Wednesday, February 17, 2021

आल्हा सदियों से कर रहे हैं मैहर की मां शारदा की पूजा



 मध्य प्रदेश के सतना जिले के मैहर में त्रिकूट पर्वत है मां शारदा का मंदिर। इस जगह का नाम मैहर इसलिए पड़ा की मान्यता है कि जब मां पार्वती ने दक्ष के यज्ञ में आत्मदाह कर लिया तो शिव उनके शव को कंधे पर लेकर क्रोध से इधर-उधर दौड़ने लगे। इसी क्रम में देवी पार्वती के आभूषण और अंग जिस जिस जगह गिरे वे शक्तिपीठ बन गये। मैहर में मां के कंठ का हार गिरा था इसीलिए इसका नाम मैहर पड़ा। मैहर की मां शारदा की बहुत महिमा है।उनके भक्तों में बड़ी-बड़ी हस्तियां शामिल हैं। इनमें मैहर के महान संगीत साधक उस्ताद अलाउद्दीन खां का नाम भी है। यहां हम मां शारदा के एक ऐसे अनन्य भक्त की कहानी सुना रहे हैं जो सदियों से मां शारदा की पहली पूजा मध्यरात्रि को नियमित ढंग से करता है और उसे कोई नहीं देख पाता। सुबह जब मंदिर खुलता है तो वहां लोगों को प्रतिमा को स्नान कराये जाने और पुष्प चढ़ाये जाने के प्रत्यक्ष प्रमाण मिलते हैं। मां का यह भक्त कोई और नहीं उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल के महोबा महान वीर आल्हा हैं। जो नित्य मध्यरात्रि को आते हैं और मां की पूजा कर चले जाते हैं।कहते हैं कि आल्हा की भक्ति और वीरता से प्रसन्न होकर मां शारदा ने उन्हें अमर होने का वरदान दिया था। मां शारदा के मंदिर में 8 बजे संध्या आरती के बाद मंदिर की साफ-सफाई होती है और फिर मंदिर के सभी कपाट बंद कर दिए जाते हैं। इसके बावजूद जब सुबह मंदिर को पुन: खोला जाता है तो मंदिर में मां की आरती और पूजा किए जाने के प्रमाण मिलते हैं। आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा ही करते हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर में मां भगवती की पूजा के लिए आज भी सबसे पहले आल्हा ही आते हैं। सुबह के 4 बजे जब मंदिर के द्वार खोले जाते हैं तो एक फूल जल के साथ माता के चरणों में अर्पित किया हुआ मिलता है। आल्हा का ये किस्सा मैहर में आप हर एक सुन सकते हैं। कहा जाता है कि ऐसा सदियों से चला आ रहा है पर आज तक कोई आल्हा को देख नहीं पाया। जनश्रुति है कि एक बार मंदिर के पुजारी ने यह जानने के लिए की आखिर मध्यरात्रि को कौन भक्त पूजा कर के चला जाता है रात को मंदिर की सीढियों में आड़ा लेट गये। उन्होंने सोचा जो भी मंदिर जायेगा उन्हें लांघ कर जायेगा और उन्हें पता चल जायेगा। कहते हैं कि सुबह पुजारी ने लोगों को बताया कि मध्यरात्रि को उसे अपने ऊपर से हवा का एक झोंका गुजरता सा लगा। वे उठ कर मंदिर खोल कर अंदर गये तो देखा कोई अभी-अभी मां को स्नान करा गया है और फूल चढ़ा गया है। कहते हैं कि मंदिर से कुछ दूर एक तालाब है जिसमें रात बारह बजे के आसपास किसी के नहाने की आवाज सुनी जाती है। लोगों की मान्यता है कि शायद आल्हा ही वहां स्नान करते होंगे।मंदिर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर आल्हा ऊदल का अखाड़ा ही नजर आता है। साथ ही एक तालाब भी है, इसे लेकर कहा जाता है कि यहां दोनों भाई स्नान किया करते थे। इसके उपरांत ही माता के दर्शनों के लिए जाते थे। आल्हा और ऊदल दो भाई थे। ये बुन्देलखण्ड के महोबा के वीर योद्धा और परमार के सामंत थे। कालिंजर के राजा परमार के दरबार में जगनिक नाम के एक कवि ने आल्हा खण्ड नामक एक काव्य रचा था उसमें इन वीरों की गाथा वर्णित है। इस ग्रंथ में दोनो वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचक वर्णन है। आखरी लड़ाई उन्होंने पृथ्‍वीराज चौहान के साथ लड़ी थी।  आल्हाखण्ड में गाया जाता है कि इन दोनों भाइयों का युद्ध दिल्ली के तत्कालीन शासक पृथ्वीराज चौहान से हुआ था। पृथ्‍वीराज चौहान को युद्ध में हारना पड़ा था लेकिन इसके पश्चात आल्हा के मन में वैराग्य आ गया और उन्होंने संन्यास ले लिया था।

 मान्यता है कि मां के परम भक्त आल्हा को मां शारदा का आशीर्वाद प्राप्त था, लिहाजा पृथ्वीराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा था। मां के आदेशानुसार आल्हा ने अपनी सांग ( भाला) शारदा मंदिर पर चढ़ाकर नोक टेढ़ी कर दी थी जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है। 

  बुंदेली इतिहास में आल्हा-ऊदल का नाम बड़े ही आदरभाव से लिया जाता है। बुंदेली कवियों ने आल्हा का गीत भी बनाया है, जो सावन के महीने में बुंदेलखंड के हर गांव-गली में गाया जाता है।गाया जाता है। 

 सुना यह भी जाता है कि आल्हा-ऊदल दोनों भाइयों ने ही सबसे पबले जंगलों के बीच मां के मंदिर की खोज की थी। आल्हा ने इस मंदिर में 12 वर्षों तक माता की तपस्या की थी। आल्हा माता को शारदा माई कहकर पुकारा करते थे।   इस मंदिर को लेकर अनेक मान्यताएं हैं विंध्याचल पर्वत की त्रिकूट चोटी पर स्थित इस मंदिर की महिमा देश में ही नही बल्कि विदेशों में भी है। हर साल यहां लाखों की संख्या में श्रद्धालु मां भगवती के अनोखे स्वरूप के दर्शनों के लिए आते हैं।

 मध्यप्रदेश के सतना जिले में मैहर तहसील के पास त्रिकूट पर्वत पर स्थित माता के इस मंदिर को मैहर देवी का शक्तिपीठ कहा जाता है। मैहर का मतलब है मां का हार। भूतल से मंदिर की ऊंचाई लगभग छह सौ फुट है। पहाड़ में 1,063 सीढ़ियां चढ़ने के बाद माता के दर्शन होते हैं। वैसे अब यहां रोप वे की सुविधा हो गयी है इसलिए जो सीढ़ियां नहीं चढझ़ सकते वे आसानी सो रोप वे से मां के मंदिर पहुंच सकते हैं। नवरात्र पर्व में मां के मंदिर में भक्तों की अपार भीड़ जुटती है। 

आल्हा-उदल के माता-पिता के बारे में कहा जाता है कि दोनों दसराज (जसराज) और दिवला (देवल दे) के पुत्र थे। ये बनाफर क्षत्रिय थे। 

 रेलमार्ग द्वारा सतना से मैहर 30 किमी का रास्ता है। मैहर स्टेशन से 3 किमी दूर मंदिर है। यहां से ऑटो द्वारा पहुंचा जा सकता है। इसके अलावा मेला बस भी चलती है, इसका  सड़क मार्ग से सतना से मैहर की दूरी 42 किमी है। 

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