Thursday, August 18, 2011

अन्ना पर टिकी हैं देश की निगाहें

क्या रामलीला मैदान से निकलेंगी उम्मीद की राहें
राजेश त्रिपाठी
आखिरकार सरकार को अन्नाग्रह के आगे झुकना ही पड़ा। उसे अन्ना की मांगें माननी ही पड़ीं। यह एक व्यक्ति विशेष की विजय नहीं बल्कि जनशक्ति की विजय है। वह जनशक्ति जिसके आगे बड़ी-बड़ी शक्तियां नत मस्तक होने को बाध्य होती हैं। सरकार से गलती यह हुई कि उसने अन्ना को पहचानने में भूल की। इसके अलावा उसने यह आंकने में भी भूल की कि जिस व्यक्ति के साथ सारा देश खड़ा हो, उसके एक इशारे, एक आह्वान पर हर वर्ग, हर उम्र और हर पेशे से जुड़े लोग उद्वेलित और आंदोलित हो उठे हों वह कोई साधारण आदमी नहीं। वह तो आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष का एक ऐसा प्रतीक बन गया है जिस पर पूरा देश किसी भी सरकार, किसी भी संविधान और प्रशासन से ज्यादा यकीन करता है। कभी गांधी ने लोगों को दासता से मुक्ति दिलायी थी आज भ्रष्टाचार को मिटाने की भीष्म प्रतिज्ञा कर चुका यह प्रतिबद्ध और प्रखर सेनानी लोगों में उम्मीद जगा रहा है। उन्हें लगता है कि अगर हम अन्ना के साथ चले तो उस भ्रष्टाचार को परास्त करने में कामयाब होंगे जो हमारी गणतांत्रिक प्रणाली को घुन की तरह खाये जा रहा है। वे अन्ना के नेतृत्व में संघर्ष इसलिए कर रहे हैं कि उन्हें आनेवाली पीढ़ी के लिए एक ऐसा भारत देना है जो गांधी के सपनों को पूरा करता हो। जहां समानता हो। ऐसा न हो कि किसी के पास इतना खाना हो कि फेंकना पड़े और किसी के पास पेट भरने को एक निवाला भी न हो। ऐसा भारत जहां किसानों को आत्महत्या न करनी पड़े। साहूकार के कर्ज में दब कर कई पीढ़ियों को बंधुआ मजदूरी करने को मजबूर न होना पड़े। किसी सरकारी काम कराने के लिए किसी को घूस न देनी पड़े। अन्ना यही तो चाह रहे हैं। क्या एक देश में इस तरह की आकांक्षाएं, इस तरह के सपने अपराध हैं? क्या गणतंत्र ऐसा ही होता है कि किसी को सत्ता सौंपी जाये और वह भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के बजाये उसके खिलाफ आवाज उठाने वाले की आवाज ही दबाने की कोशिश करे? अन्ना आज तो कर रहे हैं या जिस बात के लिए लड़ रहे हैं, दरअसल वह काम तो सरकार का था कि वह प्रशासन को भ्रष्टाचार मुक्त करे उलटे वह अन्ना को ही परास्त करने की कोशिश करने लगी। पता नहीं उसके किस सलाहकार ने अन्ना को उस वक्त गिरफ्तार करने की सलाह दी थी जब उन्होंने कानून तोडा़ भी नहीं था। सरकार का दाव तो उलटा पड़ गया। गिरफ्तारी के बाद तो अन्ना का समर्थन और बढ़ गया। खैर अरसा बाद ही सही सरकार को अक्ल आयी और उसने वही किया जो उसे पहले कर लेना चाहिए था। अगर सरकार पहले अन्ना की बातें मान लेती तो उसकी इतनी किरकिरी न होती । सड़क से लेकर संसद तक उसकी फजीहत हुई। हां, कुछ ऐसे लोग जो इस वक्त सरकार की कृपा पाना चाहते हैं वे जरूर उसकी तरफदारी और अन्ना का विरोध करते रहे। लेकिन इन उंगलियों पर गिने जाने वाले चंद लोगों से भारत नहीं बनता। भारत बनता है उस अपार जनसमूह से जो भूखा-प्यासा अन्ना के साथ डटा