Thursday, February 11, 2021

राम ने भाई लक्ष्मण को क्यों दिया प्राणदंड



जब लक्ष्मण को मेघनाद की शक्ति प्रहार से मूर्च्छा आ गयी थी तो राम अचेत भाई का सिर गोद पर रख कर सामान्य मानवों की तरह बिलख-बिलख कर रोये थे। वे शोक में इतने विह्वल हो गये थे कि वे क्या कह रहे हैं इसका भी भान उन्हें नहीं रहा था। दुख में वे प्रलाप करते समय वह यह भी भूल गये कि लक्ष्मण सोमित्र यानी सुमित्रा के पुत्र हैं उनके सहोदर यानी कौशल्या पुत्र नहीं हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है कि दुख की पराकाष्ठा में राम कह उठते हैं- अस बिचारि जिय जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥ उसी प्रिय भ्राता लक्ष्मण को स्वयं राम क्यों प्राण दंड देते हैं इस कहानी का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में आता है।रावण को युद्ध में परास्त कर अयोध्या का राजपाट संभालने के कुछ समय बाद जब श्रीराम के इस धरती पर सभी कर्तव्य पूरे हो गए तो उन्हें इसकी सूचना देने स्वयं महाकाल यानी यम एक तपस्वी के रूप में श्रीराम दरबार में पहुंचे। द्वार पर उनकी भेंट लक्ष्मण से हुई तथा उन्होंने उनसे कहा कि वे तपस्वी अतिबल के दूत हैं तथा एक महत्वपूर्ण कार्यवश वे श्रीराम से मिलने आये हैं। लक्ष्मण श्रीराम की आज्ञा पाकर महाकाल को उनके कक्ष में लेकर गए।

जब श्रीराम ने महाकाल से उनके यहाँ आने का कारण पूछा तो महाकाल ने कहा कि वे जो संदेश लेकर आये हैं वह अत्यंत गुप्त है। इसलिये जब वे इस संदेश को उन्हें सुना रहे हों तब उस समय उनके कक्ष  में कोई ना आने पाए। यदि कोई उन्हें बात करते हुए सुन ले या देख भी ले तो उसे प्राणदंड दिया  जाये।

तपस्वी की यह बात सुनकर भगवान श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि वह द्वारपाल को भेज दें तथा स्वयं  कक्ष के द्वार पर पहरा दें। उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि यदि कोई भी उन्हें बात करते हुए सुन लेगा या देख भी लेगा तो अवश्य ही उसे प्राणदंड मिलेगा।

इसके पश्चात महाकाल ने अपने असली रूप में आकर श्रीराम को प्रणाम किया तथा अपने वहां आने का कारण बताया। महाकाल ने श्रीराम से कहा कि वे भगवान ब्रह्मा के आदेश पर वहां आये हैं। उन्होंने श्रीराम को बताया कि अब उनका इस धरती पर कार्य पूर्ण हो चुका हैं तथा राम रूपी अवतार में उन्होंने अपनी जितनी आयु निश्चित की थी उसके भी समाप्त होने का समय आ गया है। इसलिये अब उनके परमधाम वैकुंठ में जाने का समय निकट आ गया है।

श्रीराम ने भी महाकाल से कहा कि वे यह जानते हैं कि उनका इस धरती पर समय पूर्ण होने वाला हैं तथा वे भी अब अपने धाम लौटना चाहते है। इसलिये वे यह संदेश भगवान ब्रह्मा तक पहुंचा दें।

 जिस समय लक्ष्मण द्वार पर पहरा दे रहे थे उसी समय महर्षि दुर्वासा वहां आ पहुंचे। उन्होंने उसी समय लक्ष्मण को कहा कि वे उनके आने की सूचना तत्काल श्रीराम को दे। लक्ष्मण ने उनसे क्षमा  मांगी तथा कहा कि श्रीराम अभी एक आवश्यक कार्य में व्यस्त हैं इसलिये वे अभी उनसे नही मिल सकते। 

उन्होंने महर्षि दुर्वासा से कोई भी बात उन्हें बताने को कहा अन्यथा श्रीराम की प्रतीक्षा करने को कहा।यह सुनकर ऋषि दुर्वासा नाराज हो गए तथा उन्होंने कहा कि यदि उन्हें क्रोध आ गया तो वे इसी समय अपनी शक्ति से श्राप द्वारा पूरी अयोध्या को भस्म कर देंगे। लक्ष्मण यह सुन कर धर्मसंकट में फंस गए तथा सोचा कि यदि केवल उनकी मृत्यु से पूरी अयोध्या बच सकती हैं तो उन्हें अपने प्राण दे देने चाहिए।

