Sunday, October 7, 2012

शर्म उनको मगर नहीं आती


-राजेश त्रिपाठी

हमारा देश आज ऐसे संधिकाल में खड़ा है, जहां एक ओर लूटतंत्र है वहीं दूसरी ओर विपन्न आर्थिक व्यवस्था और तथाकथित आर्थिक सुधारों के चलते बढ़ती महंगाई से सिसकता समाज है। जनतंत्र यहां अंतिम सांसें ले रहा है, लूटतंत्र व्यवस्था का अंग बन चुका है और इसके खिलाफ आवाज उठाना एक गुनाह। इस लूटतंत्र और स्वेच्छारिता के खिलाफ जो भी आवाज उठाने की कोशिश करता है, उसे येन-केन प्रकारेण दबा दिया जाता है या उस पर साम,दाम, दंड, भेद के दांव आजमा कर उसे परास्त करने की हर मुमकिन कोशिश की जाती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गये हर आंदोलन के सफलता से पहले तिरोहित या खत्म होने के पीछे ऐसे आंदोलनों के पीछे एक गंभीर सोच का अभाव व सही लोगों के न जुड़ पाना है। जो इन आंदोलनों से जुड़ते हैं वे निस्वार्थ भाव से नहीं जुड़ते। उनके साथ कोई न कोई महात्वाकांक्षा भी जुड़ी चली आती है। वैसे हर एक के लिए यह नहीं कहा जा सकता। इसमें कई ऐसे लोग अपवाद हैं जिनका एकमात्र सपना अपने देश को भ्रष्टाचार मुक्त होते देखना है और कुछ नहीं। जब-जब ऐसे आंदोलन शुरू होते हैं, सत्ता पक्ष (चाहे वह किसी दल या नीति का पोषक हो) उसे येन-केन प्रकारेण खत्म करने, दबाने (कुचलने कहें तो उचित होगा)  में लग जाता है। अण्णा के आंदोलन का क्या हस्र हुआ? अण्णा  के आंदोलन के पीछे स्वार्थ और राजनीति के रंग देखने वालों से एक ही सवाल है कि अगर ऐसा है भी तो क्या अण्णा की ओर से उठाया गया सवाल आज हर भारतवासी की वाणी से नहीं निकलना चाहिए। महंगाई की मार क्या सिर्फ अण्णा झेल रहे हैं? वह तो (अगर उनके कहे पर यकीन करें) स्कूल में रहते हैं, मंदिर के प्रसाद से पेट भरते हैं। उन्हें महंगाई की पीर क्यों और कैसे होने लगी? देश में बढ़ते भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और लूटतंत्र के खिलाफ उन्होंने एक अहिंसक आंदोलन छेड़ा था, जो हर भारतवासी का धर्मयुद्ध था। यह उनकी व्यक्तिगत लड़ाई नहीं थी। और यदि इसके पीछे उनकी मंशा राजनीति में आने की ही थी तो क्या बुरा था? जब राजनीति में अपराध से जुड़े लोगों तक की पैठ है तो फिर अण्णा जैसे व्यक्ति क्यों नहीं आ सकते? एक बात और अगर देश की सत्ता, प्रशासन में कुछ गलत हो रहा है तो उसके खिलाफ आवाज सड़कों पर भी तो बुलंद हो सकती है इसके लिए संसद तक जाने की मजबूरी नहीं होनी चाहिए। माना कि संसद कानून बनाती है लेकिन एक गणतांत्रिक देश में कोई भी अहम या जनता से जुड़ा फैसला करने से पूर्व क्या यह जरूरी नहीं कि पहले यह देखा जाये कि इसका उस जनता पर क्या असर पड़ेगा, जिसकी सरकार है। देश की अर्थव्यवस्था कि स्थिति आज इतनी बदहाल हो गयी है कि हर भारतीय अपने सिर पर 46 हजार का कर्ज लिए घूम रहा है। लूटतं  त्र और सत्ता की मनमानी जारी है। रियायत खत्म की जा रही है और महंगाई का बोझ दिनौं दिन बढ़ाया जा रहा है। मध्यम वर्ग का जीना मोहाल है जो संपन्न हैं उनके लिए मूल्यवृद्धि कोई मायने नहीं रखती। जनता पर तरहतरह का शिकंजा कसने वाले शासक या सत्ताधारी दूसरों को मितव्ययिता का पाठ पढ़ाते हैं लेकिन खुद अपने अनाप-शनाप के खर्चों पर पाबंदी लगाने को तैयार नहीं हैं। वे करोड़ों रुपये अनुत्पादक विदेश यात्राओं, विलासिता में फूंक देंगे पर यही नहीं सोचेंगे कि यह पैसा जो वे उड़ा रहे हैं जनता की खून-पसीने की कमाई का है। इसे इस तरह खर्च करने का उन्हों कोई हक नहीं। सरकार जो आयकर लेती है उसके विज्ञापनों में अक्सर लिखा जाता है इस पैसे से स्कूल, अस्पताल और जनसेवा के दूसरे प्रतिष्ठान बनते हैं इसलिए कर अवश्य चुकायें। लेकिन उस धन का उपयोग कई अनुत्पादक कार्यों में भी हो रहा है। लूटतंत्र जारी है, घोटालों. घपलों में करोड़ों रुपये जाया हो रहे हैं। कोई मालामाल हो रहा है और आम जनता खस्ताहल। लूटनेवालों को शर्म नहीं आती। एक घोटाला खत्म होता है तो दूसरा निकल आता वह भी पहले से बड़ा और गंभीऱ। हे भगवान मेरे भारत को क्या हो रहा है। नेताओं से भरोसा उठ गया अब तू ही रक्षा कर।