रहा। छोटे-छोटे बच्चे तक इस संघर्ष में कंधा से कंधा मिला कर चलते रहे। भले ही उन्हों जन लोकपाल और सरकारी लोकपाल के बारे में पता न हो लेकिन उनमें से कई ने कहा अन्ना अच्छा काम कर रहे हैं, हम उसमें उनका साथ दे रहे हैं। कुछ ने यहां तक कहा अन्ना अच्छे आदमी हैं हम उन्हें छुड़ाने आये हैं। यह संदेश उन कानों तक भी पहुंचा ही होगा जो सिर्फ और सिर्फ ठकुरसुहाती सुनना पसंद करते हैं और एयरकंडीशंड कमरों में बैठ कर रेगिस्तानी धूप में जलते, बर्फानी हवाओं से पीड़ित लोगों के दर्द दूर करने की कागजी योजनाएं बनाते हैं।
      हमारी गणतांत्रिक और संसदीय प्रणाली में अगाध आस्था है। सांसदों के प्रति भी सम्मान का भाव है लेकिन इन संस्थाओं और इसके कर्णधारों को भी अपने दायित्व से विमुख नहीं होना चाहिए। वे भी देश के प्रगति, सेवा की शपथ लेते हैं लेकिन क्या वे इसे ईमानदारी से निभाते हैं। राजनीति को अपराध मुक्त करने की बात सभी दल करते हैं लेकिन कितने लोगों ने इसके लिए ईमानदार कोशिश की है। जब चुनाव आते हैं सांसद या विधायक पद के प्रत्याशी हाथ बांधे जनता के सामने जाते हैं और खुद को उनका सेवक बता कर उनसे सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचाने की गुजारिश करते हैं लेकिन सत्ता पाते ही अपना दायित्व भूल जाते हैं। गणतंत्र का मतलब यह नहीं कि हाथ जोड़े वोट मांगने आयें और सत्ता पाकर निरंकुश हो जायें। सेवक से मालिक बन बैठें। मत भूलें जिस जनता ने आपको जिताया है, बड़ी वह है आप नहीं।
      जब कोई भ्रष्टाचार या सरकारी कुव्यवस्था पर सवाल उठाता है उसे कहा जाता है कि चुनाव लड़ कर आओ संसद या विधानसभा में  अपनी बात रखो। यहां सवाल यह उठता है कि जहां चुनावों में धनतंत्र प्रबल हो, वही जीतता हो वहां कोई आम आदमी इसका सपना कैसे देख सकता है। क्या वह आम आदमी के रूप में अपना दुख-दर्द उन शासकों से नहीं कह सकता जिन्होंने उसकी सुख-सुविधा का शपथ ली थी।
      लोगों के सामने संविधान का नाम लेकर भी कहा जाता है कि देश का अपना एक संविधान है उसके दायरे में रह कर ही सब कुछ किया जा सकता है। इस पर सवाल यह है कि क्या संविधान ब्रह्मवाक्य है जिसे आवश्यकता पड़ने पर सुधारा नहीं जा सकता। इततिहास गवाह है कि सत्ताधारियों ने अपनी सुविधा के लिए कई बार इसे बदला और इससे छेड़छाड़ की है। क्या एक बात जनआकांक्षाओं के लिए इसे बदल कर इसमें जन लोकपाल विधेयक के प्रवाधानों को शामिल करने की सहूलियत पैदा नहीं की जा सकती। सवाल यह भी है कि आखिर सरकार जन लोकपाल से डरती क्यों है। इसमें तो सिर्फ भ्रष्ट अधिकारियों और सांसदों को दंड देने का प्रावधान है सच्चे और साफ चरित्र वालों को तो इससे कोई भय नहीं। फिर इससे डरना क्यों। इसका समर्थन तो हर भले और साफ आदमी को करना चाहिए। यह बातें जनता के बीच से आयी हैं, हम तो सांसद हैं हम कानून बनाने वाले हैं जनता की बात क्यों माने कहीं श्रेष्ठता की यह अहमन्यता तो इस राह में बाधक नहीं? अगर ऐसा है तो जनशक्ति इसके बारे में भी सवाल करेगी और शायद सवाल करने का हक तो गणतंत्र में जरूर होता है।
