क्या राजनीति में बेदाग व्यक्तियों का अकाल पड़ गया है?
राजेश त्रिपाठी
राजनीति के परिष्कार के लिए और इसमें आपराधिक प्रकृति के लोगों की
पैठ रोकने के लिए देश की सुप्रीम कोर्ट ने एक व्यवस्था दी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने
फैसेल में यह कहा था कि दो साल या उससे ज्यादा समय तक सजा सांसद या विधायक की
सदस्यता छीन ली जानी चाहिए। इसके साथ ही दागी या अपराधी पृष्ठभूमि वाले नेताओं के
चुनाव लड़ने पर भी पाबंदी की बात कही थी। आम आदमी को इस व्यवस्था से कापी उम्मीद
बंधी कि देश में जिस कदर राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है, उस पर अंकुश लगेगा। इस
कदम से राजनीति में ऐसे लोगों का प्रवेश निषेध हो सकेगा जो सजायाफ्ता हैं य़ा किसी
आपराधिक मामले में जिन पर दोष साबित हो गया है और सजा पा चुके हैं। लेकिन अफसोस यह
फैसला कांग्रेसनीत केंद्र सरकार को कतई नहीं भाया। उसने आनन-फानन ऐसे अध्यादेश को
मंजूरी दे दी जिससे दागी नेता भी शान से सांसद या विधायक पद का चुनाव लड़ सकेंगे,
इतना ही नहीं अगर उन्हें सजा भी हुई तो भी उनका सांसद या विधायक का पद ससम्मान
बरकरार रहेगा। यानी ये 'दाग' अच्छे हैं। हमारा केंद्र की सत्ता में बैठे आकाओं से
एक ही सवाल है कि अगर एक बाद किसी तरह से देश की राजनीति से दागी और आपराधिक छवि
वाले नेताओं के परिष्कार का रास्ता खुला है तो इसमें बाधा क्यों डाल रहे हैं। क्या
आपके लिए ये 'दाग' अच्छे हैं? क्या राजनीति में अच्छे लोगों का अकाल पड़ गया है जो
आप इन दागदार नेताओं को ढोने को मजबूर हैं। इनकी सही जगह जहां है, उन्हें वहां
जाने दीजिए ना। अगर ये निर्दोष होते, इन्हें गलत फंसाया गया होता तब तो इन्हें
बेदाग छूट जाना चाहिए था। अगर इनका दोष साबित हो गया है तो फिर इन्हें देश की
सम्माननीय संसद का हिस्सा बने रहने का सुयोग क्यों दिया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने तो देश के जनप्रतिनिधित्व कानून को स्वच्छ और
सक्षम बनाने के लिए य़ह कदम उठाया था। हर दल और साथ ही केंद्र में सत्ता में बैठी
यूपीए सरकार को भी उसके इस कदम का स्वागत करना चाहिए था और रोड़ा नहीं अड़ाना
चाहिए था। इससे अगर उसके अपने दल के या उसकी सत्ता का समर्थन कर रहे दलों के
नेताओं को कानून के चलते सांसद या विधायक पद छोडना पड़ता तो क्या अनर्थ हो जाता?
ऐसे में तो सरकार की छवि और उज्ज्वल होती कि यह सरकार सत्य के साथ है और चाहती है
कि राजनीति से आपराधिक छवि के लोगों का बहिष्कार हो। लेकिन उलटे इसने तो उन्हें
सुरक्षा प्रदान करने के लिए अध्यादेश रूपी ढाल लगा दी। इस अध्यादेश पर भाजपा ने
आपत्ति जतायी है और राष्ट्रपति से अपील की है कि वे इस पर हस्ताक्षर करने से पहले
एक बार गंभीरता से सोचें। हम किसी दल विशेष के न आलोचक हैं और न किसी के प्रशंसक
लेकिन अगर कोई एक दल सुप्रीम कोर्ट की राय के समर्थन में खड़ा है तो इससे ही यह
स्पष्ट हो जाता है कि देश के नागरिकों को समझना चाहिए कि कौन दल कहां खड़ा है। कौन
दल किस राह पर चल रहा है। कौन दल है जो चाहता है कि राजनीति से आपराधिक प्रवृत्ति
के लोगों का सफाया हो और कौन इन्हें बचाये रखने की हर कोशिश कर रहा है।
वैसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने उपरोक्त फैसले ने सरकार की एक और
पुनर्विचार याचिका स्वीकार की है जिस पर 23 अक्टूबर को सुनवाई होनी है लेकिन उसके
पहल सरकार ने यह अध्यादेश मंजूर कर दिया। इस याचिका के बारे में कोर्ट ने केंद्रीय
चुनाव आयोग और बिहार सरकार को भी नोटिस जारी किया है।
शायद इस अध्यादेश की आनन-फानन जरूरत इसलिए पड़ गयी कि एक कांग्रेस
नेता को दोषी करार दिया गया है। बिहार के एक बड़े नेता पर भी जल्द ही फैसला आने
वाला है। ऐसे में तो राजनीति का परिष्कार होने से रहा। जनता को जिस सत्ता से
