समय गवाह है कि कृष्ण ने पांडवों-कौरवों के बीच के तनाव को कम करने का भरसक प्रयत्न किया था। यहां तक कि वे स्वयं दूत बन कर भी समझाने गये थे लेकिन दुर्योधन ने उनका भी अपमान किया और साफ कह दिया कि वे अपने भाइयों को सुई की नोंक के बराबर जमीन भी नहीं देंगे। इसके बाद जब युद्ध अवश्यंभावी हो गया तो फिर इतने बड़े युद्ध के लिए बड़े मैदान का भी चयन करना था। कृष्ण ने ही इसके लिए कुरुक्षेत्र को चुनने का सुझाव दिया। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर इस जगह को ही युद्ध के लिए क्यों चुना गया। इस क्यों का जवाब हम देंगे लेकिन पहले महाभारत युद्ध की पृष्ठभूमि में आते हैं। जिस दिन द्रौपदी ने दुर्योधन का अंधे का पुत्र अंधा कह कर अपमान किया
महाभारत युद्ध की नींव उसी दिन पड़ गयी थी। अब उस घटना पर आते हैं कि द्रौपदी ने कैसे दुर्योधन का अपमान किया। चौसर का खेल हार कर जब शकुनि दुर्योधन के पास आता है तो दुर्योधन अपने मामा की खूब खिल्ली उड़ाता है क्योंकि वो इस बात से अनजान है कि शकुनि मामा चौसर का खेल जान बूझकर हारे थे। शकुनि ने दुर्योधन की बातों का बुरा ना मानते हुए उसे राजगृह की सैर करने का आदेश दे दिया। दुर्योधन को राजगृह की सुंदरता देखकर खूब ईर्ष्या होती है। आंखें फाड़ फाड़कर वो महल की सुंदरता को निहार भी रहा होता है और आश्चर्यचकित भी हो रहा है। तभी उसे एक द्वार दिखाई देता है जहां से बाहर का सुहाना नज़ारा दिखता है, वो वहां जाने के लिए आगे बढ़ता ही है कि दीवार से टकरा जाता है। फिर वो उस दीवार को अच्छे से देखता है और समझता है कि वो नज़ारा सिर्फ एक भ्रम है। दुर्योधन वापस लौटा, फिर उसे वैसी ही दीवार दिखी जिससे वो टकराया था उसे लगता है कि वो भी भ्रम है लेकिन वहां से एक दासी को आता देख वो चकित रह जाता है। वो उस दीवार से उस पार जाता है। तभी उसे राह के बीच में पानी और अगल-बगल में सतह दिखती है। भ्रम होने के कारण दुर्योधन सोच में पड़ जाता है फिर एक दासी को उस पानी के ऊपर से जाता देख वो भी चला जाता है।
ऐसे ही फिर आगे राह में अग्नि कुंड दिखता है लेकिन वो भी एक भ्रम होता है। मायामहल की ऐसी बनावट देख दुर्योधन बहुत खुश होता है और आगे बढ़ने लगता है कि तभी वहां एक दासी आकर उसे सावधान करती है क्योंकि आगे पानी से भरा कुंड है। लेकिन भ्रम होने के कारण दुर्योधन को सतह दिखाई देती है और वो आगे बढ़ जाता है। जैसे ही वो कदम सतह पर रखता है वो सीधा पानी में गिर जाता है और ये देख द्रौपदी खूब हंसती है और कहती है कि, "अंधे का पुत्र अंधा।"
यह सुनकर दुर्योधन क्रोध की अग्नि में जल उठता है। उसके बाद से उसका सिर्फ एक ही लक्ष्य होता है द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लेना। जब भी दुर्योधन मल्लयुद्ध का अभ्यास करता उसे द्रौपदी की हंसी ही सुनाई पड़ती और वो क्रोध में सबको मारने लगता। वो तो वहां कर्ण आ जाता है और उसे अपने क्रोध पर संयम रखने को कहता है। फिर कर्ण दुर्योधन से उसके क्रोध का कारण पूछता है तब दुर्योधन उसे बताता है कि वो अपमान का घूंट उससे सहा नहीं जा रहा और उसका अपमान किया है द्रौपदी ने।
