पत्रिका सबरंग में फिल्मों से संबंधित आमुख कथा अर्थात कवर स्टोरी भी लिखता था। इसलिए कोशिश यह होती थी कि कोलकाता में फिल्मों से संबंधित यथासंभव हर खबर की रिपोर्टिंग की जाती थी।

 एक बार पता चला कि अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती कोलकाता आये हुए हैं और यहां कुछ देर रुक कर दार्जिलिंग जाने वाले हैं। वे राजकीय अतिथि थे। तत्कालीन पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा दार्जिलिंग में उनका राजकीय सम्मान होना था। मुझे पता चला तो सोचा उनसे मिलना और कुछ बात करना आवश्यक है। वे दमदम एयरपोर्ट के पास अशोका होटल में रुके हुए थे। अब इस होटल का अस्तित्व नहीं है। उनसे संपर्क किया तो उन्होंने कहा-जल्द आ जाइए मैं दार्जिलिंग के लिए निकलने वाला हूं। मैने टैक्सी पकड़ी और अशोका होटल पहुंच गया। वहां जाकर देखा कि होटल को स्थानीय पुलिस ने घेर रखा था।

 मैंने होटल के भीतर प्रवेश करना चाहा तो उन्होंने रोकते हुए कहा-आप ऊपर नहीं जा सकते वहां हमारे राजकीय अतिथि अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती रुके हुए हैं। हमें आदेश है कि उनसे किसी को ना मिलने दिया जाये।

मैंने कहा-ठीक है आप इतना तो कर सकते हैं कि मेरा नाम लेकर उनसे पूछ लें कि क्या वे मुझसे मिलना चाहते हैं या नहीं।

 इस बात पर वे राजी हो गये और उन्होंने मिठुन को फोन किया। मिठुन की ओर से जवाब आया-उन्हें भेज दो मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूं।

इस पर एक पुलिस अधिकारी ने कहा- आप जाइए वे आपका ही इंतजार कर रहे हैं।

 मै ऊपर गया तो देखा मिठुन पत्रकारों से घिरे थे। इनमें एक बांग्ला दैनिक युगांतर के बुजुर्ग पत्रकार थे और दूसरे बांगला दैनिक वर्तमान के सुमन गुप्त। अन्य पत्रकारों का नाम याद नहीं आ रहा। मैंने देखा की मिठुन ने उठ कर युगांतर के पत्रकार के पैर छूकर आशीर्वाद लिया।

उन्होंने मुझे बुला कर पास बैठा लिया। वे खिचड़ी खा रहे थे। उन्होंने मुझसे भी कहा कि आप भी कुछ लीजिए। मेरे मना करने पर भी वे एक जलेबी खिलाये बगैर नहीं माने। उसके बाद बातों बातों में वे बोले कि मैं दूसरे कलाकारों की तरह नहीं। मैं सबसे मिलता हूं। आपको पता चले कि मैं कोलकाता आया हूं आप फोन कर के मुझसे मिलने आ सकते हैं। वे जिस चेयर पर बैठे थे उसके सामने की टेबुल पर एक नीले रंग की शीशी रखी थी। उन्होंने बताया कि यह क्रीम इटली के एक फैन ने भेजी है उसने कहा था कि इससे रंग साफ होता है।

फिर उन्होंने मुझसे पूछा –देखिए कुछ फर्क पड़ा है क्या।

मैंने देखा कोलकाता के स्टूडियो में वर्षों पहले हुई भेंट के बाद से उनके चेहरे के रंग पर काफी फर्क आया था।



            मिठुन चक्रवर्ती का इंटरव्यू लेते हुए

जिंदगी के शुरुआती दिनों में मिठुन ने बहुत कष्ट झेले। युवावस्था में गरीबों,श्रमिकों पर होनेवाले शोषण के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए वे चारु मजुमदार और कानू सान्याल जैसे वामपंथी नेताओं से प्रेरित होकर वामपंथी आंदोलन में शामिल हो गये थे। वे इन दोनों नेताओं ने गरीबों मजदूरों के साथ होने वाले शोषण और अत्याचार के खिलाफ आंदोलन चलाया था जो बंगाल के नक्सलबाडी क्षेत्र से शुरू हुआ था। बाद में इस आंदोलन से मिठुन का मोह भंग हो गया और वे उससे अलक हो गये।

इसके बाद उन्होंने मार्शल आर्ट सीखना शुरु किया फिर फिल्मों में तकदीर आजमाने मुंबई चले गये गये। फिल्मों में चांस पाने के लिए उन्होंने बड़े कष्ट झेले। अपने सांवले रंग के लिए लोगों के व्यंग्य भी सुनने पड़े। बाद में वे अभिनय का प्रशिक्षण लेने पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट में दाखिल हो गये। वहां उन्होंने अभिनय का कोर्स पूरा किया और गोल्ड मेडल लेकर उत्तीर्ण हुए।

 उन्हें फिल्म में अभिनय का पहला अवसर प्रसिद्ध  फिल्मकार मृणाल सेन ने अपनी फिल्म मृगया में अभिनय का अवसर दिया।  अपनी उस पहली फिल्म में ही मिठुन चक्रवर्ती ने राष्ट्रीय पुरस्कार पा लिया। उसके बाद अन्य दो फिल्मों के लिए भी उन्हें श्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। वर्ष 2024 में उनको फिल्मों को दिया जानेवाला सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान दादा साहब फालके पुरस्कार प्रदान किया गया।

स्थानीय सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक खबरों के कवरेज की दृष्टि से जनसत्ता अपने तत्कालीन प्रतिद्वंदी अखबारों से इसलिए आगे था क्योंकि वह मात्र एजेंसियों या फीचर सर्विस की सेवाओं पर आश्रित ना रह कर अपने लोगों से यथासंभव कवरेज करवाता था। यह इसलिए संभव हो पाता था क्योंकि प्रभाष जी ने अच्छा अखबार निकालने के लिए हर विभाग को मर्यादित रहते हुए हर तरह की स्वतंत्रता दे रखी थी। प्रभाष जी बीच बीच में आकर संपादकीय टीम के साथ बैठक करते और आवश्यक दिशा निर्देश देते थे। जनसत्ता में दूसरे अखबारों के लिए

ऐसा नहीं था कि एक संपादक बैठा दिया ना कोई दिशा निर्देश ना यह आकलन कि अखबार कैसे निकल रहा है,उसकी नीति,दशा दिशा क्या है। बस एजेंसी से आयी खबरें छाप दीं ना कोई विश्लेषण ना विशेष रिपोर्ट।

  जनसत्ता का एक और आकर्षण था जनसत्ता के साथ रविवार को दी जाने वाली पत्रिका सबरंग। अकसर मुझे भी इसमें लिखने का मौका मिलता था। कभी कभी तो इसके किसी किसी अंक की आमुख कथा भी मैंने लिखी।

 मैं मीडिया महानायक सुरेंद्र प्रताप सिंह की छत्रछाया में आनंद बाजार प्रकाशन के लोकप्रिय हिंदी साप्ताहिक रविवार में पत्रकारिता के गुर सीख कर आया था इसलिए प्रभाष जोशी जी के निर्देश और उनकी दृष्टि को समझ कर तदानुसार कार्य करने में कोई असुविधा नहीं हुई। (क्रमश:)

 

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