कम से कम नारी का अपमान तो मत कीजिए
राजेश त्रिपाठी
हम अकसर ये
बातें करते हैं कि व्यक्ति को संस्कारी होना चाहिए। अपनी वाणी और कार्यों पर
नियंत्रण रखना चाहिए। व्यक्ति की सुलझी, सुसंस्कृत और सार्थक वाणी ही उसे सम्मान
दिला सकती है और अनर्गल, उच्छृंखल या अमर्यादित वाणी उसे लोगों की निंदा, भर्त्सना
और कोप का भाजन बना सकती है। अभी हाल ही एक संस्था के सर्वोच्च पद पर आसीन जनाब ने
महिलाओं के बारे में अमर्यादित बोल बोल डाले। हालांकि बाद में उन्होंने इसके लिए
माफी मांग ली लेकिन इसका जो असर होना था, वह तो हुआ ही। ये जनाब बात तो खेल पर
होने वाली सट्टेबाजी की कर रहे थे लेकिन अचानक विषयांतर कर बैठे और अप्रासंगिक ढंग
से उदाहरण दे बैठे कि अगर आप बलात्कार को रोक नहीं सकतीं तो बेहतर है उसका आनंद
लें। यह बात कितनी क्रूर और महिलाओं के प्रति कितनी अपमानजनक और अमानवीय है यह
कहने की जरूरत नहीं। जिसमें भी सामान्य बुद्धि है, महिलाओं के प्रति हृदय में आदर
है वह समझ सकते हैं कि यह कितना बड़ा अनर्थ इन जनाब ने कर डाला है। गली का कोई
शोहदा या अपराधी किस्म का आदमी ऐसा कहे तो लोग सोच सकते हैं कि चलो इस आदमी का सोच
ही इतना गंदा है लेकिन एक समझादार और बड़े ओहदे वाले व्यक्ति के मुंह से ऐसे
अनर्गल और अनावश्यक शब्द शोभा नहीं देते और तमाम तरह के सवाल खड़े करते हैं। सवाल
खड़े भी हुए हैं और राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ने तो इन जनाब का
इस्तीफा तक मांग लिया है। ममता शर्मा जी का कहना है कि उनकी माफी से काम नहीं
चलेगा, उन्हें इस्तीफा देना ही होगा।
जिस देश
ने निर्भया पर हुए अमानविक अत्याचार का दंश झेला, जिससे सारा देश आक्रोशित हो उठा
और नारी की सुरक्षा-सम्मान पर सवाल उठे वहां कम से कम लोगों को नारियों के प्रति
संवेदनशील होना चाहिए। उनका सम्मान न कर सकें तो उनके लिए अनर्गल शब्द तो न कहें
पता नहीं आपको इससे कुछ फर्क न पड़ा हो लेकिन जिनके दिल में देश की मां-बहनों के
प्रति आदर है उन्हें आपके ये बोल शूल से चुभे होंगे। आप खुद ठंडे दिमाग से सोचिए
जो शब्द आपने कहे उनकी कोई जरूरत ही नहीं थी। आप बात तो खेलपर सट्टा की कर रहे थे
तो विदेश का हवाला दे सकते थे जहां कई जगह इसे वैध कर दिया गया है। यहां नारी से
बलात्कार जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बेतुकी बातें कहने की क्या जरूरत थी। मानाकि
आपकी जबान फिसल गयी लेकिन वह इस तरह क्यों फिसली कि जुल्म ढा गयी, मां-बहनों पर
गाली की तरह लगी। आपने सुना होगा कि लोगों की वाणी ही उनके मन का दर्पण होती है।
आप कैसा बोलते हैं इससे आपके चरित्र, व्यवहार का पता चलता है।
यह भी
मत भूलिए कि प्रत्यंचा से निकला तीर और मुंह से बोले बोल वापस नहीं आते इसलिए
बोलने से पहले सौ बार सोचिए कि जो बोलने जा रहे हैं उसका असर सुननेवालों पर क्या
पड़ेगा। वाणी ही ऐसी है जो किसी को सम्मान दिला सकती है और किसी की बेइज्जती भी
करा सकती है। ऐसे में सावधानी अपेक्षित है। सावधानी हटी और वह दुर्घटना घटी जो
आपके साथ घट गयी है। अच्छा हुआ कि आपने आनन-फानन माफी मांग ली लेकिन लोगों का क्या
कहें कि आपकी माफी भी उन्हें काफी नहीं लगती। महिला संगठनों के अलावा राजनीतिक
