भारतीय धर्मग्रंथों में बद्रीनाथ धाम, द्वारका धाम, जगन्नाथ पुरी और रामेश्वरम का उल्लेख चार पवित्र धामों के रूप में किया जाता है। आस्थावान हिंदू इन धामों के दर्शन को जीवन के परम पुण्य के रूप में मानते हैं। इनमें से ही एक धाम है बद्रीनाथ धाम जहां प्रभु विष्णु विराजते हैं। यहां हम आपको एक ऐसी कथा सुनाने जा रहे हैं जो शायद आपमें से कुछ लोग ही जानते होंगे। कुछ को तो इस बारे में पता ही नहीं होगा। कहते हैं पहले बद्रीनाथ धाम शिव-पार्वती का धाम था जिसे छल करके विष्णु ने हथिया लिया था और उसके बाद से वे वहां विराजते हैं। शिव-पार्वती को इसके चलते केदारनाथ धाम जाने को विवश होना पड़ा।
विष्णु ने कैसे छल
कर के शिव-पार्वती के धाम पर कब्जा किया इसके पीछे एक कथा का उल्लेख मिलता है। कथा
के अनुसार बद्रीनाथ धाम कभी भगवान शिव और
पार्वती का विश्राम स्थान हुआ करता था। यहां भगवान शिव अपने परिवार के साथ रहते थे।
विष्णु भगवान को यह स्थान इतना अच्छा लगा कि उन्होंने इसे प्राप्त करने का निश्चय
किया। पौराणिक कथा के अनुसार सतयुग में जब भगवान नारायण बद्रीनाथ आए तब यहां बदरियों
यानी बेर का वन था और यहां भगवान शंकर अपनी अर्द्धांगिनी पार्वती के साथ रहते थे।
एक दिन विष्णु बालक का रूप धारण कर जोर-जोर से रोने लगे।
उनका रोना सुन कर माता पार्वती को बहुत
दुख हुआ। वे सोचने लगीं कि इस निर्जन वन में यह कौन बालक रो रहा है? यह आया कहां से? और इसकी माता कहां
है? यही सब सोच माता को बालक पर दया आ गई। उस बालक को लेकर वे अपने घर
पहुंचीं।
शिवजी तुरंत ही समझ गए कि यह विष्णु
की कोई लीला है। उन्होंने पार्वती से इस बालक को घर के बाहर छोड़ देने का आग्रह
किया और कहा कि वह अपने आप ही कुछ देर रोकर चला जाएगा। लेकिन पार्वती ने उनकी बात
नहीं मानी और बालक को घर में ले जाकर चुप करा कर सुलाने लगीं।
कुछ देर में बालक सो गया तो माता
पार्वती बाहर आ गईं और शिवजी के साथ कुछ दूर टहलनें चली गईं। भगवान विष्णु को इसी क्षण
का इंतजार था। उन्होंने भीतर से घर का दरवाजा बंद कर दिया।
भगवान शिव और पार्वती जब घर लौटे तो
द्वार अंदर से बंद था। इन्होंने जब बालक से द्वार खोलने के लिए कहा तब अंदर से
भगवान विष्णु ने कहा कि अब आप भूल जाइए भगवन्। यह स्थान मुझे बहुत पसंद आ गया है।
मुझे यहीं विश्राम करने दीजिए। अब आप यहां से केदारनाथ जाएं।
तब से लेकर आज तक बद्रीनाथ यहां पर
अपने भक्तों को दर्शन दे रहे हैं और भगवान शिव केदानाथ में।
एक मान्यता यह भी है कि एक देवी के त्याग के कारण बदरी विशाल के इस
धाम का नाम बदरीनाथ पड़ा। कहा जाता है कि जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में
तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु बर्फ में पूरी तरह
दब गए थे।
माता लक्ष्मी
भगवान विष्णु को धूप, बारिश और बर्फ से बचाने की कठोर
तपस्या में जुट गयीं। जब माता लक्ष्मी से उनकी यह दशा देखी नहीं गई तो मां लक्ष्मी
ने एक बेर (बदरी) के पेड़ का रूप लेकर उनके ऊपर ओढ़ा दिया। इससे बर्फबारी को वह
अपने उपर ही सहने लगीं।
कई वर्षों बाद जब
भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी बर्फ से पूरी ढकी हुईं थीं।
तब भगवान विष्णु ने कहा कि तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है तो आज से इस धाम पर
मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा। क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बदरी वृक्ष के रूप
में की है इसलिए आज से मुझे बदरी के नाथ-बदरीनाथ के नाम से जाना जाएगा।
इस तरह से भगवान