      उदारीकरण के नाम पर आज एक ओर जहां आम आदमी से रियायतें छीन कर उसे महंगाई से मरने को मजबूर किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर एफडीआई को खुदरा व्यवसाय में प्रवेश की अनुमति दे दी गयी है। इसके अब ऐसी बहुऱाष्ट्रीय कंपनियों का रास्ता खोला जा रहा है, जो के लिये देश के द्वार खोल दिये गये हैं जो यहां के खुदरा व्यवसाय में अपना प्रभुत्व और वर्चस्व कायम करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगी। जो पंचमुख से इस निर्णय का स्वागत कर रहे हैं, ऐसी कंपनियों के लिए पलक पांवड़े बिछाये बैठे हैं उनसे कुछ सवाल हैं-क्या ये कंपनियां यहां चैरिटी करने आ रही हैं या पश्चिम में उनके अवसर खत्म हो गये हैं इसलिए उन्होंने पूर्व का रुख किया है। भारत जैसा विकासशील देश उन्हें एक फायदेमंद बाजार दिख रहा है इसलिए वे यहां पांव पसारने और यहां की संपदा को आत्मसात करने को आतुर हैं। क्या हम कोई ऐसी स्वदेशी व्यवस्था नहीं तैयार कर सकते कि हमें विदेशी कंपनियों की आवश्यकता ही न पड़े। राज्य सरकारें या केंद्र सरकार ऐसी व्यवस्था कर सकती है जिससे किसान और बाजार के बीच से बिचौलिया प्रथा खत्म हो जाये। व्यवस्था यह हो कि सरकारी उगाही संस्थाएं खेत से सब्जी या दूसरे उत्पाद खरीदें और शहरों की अपनी दूकानों में उचित कीमत पर बेचें। इसके लिए देश के ही उद्यमियों को भी जोड़ा जा सकता है जिनके पास धन की कमी नहीं है। कई ऐसी शृंखलाएं कुछ जगह काम कर भी रही हैं और कामयाब भी हो रही हैं। किसानों को उनके उत्पाद का अच्छा मूल्य भी मिल रहा है और लोगों को भी नित्य प्रयोजनीय वस्तुएं अच्छे स्तर की अच्छे मूल्य पर मिल रही हैं। पता नहीं क्यों हम जब भी संकट में होते हैं पश्चिम की ओर निहारने लगते हैं लेकिन हकीकत यह है कि जब पश्चिम आर्थिक बदहाली झेल रहा था, हमारा देश अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में था।