उम्मीद है अगर वही उसे नाउम्मीद कर रही है तो वह फिर किसके पास जाये। एक अनुमान के
मुताबिक अभी लोकसभा के 543 सांसदों में से 162 दागी हैं। इनमें से 76 सांसदों के
खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। राज्यसभा भी इससे अछूती नहीं है। इसके 232 में से
40 सांसद दागी हैं जिनमें से 16 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं। देश के
कुल 4032 विधायकों में से 1258 दागी हैं। इनमें से 188 के खिलाफ गंभीर आपराधिक
मामले हैं। य़ह किसी गणतांत्रिक देश के लिए गर्व का विषय तो हो नहीं सकता।
अगर अण्णा हजारे ने एक सशक्त लोकपाल की मांग की थी तो शायद इसीलिए
कि राजनीत स्वच्छ हो, जनोन्मुखी और जनता
के प्रति जवाबदेह हो। उससे आपराधिक छवि वाले और भ्रष्टाचारी नेताओं का सफाया हो
लेकिन उनके आंदोलन का भी कोई निष्कर्ष नहीं निकला क्योंकि शायद हमारे राजनेता या
शासक ही यह नहीं चाहते कि उनके सिर पर कोई ऐसा हेडमास्टर डंडा लिए खड़ा रहे जिससे
उन्हें परेशानी हो। खैर देश में हाल के समय में जिस तरह से घोटालों और भ्रष्टाचार
की बाढ़ आयी है उसके बीच से यह उम्मीद करना बेकार है कि यहां जल्द की कोई
सकारात्मक पहल राजनीति को दोषमुक्त करने को होगी।
हमारे देश की जनता भी विकल्पहीनता का शिकार है। उसे पता है कि कम
या ज्यादा सब दलों का हाल एक जैसा है। कोई चुनाव के पहले चाहे जितना भी बढ़ –चढ़ कर घोषणाएं करे लेकिन सत्ता
में जाने के बाद उसी रंग में ढल जाता है जिसमें पुराने शासक चल रहे होते हैं।
गणतांत्रिक देश में शासक शासक नहीं जनता के सेवक होते हैं जिन्हें जनता खुद चुनती
है। उन्हें सर्वप्रथम अगर किसी के हित की बात सोचनी चाहिए तो उस जनता की जिसकी वजह
से वे सत्ता-सुख भोग रहे हैं लेकिन चुनाव जीतने के बाद पांच साल के लिए जनता उनके
लिए गौण और अपना कल्याण सर्वोपरि हो जाता है।
हम इस बात पर गर्व करते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र
हैं और यहां जनता द्वारा जनता के लिए चुनी सरकार है लेकिन क्या सही अर्थों में ऐसा
है। जिस देश की सत्ता पर समर्थ लोगों की चलती हो और आम आदमी की दिक्कतें जस की तस
हों उसके बारे में क्या कहा जाये। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने एक बहुत अच्छी मांग
की थी कि जो सांसद या विधायक कोई काम नहीं करता वह पांच साल तक सत्ता से चिपका न
रहे, उसे वापस भेजा जाये और उसकी जगह किसी काम के आदमी को चुना जाये। इसके साथ ही
यह मांग भी देश में उठी थी कि मतदाताओं को
मतदान के वक्त उम्मीदवारों को रद्द करने का भी अधिकार होना चाहिए। मांग की गयी थी
कि उम्मीदवारों के चिह्नों के अलावा एक और विकल्प होना चाहिए कि हमें इनमें से कोई
पसंद नहीं है। लेकिन इनमें से कोई मांग पूरी नहीं हो सकी। जो लोग चुनाव में
उम्मीदवार के रूप में खड़े होते हैं, उन्हें इलाके लोग भलीभांति पहचानते हैं। भले
ही वे अपने परिचय में खुद को इलाके का सबसे नेक, ईमानदार और जनसेवक बतायें लेकिन
उनकी असलियत सबको पता होती है। ऐसे में लोगों को इनमें से ही किसी को चुनना पड़ता
है क्योंकि इनमें भले ही सब उनको पसंद न हों लेकिन उनके पास ऐसा कोई विकल्प ही
नहीं होता कि जिससे वे सबको नकार सकें। ऐसे में उन्हें या तो नागनाथ या फिर
सांपनाथ को चुनना पड़ता है। जब तक देश में ऐसा चलता रहेगा, तब तक सत्ता या राजनेता
जनोन्मुखी नहीं हो सकेंगे और न ही उनकी प्राथमिकता ही जनसामन्य और उनके हित हो
सकेंगे।
देश की युवा पीढ़ी से लोगों को बड़ी उम्मीद है। इस पीढ़ी का अगर
सत्ता में वर्चस्व हो जाये तो संभव है उसमें कोई सकारात्मक बदलाव आ सके। एक बात
समझ में नहीं आती कि अगर आपराधिक प्रकृति के लोगों को राजनीति से संन्यास दिला
दिया जाये तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। उनकी जगह साफ छवि वाले लोगों को मौका दिया