विष्णु का नाम बदरीनाथ पड़ा। जहां भगवान बदरीनाथ ने तप किया था, वही पवित्र-स्थल आज तप्त-कुण्ड के नाम से विश्व-विख्यात है और उनके
तप के रूप में आज भी उस कुण्ड में हर मौसम में गर्म पानी उपलब्ध रहता है।
नर-नारायण पर्वत
की गोद में बसा बदरीनाथ धाम नीलकण्ठ
पर्वत का एक भाग है। भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर आदिगुरू शंकराचार्य ने
चारों धाम में से एक के रूप में स्थापित किया था। यह मंदिर तीन भागों में विभाजित
है, गर्भगृह, दर्शनमण्डप और सभामण्डप।
कहा जाता है कि
बदरीनाथ की मूर्ति शालिग्राम शिला से बनी है। यह मूर्ति चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में
है। सिद्ध ऋषि-मुनि इसके प्रधान आराधक थे। जब यहां बौद्धों का प्रभाव बढ़ा तब
उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरंभ की। शंकराचार्य की प्रचार-यात्रा के
समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनंदा में फेंक गए। तब शंकराचार्य ने
अलकनंदा से पुन: बाहर निकालकर मूर्तिकी
स्थापना की। इसके बाद मूर्ति पुन: स्थानांतरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुंड से
निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की। मंदिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा
होती है और अखंड दीप जलता है, जो कि अचल
ज्ञानज्योति का प्रतीक है।
धार्मिक मान्यताओं
के अनुसार भगवान विष्णु को शंख की ध्वनि प्रिय लगती है, लेकिन उनके धाम
बदरीनाथ में शंख नहीं बजाया जाता है। सभी मंदिरों में शंख की ध्वनि से देवी
देवताओं का आह्वान किया जाता है,
लेकिन हिमालय की तलहटी पर विराजमान
बदरीनाथ धाम में शंखनाद नहीं होता है।
धार्मिक कथाओं के
अनुसार इसके पीछे एक प्राचीन मान्यता है जो रुद्रप्रयाग जिले के अगस्त्यमुनि ब्लॉक
के सिल्ला गांव से जुड़ी हुई है। इस मान्यता के अनुसार रुद्रप्रयाग के सिल्ला गांव
स्थित साणेश्वर मंदिर से बातापी राक्षस भागकर बदरीनाथ धाम में शंख में छुप गया था, इसलिए धाम में
शंखनाद नहीं होता है।
कहा जाता है कि जब
हिमालय क्षेत्र में असुरों का आतंक था। तब, ऋषि-मुनि अपने आश्रमों में
पूजा-अर्चना भी नहीं कर पाते थे। यही स्थिति साणेश्वर महाराज के मंदिर में भी थी।
यहां जो भी ब्राह्मण पूजा-अर्चना को पहुंचते, राक्षस उन्हें अपना निवाला बना लेते।
तब साणेश्वर
महाराज ने अपने भाई अगस्त्य ऋषि से मदद मांगी। एक दिन अगस्त्य ऋषि सिल्ला पहुंचे
और साणेश्वर मंदिर में स्वयं पूजा-अर्चना करने लगे, लेकिन राक्षसों का उत्पात देखकर वह
भी सहम गए।
उन्होंने मां
भगवती का ध्यान किया तो अगस्त्य ऋषि की कोख से कुष्मांडा देवी प्रकट हो गई। देवी
ने त्रिशूल और कटार से वहां मौजूद राक्षसों का वध किया। कहा जाता है कि देवी से
बचने के लिए तब आतापी-बातापी नाम के दो राक्षस वहां से भाग निकले।
तभी आतापी राक्षस
मंदाकिनी नदी में छुप गया और बातापी राक्षस यहां से भागकर बदरीनाथ धाम में शंख में
छुप गया। मान्यता है कि तभी से बदरीनाथ धाम में शंख बजना वर्जित कर दिया गया।
ऐसा कहा जाता है कि शंख को बजाने से ये दोनों ही राक्षस
बाहर आ जाएंगे.
अगर वैज्ञानिक की बात करें तो कहते हैं कि बद्रीनाथ में
शंख नही बजाने के पीछे वहां की क्षेत्रीय परिस्थिति मुख्य कारण है। इस क्षेत्र का
अधिकांश हिस्सा बर्फ से ढका रहता है. और शंख से निकली ध्वनि पहाड़ों से टकरा कर
प्रतिध्वनि पैदा करती है. जिसकी वजह से बर्फ में दरार पड़ने व बर्फीले तूफान आने
की आशंका रहती है। इसीलिए कहते हैं कि यहां शंख नहीं बजता।
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