-राजेश त्रिपाठी
रोवा सब मिलि भारत भाई। आजु जेंघंय द्याखैं उज्जेर ही उज्जेर द्याखात है। उज्जेर फयशन का, उज्जेर तरक्की का, उज्जेर जेहिसे मनई मनई न रहा मशीन बनगा हय। अउर न जानै केतना और कइसा-कइसा उज्जेर । पै या उज्जेर हमसे हमार बहुतै कीमती चीज –छीन लयिगा हय। अइसन चीज जौने के बिना हमरे देस के पहिचान , हमरे भारत देस के पहिचान, हमरे गांवन के आतमा, गंवई आचार-विचार , भैचारा, गांवन के लोगन के मनुजई हेराय, बिलाय गय है। तरक्की का उज्जेर हमैं आज बैर ढ्वांग, छल-कपट, चारसौबीसी, पखंड औ न जाने कवन-कवन अंध्यर मां धकेल गा हय। हमरे पास आजु सब कुछ हय, टीवी मा चमकती रंगी-चंगी लरकियां , मन बहलावैं के बहुते साधन। अब कतौं जांय खातिर पांव दुखावैं के कौनौ जरूरत गाड़ी मा बइठ के फुर्र दे ज्यंघंय चाहैं चले जांय। बस यहै गड़बड़ भा कि मनई मनई नहीं रहा। नेतवन की राजनीति के फेर मा व हिंदू, सिख और न जाने कंवन-कंवन तरां से बंट गा हय। अब तौ या पूछैं के एक रेवाज होइगै हय कि भइया आप कवन भाई (जात) हंय जइसन जात के बिना मनई के कवनौं पहचानै न्यहांय। आजु बात-बात मा गांवन मां रैफलें तन जात हंय, कोऊ कोहू के काम नहीं आवत। एक समय रहा जब पड़ोसी के घरै चूल्हा न जलै तौ लोग वही खवाये बिना कौर नहीं लीलत रहैं। तरक्की की दौड़ मा हम या सब हेराय बइठे हंय। आजु हम कांचं खा हीरा समुझ के मगन होय रहे हंय पै एकु दिन आइसौं अइहैं जब हम समुझब कि हम जउन पायेहन ओहिसे ज्यादा हेराय बइठे हंय।
जबसे टेलीविजन कै संसकीरती गांवन मा घुसी हय, गंवईं –गांव तौ आपन पहिचानै गंवाय बइठे हंय। लरकईं का गांव आजौं कतौं सुधि मा जिंदा हय, जहां जाड़े मा अलाव सुचा जात रहै औ ओहिके चारौं कइती गांव-घरै कै बड़े बुढ़वन सबै बइठ जाड़े मा कंपकपात आपन देह स्यांकत रहैं। इन अलावन मा शादी-बियाह तय होइ जात रहे, बड़ा-बड़ा झगरा मिट जात रहा। लरकीं मा कोहू खा झगरा के खातिर थाना-कचहरी जात नहीं दीख। मारपीटउ होत रही तौ पंचायती मा सब मिट जात रहा। या व समै के बात हय जब सचमुचै पंच रमीशुर ह्वात रहैं। जेहि पर मार परत वहिका हरदी-चूना ठीक कर देत रहे औ जो कसूर कीन रहै वहिका तनी खीसा (जेब) हलुक करैं का परत रहा। बस इतनै, न अंगरेजी गोली और न सूजी, पट्टी, न थाना, न कचहरी। सच्ची बहुतै नीक रहैं उईं गांव। सुधि के कौनौ अंधियार कोने मा व गांव उदास, मन मारे परा हय। हमरे पास वहिका धीरे-धीरे खतम होत द्याखैं का छोर के और कौनो जतन ने हांय। बहुत मन करत है कि अलाव वले, कजरी , फगुआ वाले , आमन के बागन वाले उईं गावन मा फिर जान डाल द्यांय पै या हमरे बस मा कहां हय। हम तौ तरक्की के मार झेलि रहे हंय जौन हमरे गांव खा मारि डारिस हय। हमसे छीन लिहिस है हमार गीतन से गूंजत उईं पनघट जउन सुहागिन पनिहन्निन के नुपुरन की रुन-झुन से बहुतै मनुहार लागत रहैं। मेहरिया होय चाहै मरद कपरा तब सबकै लाज बचावैं व तन ढाकैं का काम करत रहै। अब तौ सिनिमा व टीवी के चलत गांवन मा मिरजई, पोलका, लहंगा खोयगे हंय। अब तौ टेरीलीन के संसिकीरती गांवन मा घुसिगै हय। मेहरियौ अब पीठ देखाऊ बिलाउज पहिरैं लागी हंय। जंगल मा ढोर-गोरू चरावैं वाले बरेदी (चरवाहे) के होठन पे अब न बंसुरी हय न ओहिसे निकरत मिसरी जइसन मीठ लोकगीतन के धुन। अब तौ व रेडियो से निकरत-‘अंखियों से गोली मारे लड़की कमाल’ सुनि-सुनि के झूमत नजर आवत हय। अगर आपन संसिकीरती