Monday, February 1, 2021

हनुमान ने समुद्र में क्यों फेंकी अपनी लिखी रामायण


सभी जानते हैं कि प्रभु रामचंद्र जी के जीवन पर कई रामायण लिखी गयी हैं। हर क्षेत्र की भाषाओं में लिखी गयी हैं लेकिन प्रसिद्ध दो ही हैं एक संस्कृत में लिखी वाल्मीकि की रामायण और गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस। इनमें वाल्मीकि रामायण संस्कृत में है जो मात्र उन विद्वानों तक ही सीमित रह गयी लेकिन गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस जन-जन में लोकप्रिय हुई। 

इनके अतिरिक्त कबंद रामायण, अद्भुत रामायण और आनंद रामायण आदि भी लिखी गयीं। ऐसा माना जाता है कि रामभक्त हनुमान जी ने सबसे पहली रामायण लिखी थी। हनुमान जी को रुद्रावतार भी मानते हैं। ऐसे में रुद्र आंधी-तूफान के अधिष्ठाता देवता भी हैं और देवराज इंद्र के साथी भी। इसी के साथ विष्णु पुराण के मुताबिक़ रुद्रों का उद्भव ब्रह्माजी की भृकुटी से हुआ था और हनुमानजी वायुदेव और मारुति नामक रुद्र के पुत्र थे। इसी के साथ इन सभी को सभी देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त था और वह सेवक भी थे और राजदूत, नीतिज्ञ, विद्वान, रक्षक, वक्ता, गायक, नर्तक, बलवान और बुद्धिमान भी। कहते हैं शास्त्रीय संगीत के तीन आचार्यों में से एक हनुमान भी थे और अन्य दो थे शार्दूल और कहाल। ऐसी मान्यता है कि 'संगीत पारिजात' हनुमानजी के संगीत-सिद्धांत पर आधारित है। 

वापस हुनमान जी की रामायण पर आते हैं। हिंदी में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस ने उत्तर भारत में विशेष स्थान पाया। इसके अतिरिक्त भी संस्कृत,गुजराती, मलयालम, कन्नड, बांग्ला, असमिया, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में राम कथा लिखी गयी।संभवत: किसी को इस बात का ज्ञान नहीं होगा कि प्रभु राम के भक्त हनुमान जी ने भी अपने स्वामी को समर्पित एक रामायण लिखी थी।  हनुमान जी द्वारा लिखित यह रामायण 'हनुमद रामायण' के नाम से जानी जाती है। हनुमान जी की इस रामायण को ही प्रथम रामायण होने का श्रेय प्राप्त है। लेकिन ऐसी मान्यता है कि स्वयं हनुमान जी ने ही अपनी उस रामायण को समुद्र में फेंक दिया था। उन्होंने ऐसा क्यों किया इसके पीछे एक कहानी है। कहानी कुछ इस प्रकार है -शास्त्रों के अनुसार सर्वप्रथम रामकथा हनुमानजी ने लिखी थी और वह भी एक शिला अर्थात चट्टान पर अपने नाखूनों से लिखी थी। यह रामकथा वाल्मीकि की रामायण से भी पहले लिखी गई थी और यह 'हनुमद रामायण' के नाम से प्रसिद्ध है।

यह घटना तब की है जबकि भगवान श्रीराम रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद अयोध्या में राज करने लगते हैं और हनुमानजी हिमालय पर चले जाते हैं। वहां वे अपनी शिव तपस्या के दौरान एक शिला पर प्रतिदिन अपने नाखून से रामायण की कथा लिखते थे। इस तरह उन्होंने प्रभु श्रीराम की महिमा का उल्लेख करते हुए 'हनुमद रामायण' की रचना की।

कुछ समय बाद महर्षि वाल्मीकि ने भी 'वाल्मीकि रामायण' लिखी और लिखने के बाद उनके मन में इसे भगवान शंकर को दिखा कर उनको समर्पित करने का विचार आया। वे अपनी रामायण लेकर शिव के धाम कैलाश पर्वत पहुंच गए। वहां उन्होंने हनुमानजी को और उनके द्वारा लिखी गई 'हनुमद रामायण' को देखा। हनुमद रामायण के दर्शन कर वाल्मीकिजी निराश हो गए।