लक्ष्मण दुर्वासा के क्रोध और शाप देने की उनकी प्रवृत्ति से परिचित थे। वे अयोध्या पर किसी भी तरह से संकट नहीं आने देना चाहते थे। विवश लक्ष्मण भाई राम का वचन भंग होने की बात को  भूल ऋषि दुर्वासा के आगमन का संदेश लेकर श्रीराम के कक्ष में पहुँच गए तथा उन्हें दुर्वासा ऋषि से  मिलने को कहा। लक्ष्मण को वहां देखकर महाकाल अंतर्धान हो गए। श्रीराम भी असमंजस में पड़ गए लेकिन वे लक्ष्मण की विविशताको समझ चुके थे। उन्होंने लक्ष्मण को महर्षि दुर्वासा को अंदर भेजने का आदेश दिया।

राम दरबार में आने के बाद दुर्वासा ने राम से कहा-अद्य वर्ष सहस्रस्य समाप्पितर्मम राघव। सोअहम्  भोजनम् इच्छामि यथासिद्धम् तवानघ। (वाल्मीकि रामायण उत्तरकांड 905 सर्ग)

इसका अर्थ यह है कि हे राम मैंने एक हजार वर्ष तक तप किया आज मेरे तप का समाप्ति दिवस है  आपके यहां जो भी भोजन उपलब्ध हो मैं वह ग्रहण करना चाहता हूं।

तत्छुत्वा वचनं रामो हर्षेण महतान्वित। भोजनमं मुनि मुख्याय यथासिद्धिमुपाहरत।।

अर्थात मुनि दुर्वासा की बात सुन कर राम प्रसन्न हुए और उन्होंने मुनि को तैयार भोजन परोसा और  श्रद्धासहित उनको भोजन करवाया। दुर्वासा चले गये तो भगवान श्रीराम के द्वारा राज्यसभा बुलायी गयी जिसमे महर्षि वशिष्ठ, राम के सभी भाई, मंत्री तथा हनुमान उपस्थित थे। मंत्री सुमंत तथा भरत ने लक्ष्मण को क्षमा कर देने का अनुरोध किया। कुछ ने यह परामर्श दिया कि अगर राम लक्ष्मण का परित्याग भी कर देते हैं तो वह भी लक्ष्मण को मृत्युदंड देने के समान ही है। 

इस पर लक्ष्मण ने कहा कि यदि राजा का वचन ही झूठा चला जायेगा तो कौन उनकी बात पर विश्वास  करेगा। इसलिए लक्ष्मण ने स्वयं के लिए मृत्यु दंड माँगा। यह सुन कर भगवान राम असमंजस में पड़  गए तथा अपने गुरु महर्षि वशिष्ठ से राय मांगी। महर्षि वशिष्ठ ने भी श्रीराम को अपना वचन निभाने को कहा।

उस सभा में हनुमान भी उपस्थित थे तथा उन्होंने शास्त्रों का उदाहरण देकर कहा कि श्रीमान एक सिद्ध पुरुष तथा साधु का त्याग कर देना उन्हें प्राणदंड देने के समान होता है महर्षि वशिष्ठ भी इससे सहमत हुए तथा उन्होंने लक्ष्मण का त्याग कर देने को कहा। इसके पश्चात श्रीराम ने लक्ष्मण का  परित्याग कर दिया।

  भगवान श्रीराम के द्वारा लक्ष्मण का परित्याग करने के पश्चात वे उनका आशीर्वाद लेकर सरयू नदी में गए तथा अपनी श्वास की गति को रोक लिया उस समय इंद्र आदि देवता व अप्सरायें आकाश से उन पर पुष्प वृष्टि करने लगे। श्वांस रोकने के कुछ समय बाद ही लक्ष्मण अंतर्धान हो गए। कहते हैं कि उस समय स्वयं इंद्र आकर उन्हें अपने साथ लेकर स्वर्ग ले गये। अपने धाम वैकुंठ पहुँच कर उन्होंने पुन: अपना शेषनाग का रूप धारण कर लिया।

प्राणों से प्रिय भ्राता लक्ष्मण को खोने का दुसह दुख राम भी सह नहीं पाते हैं और वे भी भाई भरत को राज्य सौंप कर स्वयं भी सरयू नदी में जल समाधि लेकर अपने परमधाम को सिधार जाते हैं। सरयू के  जिस घाट पर राम ने जलसमाधि ली थी अयोध्या में आज वह गुप्तार घाट के रूप में जाना जाता है।

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