तभी वहां शकुनि आता है और युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ सम्पन्न होने की खुशी में हस्तिनापुर में समारोह कराने का सुझाव देता है कि दुर्योधन उस समारोह में वो अपने चौसर के खेल से सभी अपमान का बदला भी ले सकेगा। और शकुनि दुर्योधन को वचन देता है कि उस चौसर के खेल में वो युधिष्ठिर को ज़रूर हराएगा। इसलिए सबसे पहले इस समारोह के लिए दुर्योधन को धृतराष्ट्र को मनाना होगा।
द्यूत क्रीड़ा या चौसर के खेल में जब पांडव अपनी पत्नी द्रौपदी को हार गये। उसके बाद महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया। कुरुक्षेत्र में युद्ध लड़े जाने का फैसला भगवान श्री कृष्ण का था। लेकिन उन्होंने कुरुक्षेत्र को ही महाभारत युद्ध के लिए क्यों चुना इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है।
जब महाभारत युद्ध होने का निश्चय हो गया तो उसके लिये मैदान की खोज शुरू हुई। श्रीकृष्ण जी बढ़ी हुई असुरता से ग्रसित व्यक्तियों को उस युद्ध के द्वारा नष्ट कराना चाहते थे। पर भय यह था कि यह भाई-भाइयों का, गुरु शिष्य का, सम्बन्धी कुटुम्बियों का युद्ध है। एक दूसरे को मरते देख कर कहीं सन्धि न कर बैठें इसलिए ऐसी भूमि युद्ध के लिए चुननी चाहिए जहाँ क्रोध और द्वेष के संस्कार पर्याप्त मात्रा में हों। उन्होंने अनेकों दूत अनेकों दिशाओं में भेजे कि वहाँ की घटनाओं का वर्णन आकर उन्हें सुनायें।
एक दूत ने सुनाया कि अमुक जगह बड़े भाई ने छोटे भाई को खेत की मेंड़ से बहते हुए वर्षा के पानी को रोकने के लिए कहा। पर उसने स्पष्ट इनकार कर दिया और उलाहना देते हुए कहा-तू ही क्यों न बन्द कर आवे? मैं कोई तेरा गुलाम हूँ। इस पर बड़ा भाई आग बबूला हो गया। उसने छोटे भाई को छुरे से गोद डाला और उसकी लाश को पैर पकड़कर घसीटता हुआ उस मेंड़ के पास ले गया और जहाँ से पानी निकल रहा था वहाँ उस लाश को पैर से कुचल कर लगा दिया।
इस नृशंसता को सुनकर श्रीकृष्ण ने निश्चय किया यह भूमि भाई-भाई के युद्ध के लिए उपयुक्त है। यहाँ पहुँचने पर उनके मस्तिष्क पर जो प्रभाव पड़ेगा उससे परस्पर प्रेम उत्पन्न होने या सन्धि चर्चा चलने की सम्भावना न रहेगी। वह स्थान कुरुक्षेत्र था वहीं युद्ध रचा गया। 18 दिन चलैे इस युद्ध में भारी विनाश हुआ और लाखों लोग मारे गये। इससे सिद्ध होता है कि किसी विवाद को अगर बातचीत से सुलझा लिया जाये और युद्ध की स्थिति ना बननी दी जाये तो वही श्रेयस्कर होता है।
महाभारत की यह कथा यह संकेत करती है की शुभ और अशुभ विचारों एवं कर्मों के संस्कार भूमि में देर तक समाये रहते हैं। इसीलिए निवास के लिए ऐसी भूमि ही चुननी चाहिए जो शुभ हो।
इस आलेख को वीडियो के रूप में देखने के लिए कृपया यहां क्लिक कीजिए
No comments:
Post a Comment