      केंद्र में सरकार किसी भी दल की हो उसे सबसे पहले उस व्यक्ति के बारे में सोचना चाहिए जो सीमांत व्यक्ति है। जिसकी जरूरते सीमित लेकिन साधन न्यून हैं। उसके लिए नित्य प्रयोजनीय वस्तुओं में एक-दो रुपये की वृद्धि भी उसका घरेलू बजट बिगाड़ देगी। यही हाल मध्यम वर्ग का भी है। माना कि प्रति व्यक्ति औसत आय बढ़ी है लेकिन इतनी भी नहीं बढ़ी कि आज तक वह जो गैस सिलिंडर 400 रुपये में खरीदता था उसे 1000 रुपये में खरीद सके। पहले यह तय पाया गया था कि छह गैस सिलिंडर रियायती कीमत पर मिलेंगे और उसके बाद का सिलिंडर 750 रुपये में। अब सुना जा रहा है कि गैस कंपनियां हर माह गैस सिलिंडर का दाम तय करेंगी फिलहाल जिसकी कीमत 1000 रुपये के करीब बतायी जा रही है। अब तो रियायती सिलिंडर का दाम भी 11.42 रुपये बढ़ा दिया गया है। सरकार धीरे-धीरे हर चीज से रियायत हटा कर कंपनियों को खुली छूट दे रही है कि वह अपना घाटा (?) पूरा करने के लिए जैसी चाहें कीमत तय करें। तेल कंपनियों क्या वाकई घाटा हो रहा है? सरकार बहादुर का कहना है तो अवश्य हो रहा होगा। लेकिन एक सवाल यह है कि बरसों से घाटे में चल रही ये कंपनियों अपने अधिकारियों को अनाप-शनाप तनख्वाह फिर किस कदर दे पाती हैं।