छ्वाडैं-भूलैं का नाम तरक्की हय तौ हमरे गंवई-गांव न मा सचमुचै बहुत तरक्की भय हय। हम आपन पहचान खोय बइठे हंय और उधार के संसिकीरती ओढ़-बिछाय रहे हंय औ अचरजु के बात तौ या हय के यही मा हम फूल के कुप्पा होये जात हंय। पै सबसे अजरजु के बात या हय कि हम नीक-निकाम का भेदै नहीं कर पावक हंय। हमार पनघट शोभा खोय बइठे। अलाव की संसकीरती बिलाय गय। बैर एतना बढ़ा कि संझा होतै गांव घरै के भीतर दुबकैं लाग। चोरी-चकारी, डकैती, खून एत्ता बढि़गा की मनई अकेरे बाहर निकरैं मा डेरांय लाग हय। आधी रातन तक जमे रहैं वाले अलाव अब किस्सा-कहानिन कै बात बनगे हंय। गांवन के बूढ़ पीढ़ी घर के एक कोने मा सिमिट के रहिगै, जइसन आजु के जमाना मा व बेमतलब होइगै हय।
लरिकईं की सुध मा न जानै केतनी मीठ और नीक-नीक यादैं बसी हंय।आज जातिन के बीच मा एतना फरक आ गा हय पै पहिले अस नहीं रहा। खूब याद हय परोस के गांव मा मोहर्रम के समय मा हमहूं अपने दोस्त हयात के साथै शामिल होत रहे हन। कबहूं नहीं लाग कि हयात का मातम हमार मातम ना आय़। उनकै दुख मा दुखी सुख मा सुखी ह्वात रहै हंय हम। कौनौ दुराव- फरक नहीं रहा। मनुजई कै बीच मा राजनीति का घुसीस सब कुछ बदलि गा। मनई मनई मां फरक होंय लाग। मुलुक के गंगा-जमुनी संसकीरती किस्सा-कहानी बन के रहि गै।
नवा जमाना का आवा सबकै चालै-ढाल बदल गय। एक बखत रहा जब बड़ा से बड़ा बोखार नाई-दुरई और नीम के डंठुअन के काढ़ा से ठीक होई जात रहा। आज तौ बात-बात मा कैपसूल औ सूजी (इंजेक्शन) घुसेरी जात हय। अपनी गांवन की जरी-बूटी मा कोहू का विश्वासै नाहीं रहा। पहिले दादी मां के घूंटी पी, मां के दूध से ।क औ दार-रोटी खाय के बच्चा लोग मुस्टंड होय जात रहै। आज डेब्बा के दूध पी के औ खाना खाय के बच्चा सब टुटरूं टूं होय गय हंय। अपने दूध के साथ मां ममता पिलावत रही हंय। अब डेब्बा के दूध पी कै बच्चा मां के ममता भूल गय हंय। उनमा अंगरेजिया संस्कार भरे जात हंय। कबहु रामायन के चौपाई औ गीता के इश्लोक सुन कै आंखी खुलती अब रिमिक्स का हथौड़ा मार शोर से झन्नाय जात हय देमाग। अब जब ई हाल हंय त संसकारौ अइसन होइहैं। अब तौ महतारी-बाप बियाह के बादै बेटवन खा माहुर (जहर) लागंय लागत हंय। हम सबकै खातिर या नहीं कहथ्यांन, अबहुं कुछ सरवन कुमार अइसन संतान हवैं जौनेन खातिर जनम देयं वाले महतारी-बाप देवतन के समान हंय। आखरी सांस तक उईं ओनकै देवतन अस पूजा और सेवा करत हंय। इनहिन जइसे संतानन खातिर हमार देश आजउ महान हय।
गंवई-जवार के परुनिका सब लोगन के सामने से उनका जुग खतम ह्वात जात हय और ओनके पास कौनौ रास्ता नेहाय। उईं द्याखत हंय कि अपनेन बनाये कुटंब मा व कौन तरा बेकार जिनिस बनगे हंय। एक दिन अइसौ रहा कि उनके फिकिर सब कोऊ करत रहा। अब हालत या हय के बूढ़ी काया खुदै ढ्वावैं का परत हय । ऊपर से घरवालन के तरा-तरा कय हुकुम , जेहिका न बजावैं तो गारी और फटकार।
अब अइसा होयगा हय गांवन का संसार, गांव जहां कहत हंय कि हमार देश बसत है। या देख कै आंखैं भर अउती हंय। लागत हय कि अगर तरक्की हमैं यहै सब दिहिस हय तौ भगवान करै अइसन तरक्की कौनौ देश मा न आवै। आज आपन देश, आपन गांव कय संस्कार मरगे हंय। कोउ मरत हय तौ उछाह नहीं दुख ह्वात हय। यावा अपने गंवई-गांव औ देश कय या दुरदसा पर हमहुं रोई। रोवा सब मिलि भारत भाई।
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