वाल्मीकि को निराश देखकर हनुमानजी ने उनसे उनकी निराशा का कारण पूछा तो महर्षि बोले कि उन्होंने बड़े ही कठिन परिश्रम के बाद रामायण लिखी थी लेकिन आपकी रामायण देखकर लगता है कि अब मेरी रामायण उपेक्षित हो जाएगी, क्योंकि आपने जो लिखा है उसके समक्ष मेरी रामायण तो कुछ भी नहीं है।

तब वाल्मीकि की चिंता दूर करते हुए हनुमानजी ने हनुमद रामायण पर्वत शिला को एक कंधे पर उठाया और दूसरे कंधे पर महर्षि वाल्मीकि को बिठा कर समुद्र के पास गए और स्वयं द्वारा की गई रचना को श्रीराम को समर्पित करते हुए समुद्र में प्रवाहित कर दिया। तभी से हनुमान द्वारा रची गई हनुमद रामायण उपलब्ध नहीं है।

हनुमानजी द्वारा लिखी रामायण को समुद्र में फेंक दिए जाने के बाद महर्षि वाल्मीकि बोले कि हे रामभक्त हनुमान, आप धन्य हैं! आप जैसा कोई दूसरा ज्ञानी और दयावान नहीं है। हे हनुमान, आपकी महिमा का गुणगान करने के लिए मुझे एक जन्म और लेना होगा और मैं वचन देता हूं कि कलयुग में मैं एक और रामायण लिखने के लिए जन्म लूंगा। तब मैं यह रामायण आम लोगों की भाषा में लिखूंगा।

माना जाता है कि रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास कोई और नहीं बल्कि महर्षि वाल्मीकि का ही दूसरा जन्म था। तुलसीदासजी अपनी 'रामचरित मानस' लिखने के पूर्व हनुमान चालीसा लिख कर हनुमानजी का गुणगान करते हैं और हनुमानजी की प्रेरणा से ही वे फिर रामचरित मानस लिखते हैं।

माना जाता है महाकवि कालिदास के समय में एक पटलिका को समुद्र के किनारे पाया गया जिसे कि एक सार्वजनिक स्थल पर टांग दिया गया था ताकि विद्यार्थी उस गूढ़लिपि को पढ़ कर उसका अर्थ निकाल सकें। ऐसा माना जाता है कि कालीदास ने उसका अर्थ निकाल लिया था और वो ये भी जान गये थे कि ये पटलिका कोई और नहीं अपितु हनुमानजी द्वारा रचित हनुमद रामायण का ही एक अंश है जो कि पर्वत शिला से निकल कर जल के साथ प्रवाहित होकर यहां तक आ गया है।

महाकवि तुलसीदास के हाथ वहीं पट्टलिका लग गई थी। उसे पाकर तुलसीदास ने अपने आपको बहुत भाग्यशाली माना कि उन्हें हनुमद रामायण के श्लोक का एक पद्य प्राप्त हुआ है।

हनुमन्नाटक रामायण के अंतिम खंड में लिखा है-

'रचितमनिलपुत्रेणाथ वाल्मीकिनाब्धौ

निहितममृतबुद्धया प्राड् महानाटकं यत्।।

सुमतिनृपतिभेजेनोद्धृतं तत्क्रमेण

ग्रथितमवतु विश्वं मिश्रदामोदरेण।।'

इसका अर्थ यह है कि इसको पवनकुमार ने रचा और शिलाओं पर लिखा था, परंतु वाल्मीकि ने जब अपनी रामायण रची तो तब यह समझकर कि इस रामायण को कौन पढ़ेगा, श्री हनुमानजी से प्रार्थना करके उनकी आज्ञा से इस महानाटक को समुद्र में स्थापित करा दिया, परंतु विद्वानों से किंवदंती को सुनकर राजा भोज ने इसे समुद्र से निकलवाया और जो कुछ भी मिला उसको उनकी सभा के विद्वान दामोदर मिश्र ने संगतिपूर्वक संग्रहीत किया।

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