      कैसी है हमारी सरकार, कारपोरेट क्षेत्र को तो रियायतों का भंडार लुटा रही है और गरीब जनता पर महंगाई का भार बढ़ाती जा रही है। कहा यह जा रहा है कि 1992 से लेकर आज तक देश ने घोटालों में तकरीबन 73 लाख करोड़ रुपये गंवाये हैं। इसमें हाल के बड़े घोटालों में हुई लूट शामिल नहीं है। उधर स्विस बैंक में भी देश का अकूत काला धन जमा है। अगर यह घोटाले न होते, स्विस बैंक से काला धन वापस आ गया होता तो शायद जनता पर महंगाई की यह मार न पड़ती और देश अपने इस धन से सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था के साथ आगे बढ़ रहा होता। क्या कहें, इसके लिए कोई गंभीर नहीं। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष काला धन वापस लाने की बातें सभी करते हैं लेकिन किसी ने गंभीरता से इस ओर कदम नहीं उठाया। उठायें भी कैसे आज के शासकों में निष्ठा और दृढ़ निश्चय का नितांत अभाव है। उनकी आराध्य, उनका काम्य सिर्फ और सिर्फ सत्ता है और इसमें चिपके रहने के लिए वे कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं। इसके लिए सत का साथ त्याग असत का दामन थामने में भी उनको कोई झिझक नहीं होती। सत्ता इस कदर निरंकुश और स्वेच्छाचारी हो गयी है कि अपने ऊपर उठी उंगली को ही तोड़ने में आमादा हो गयी है। पहले माना यह जाता था कि निंदा या आलोचना की कद्र की जानी चाहिये क्योंकि आपको यह गलत करने से रोकती है लेकिन अब तो उलटा ही हो गया है। शासक सामान्य सी आलोचना तक से बिफर पड़ते हैं और आलोचक को ही दोषी बताने की कोशिश करने लगते हैं। आज के युग में सत्ता के खिलाफ (भले ही वह तार्किक और सत्य पर आधारित हो) लिखना गुनाह हो गया है। जाने कितने ऐसे लोग कदम दर-कदम परेशानी झेल रहे हैं। ये स्वस्थ  गणतांत्रिक प्रणाली के लक्षण तो नहीं। इसमें राजतंत्र की बू आ रही है। जिसमें माहौल कुछ ऐसा है कि राजा के किसी अनाचार पर आवाज उठाओ और अपने लिए परेशानी  मोल लो। कभी निरंकुश सत्ता के खिलाफ जयप्रकाश नारायण ने क्रांति का आह्वान किया था और छात्र शक्ति के बल पर वह अपने इस प्रयास में कामयाब भी हुए। यह और बात है कि उनके प्रयास से जो सत्ता देश में आयी वह भी अपनी गलतियों से पराभव का शिकार हुई लेकिन एक क्रांति लाने का श्रेय तो जयप्रकाश जी को जाता ही है। अण्णा ने कोशिश की लेकिन शायद वे अपना होमवर्क पूरा किये बगैर परीक्षा में बैठ गये और उन्हें वह कामयाबी नहीं मिली जिसकी उन्होंने कामना की थी । यह बात अवश्य है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ देश को उद्वेलित करने में वे कामयाब रहे। प्रशासन में स्वच्छता, शुचिता लाने के प्रयास का जो बीच उन्होंने आज रोपा है, संभव है उससे फल मिलने में कुछ वर्ष लगें लेकिन यह तय है कि आज नहीं तो कर अनाचार के खिलाफ जोरदार आंदोलन उभरेगा ही। किसी भी देश की जनता बहुत लंबे अरसे तक भ्रष्टाचार, अनाचार, लूट नहीं सह सकती। इतिहास गवाह है कि जनशक्ति के आगे बड़ी-बड़ी ताकतों को मुंह की खानी पड़ी है।

      खुदरा व्यवसाय में एफडीआई यानी ऐसे व्यवसाय में सीधे विदेशी पूंजी नियोग की अनुमति सरकार ने दे दी है लेकिन इसका क्या कि पश्चिमी देशों में     वालमार्ट जैसी कंपनियों का जम कर विरोध हो रहा है। अमरीका में तो अरसे तक इसके खिलाफ आंदोलन चला, वाल स्ट्रीट तक में धरना-प्रदर्शन और घेराव हुआ और अंततः वालमार्ट वहां नहीं पैठ सका। क्या अमरीकी नासमझ हैं जो इतनी अच्छी कंपनी का विरोध कर रहे हैं? क्या हमारे सोच का स्तर उनसे प्रबुद्ध और ऊंचा है? अगर ऐसा नहीं है तो फिर कम से कम खुदरा व्यवसाय में हम विदेशी निवेश के मुंहताज क्यों हो रहे हैं?