जा सकता है। पता नहीं ऐसा कब होगा।
हमें किसी दल या विचारधारा से कोई शिकायत नहीं, शिकायत है तो उस
प्रवृत्ति से जो किसी अच्छे फैसले के खिलाफ भी ढाल बन कर खड़ी हो जाती है। प्रश्न
यह उठता है कि सजायाफ्ता या जिन पर सजा की तलवार लटक रही है ऐसे सांसदों या
विधायकों की रक्षा कर के हम आम जनता को क्या संदेश दे रहे हैं। य़ही न कि कानून की
नजरों में जो गुनाहगार हैं वे हमारी नजरों में पाक-साफ हैं।
कुछ लोग हैं जो इस बात के पक्षधर हैं कि अगर किसी पर मामला चल रहा
है और उनका दोष साबित नहीं हो पाया उनको राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने से नहीं
रोका जाना चाहिए। ऐसे लोगों का तर्क है कि कुछ लोगों को कोई राजनीतिक उद्देश्य से
गलत मुकदमे में फंसा कर उनकी राजनीतिक राह रोक सकता है। हम भी इस बात के पक्षधर
हैं कि जिन पर दोष साबित नहीं हुआ उन्हें चुनावों मे हिस्सा लेने या सांसद या
विधायक के रूप मे विधायी कर्यों में हिस्सा लेने की छूट होनी चाहिए । अगर कोई गलत ढंग से फंसाया जाता है तो उसकी रक्षा के लिए कानून में सुधार किया जाना चाहिए। ऐसे लोगों की रक्षा के लिए कानून बनें तो शायद किसी को भी शिकायत नहीं होगी लेकिन स्वार्थसिद्धि के लिए कानून का सुधार नहीं किया जाना चाहिए। अपने देशा का कानून इसमें सक्षम है कि किसी निर्दोष को सजा न मिले। लेकिन दोष साबित हो
जाये, सजा घोषित हो जाये तो स्थिति अलग होती है। केंद्र सरकार ने अपने अध्यादेश में
यह प्रावधान जरूर रखा है कि सजाय़ाफ्ता सांसदों या विधायकों को संसद या विधानसभाओं में
मतदान का अधिकार नहीं होगा लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तो ऐसे लोगों को सदस्य का पद ही रद्द करने का फैसला सुनाया है। अगर इसमें व्यवधान ढाला जा रहा है तो फिर आम आदमी तक क्या संदेश जायेगा। यही ना कि अगर आप सांसद या विधायक हैं तो आपको आम आदमी से अलग वरताव मिलेगा। यह कहां तक उचित है
हमारे देश में होता यह है कि आपराधिक प्रवृत्ति का व्यक्ति जेल में
सजा काट रहा होता है और अपनी पत्नी या किसी और रिश्तेदार को चुनाव में खड़ा कर देता
है। उसका इलाके में इतना खौफ रहता है कि वह किसी को भी खड़ा कर दे लोग भय से उसे मत
देकर जिता देते हैं। ऐसे में जेल में रह कर भी उसकी सत्ता में भागीदारी जारी रहती है।
यह बंद होना चाहिए। ऐसे लोगों को मौका देने का मतलब है सही लोगों की राह रोकना। ऐसे
आपराधिक प्रवृत्ति के लोगो के उम्मीदवारों के खिलाफ खड़े लोगों तक को अपनी जान का भय
रहता है।
अब वक्त आ गया है कि देश की जनता चेते, अपने अधिकारों को पहचाने और
जी-जान से इस प्रयास में लग जाये कि देश की सत्ता में आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के
प्रवेश को रोके। यह पूरी तरह से जनता के हाथ में है। वह चाहे तो हर पांच साल बाद उस
व्यक्ति को राजनीति के हाशिये में फेंक सकती है जो नाकारा और बेईमान या अपराधी प्रवृत्ति
का है। जनता चेतेगी तो देश बचेगा, देश बचेगा तो जनता बचेगी। जनचेतना से ही हम गांधी
के सपनों के भारत की रक्षा कर सकते हैं इसे जनहितैषी व स्वच्छ, सशक्त बना सकते हैं।
वक्त आ गया है कि इस दिशा में कोी सार्थक पहल हो। ऐसा तभी संभव है जब हर घर से अण्णा
की तरह की आवाज उठे, जनता सवाल करना सीखे कि सांसद या विधायक को उसने जिस मकसद से चुना
था, वह क्यों पूरा नहीं हो रहा। अगर वह पूरा नहीं कर पा रहा तो उसके वहां होने का औचित्य
क्या है जहां वह है। क्या मेरा देश कभी भी ऐसा कर पायेगा। सर्वशक्तिमान से प्रार्थना
है कि वह जनता को ऐसी शक्ति और राजनेताओं व शासकों को ऐसा ज्ञान दे कि वे सन्मार्ग
पर चलें, सत्य के साथ खड़े हों और देशहित के निर्णय लेने में उन्हों कोई झिझक न हो।
एवमस्तु।
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