      अमरीका ने इस आंदोलन से निपटने के बारे में भारत सरकार पर जो टिप्पणी की वह वाकई आपत्तिजनक है उसका प्रतिवाद भी हुआ यह सही है। लेकिन अब उसकी बिना पर अन्ना के आंदोलन में विदेशी हाथ देखना नासमझी है। इसमें न विदेश का हाथ है न पैर इस आंदोलन में तो भारत और उसकी पीड़ित मानवता की आत्मा है। अगर अन्ना के ट्रस्ट या संगठनों में कहीं कोई गड़बड़ी हुई है तो उसकी जांच करने के बाद ही निष्कर्ष निकालना चाहिए। ऐसे कीचड़ उछाल कर अन्ना का मनोबल तोड़ने की गलती नहीं करनी चाहिए। उनके आंदोलन में हर वर्ग और हर जाति के लोग स्वतःस्फूर्त ढंग से जुड़े हैं उनको कोई घर से बुलाने नहीं गया। सरकार ने इस आंदोलन की आंतरिक शक्ति, पूरे देश से इसके जुड़ाव के बारे में गलत अनुमान लगाया। शायद उसके साथ कुछ ऐसे सलाहकार हैं जिनकी बुद्धि इतनी प्रखर है कि जो गलत है वही उन्हें सही लगता है और जो सही है वह या तो उन्हें दिखता नहीं या वे देख कर भी अपने आकाओं से छुपाये रखना चाहते हैं ताकि उन्हें बुरा न लगे। ऐसा ही आपातकाल के वक्त श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ हुआ था। उनके गिर्द मंडराने वाली चंडाल चौकड़ी ने यही कहा कि देश में चारों ओर उनकी जयजयकार हो रही है जबकि सच्चाई यह है कि इंदिरा गांधी का आधार हिल रहा था। बाद में उनकी जैसी महाशक्ति को जाना पड़ा। इतिहास हमेशा अपने को दोहराता है लेकिन कोई भी प्रबुद्ध और ईमानदार आदमी यह नहीं चाहेगा कि देश में बार-बार सत्ता परिवर्तन हो क्योंकि इसका खामियाजा अंततः जनता को ही भोगना पड़ता है। हम यही चाहेंगे कि शासकों में सुबुद्धि आये, वे समय नजाकत को समझें, देश की नब्ज पहचानें और वही करें जो इस वक्त बहुत ही जरूरी और सही है। जहां तक अन्ना के मनोबल तोड़ने के लिए की जा रही शरारतों का जिक्र है तो इस अदम्य सेनानी की  निष्ठा से यह साफ हो गया है कि वह किसी भी भय से झुकने वाला नहीं। उसने जो धर्मयुद्ध छेड़ा है उसकी सकारात्मक
 परिणति के पहले वह चैन नहीं लेगा। उसका हथियार है देश की अपार जनशक्ति जिसने पहले भी अपनी ताकत से सत्ता पलटने में कामयाबी पायी। जयप्रकाश नारायण ने जब 1974 में अपना आंदोलन शुरू किया था तो किसी को कतई यकीन नहीं था कि यह इतना बड़ा आंदोलन हो जायेगा कि इंदिरा गांधी जैसी महाशक्ति को परास्त कर देगा। उस समय राष्ट्रकवि रामाधारी सिंह दिनकर तक ने हुंकार भरी थी-सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
      अन्ना का आंदोलन की खासियत यह है कि उनके साथ सुशृंखल लोग हैं जिन्होंने अब तक शांति बनाये रखी। अन्ना की गिरफ्तारी को छोड़ दे पुलिस प्रशासन ने भी धैर्य और संयम से काम लिया जिससे स्थिति बिगड़ने नहीं पायी। अब सारी नजरें दिल्ली के रामलीला मैदान पर लगी हैं जहां अन्ना अनशन के जरिए अपना धर्मयुद्ध जारी रखेंगे। देखें वहीं से देश के लिए कोई ऐसी राह निकलती है क्या जो एक नया इतिहास बनायेगी। इतिहास सुख का, समता का और सामाजिक सरोकार के प्रति जवाबदेह सत्ता का।

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