      आज लोग पश्चिम बंगाल की मु्ख्यमंत्री ममता बनर्जी की नीतियों की कितनी भी आलोचना करें पर यह सच है कि उन्होंने मूल्य वृद्धि और खुदरा व्यवसाय में एफडीआई के विरोध में बहुत बड़ा कदम उठाया है। जनहित में उन्होंने अपने राज्यहित की भी परवाह नहीं की। जब केंद्र सरकार गैस, डीजल की मूल्यवृद्धि और खुदरा व्यवसाय में एफडीआई के निर्णय को वापस लेने के उनके अनुरोध को स्वीकारने को तैयार नहीं हुई तो उन्होंने वह निर्णय लिया जिसकी हिम्मत शायद ही कोई और कर पाता। उन्होंने अपने छहों मंत्रियों को हटाने के साथ-साथ केंद्र सरकार से समर्थन भी वापस ले लिया। उन्होंने यह दिखा दिया कि वे जननेत्री हैं और जनता के हित के साथ कोई समझौता नहीं कर सकतीं। इसमें कोई राजनीति के कितने भी रंग और स्वरूप देखे लेकिन इसका पहला और सीधा अर्थ यह है कि जनता के बीच से आयीं ममता जनता के हित के साथ कोई समझौता करने को तैयार नहीं भले ही इसका नतीजा जो भी हो। काश देश के दूसरे नेताओं में भी ऐसी भावना होती कि वे लूटतंत्र और जनविरोधी कदम उठाने वालों के खिलाफ  शक्ति के साथ एकजुट होकर खड़े हो पाते। एकता में शक्ति होती है। अगर अनाचार और लूटतंत्र के खिलाफ एकजुट होकर आंदोलन किया जाये तो सफलता अवश्य ही होगी और लूटतंत्र का खात्मा होगा। सत्ता में ए बी सी कोई भी हो उसे यह ध्यान रखना होगा कि उसका पहला और प्रमुख दायित्व उस जनता के हित की रक्षा है जिसकी वजह से वह गद्दी में है। आज स्थिति यह है कि जनता किंकर्तव्यविमूढ़ वह किसे चुन कर लाये। वह नागनाथ को हटाती है तो सांपनाथ को लाना पड़ता है ऐसे में जनहित में किसी तरह के सुधार या कानून की उम्मीद करना बेकार है। वैसे राह तो निकाली ही पड़ेगी। अब तो हद हो गयी है । आम जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। देखना यह है कि क्या निरंकुश सत्ता चेतती है या फिर जनता को ही कोई ऐसी राह निकालनी होगी जिससे देश की दशा-दिशा सार्थकता, शुचिता की ओर मुड़े और उसकी जनता की दीनता, दुख कटें। अब वह दिन आ गया है कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को छोड़ कर हर उस व्यक्ति की विदेश यात्राओं का लेखा-जोखा रखा जाये जिनकी यात्राएं अनुत्पादक हैं और जिन पर बेवजह देश का पैसा जाया होता है। देशों के बीच संबंधों की सुदृढ़ता के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के दौरों का औचित्य है लेकिन जो मंत्री या अधिकारी सरकारी खर्च पर जरूरत से अधिक विदेश यात्राएं करते हैं उनके बारे में यह भी देखा जाना चाहिए कि इससे देश को क्या मिला? क्या जनता को यह भी जानने का हक नहीं रहा कि उसकी गाढ़े पसीने की कमाई कहां और किस तरह लगायी जा रही है। यह गणतंत्र है इसमें सत्ता जनता के प्रति जवाबदेह होती है और कोई भी शक्ति उसे जनता से विमुख होने पर बचा नहीं सकती। जवाबदेही की इस बात को सभी को अपने जेहन में रखना होगा और तदनुसार काम करना होगा। कोई भी ऐसा निर्णय जो देश के हित में न हो, हर हाल में उसे टालना होगा। यही सत्ता का धर्म और वक्त का तकाजा है। ढेर सारी सुख-सुविधाएं और रियायतें भोग रहे राजसी जीवन व्यतीत करते शासकों और नेताओं को क्या यह नहीं सोचना चाहिए कि वे अपनी रियायतें थोड़ा कम कर दें, खर्च थोड़ा घटा दें तो महंगाई की मार झेलते लोगों का थोड़ा ही सही बोझ कम हो जायेगा? आज नहीं तो कल उन्हें यह सोचना ही होगा क्योंकि चीजें उसी दिशा में जा रही हैं। ईश्वर मेरे देश और इसके नियंताओं को सद्भावना, सद्विचार दे ताकि वे जन कल्याण के पथ पर चल सकें।

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