दलों व कई सामाजिक संगठनों ने आपकी इस बयान के लिए भर्त्सना शुरू कर दी है। अब कभी
बोलें तो सोच-समझ कर क्योंकि समाज हाल की कुछ घटनाओं के बाद महिलाओं की सुरक्षा और
सम्मान के प्रति काफी सचेत और संवेदनशील हो गया है।
वाणी ही
ऐसी है जिसके बारे में कहा गया है कि यही व्यक्ति का सच्चा श्रृंगार होती है। कहा
भी है-वाण्येकः समलंकरोति पुरुषम् न हारा चंद्रोज्वला, क्षीयंते खल भूषणादि सकलम्
वाक् भूषणम् भूषणम्। अर्थात एकमात्र वाणी ही है जो व्यक्ति को भूषित करती है
चंद्रमा के समान उज्ज्वल हार नहीं क्योंकि जगत के जितने आभूषण हैं वह नाशवान हैं
लेकिन वाणी का आभूषण ही सच्चा आभूषण है। इसलिए यह जरूरी है कि वाणी का संतुलित,
संयमित और मर्यादित प्रयोग किया जाये। कबीरदास ने भी कहा है-ऐसी वाणी बोलिए, मन का
आपा खोय, औरन को शीतल करे आपहुं शीतल होय़। बड़े, पढ़े-लिखे और सर्वोच्च पदों पर
बैठे लोगों से लोग यह उम्मीद करते हैं कि उनके मुंह से जो बोल निकलेंगे वह आदर्श
और कल्याणकारी होंगे लेकिन इन जनाब की तो जबान ऐसी फिसली कि गंदगी उगल गयी। ऐसे बयान महिलाओं पर
होने वाले अत्याचारों को और बढ़ावा ही देंगे। जिस समाज का सोच इतना गंदा होगा उसका
तो भगवान ही मालिक है।
सभी आशा
करते हैं कि समाज संस्कारवान हो, संवेदनशील हो और उसके कार्य, उसकी वाणी आदर्श
बने। भारत वैसे भी अपने आदर्श और ज्ञान के लिए विश्व में समादृत होता रहा है लेकिन
पिछले कुछ अरसे से यहां अनाचार, अत्याचार और दुराचार की बाढ़-सी आ गयी है। महिलाओं
पर तो अत्याचार और जुल्म की कभी न रुकनेवाली झड़ी लग गयी है। कभी भारत का आदर्श
वाक्य था-यत्र नार्यास्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता और आज नारियों को समुचित
सम्मान देना तो दूर रहा उन पर जुल्म पर जुल्म ढाये जा रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि
ये हालात बदलें और नारियों को समुचित सम्मान मिले।
इस आधी आबादी को भी उसका अधिकार और सम्मान मिले। महिलाओं का असम्मान जिस देश में होता है, उसका कल्याण हो ही नहीं सकता।
इस आधी आबादी को भी उसका अधिकार और सम्मान मिले। महिलाओं का असम्मान जिस देश में होता है, उसका कल्याण हो ही नहीं सकता।
राजनीतिक
दलों के नेताओं की वाणी का अनियंत्रित और उच्छृंखल होना आजकल आम बात है। उनकी अपनी
मजबूरियां हैं क्योंकि आजकल चुनाव और अपनी गद्दी बचाना पहले जैसा आसान नहीं रहा।
पहले चुनाव चुनाव हुआ करते थे गणतंत्र के पावन पर्व जैसे लेकिन अब ये युद्ध हो गये
हैं। इनमें नेता एक-दूसरे के खिलाफ वाणी के बाण तो छोड़ते ही हैं और ऐसा करने में
अपनी मर्यादा तक भूल जाते हैं। उन्हें लगता है कि वे जितना आक्रामक होंगे उतने ही
प्रभावी होंगे लेकिन सच्चाई यह है कि सफल वही होता है जिसने कुछ किया होता है या
जिसमें बौद्धिक, नैतिक और विचार शक्ति होती है। वक्त आ गया है कि समाज ऐसे लोगों
के प्रति सचेत हो जिनका न वाणी में नियंत्रण होता है न विचारों पर। ऐसे लोगों का
कुछ ठीक नहीं कब क्या कह डालें या कर जायें। समाज के लिए इनके विचार कल्याणकारी तो
नहीं होते और चाहे कुछ भी हों।
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