Tuesday, February 9, 2021

साधु संत क्यों पहनते हैं खड़ाऊं


खड़ाऊं मुख्य रूप से लकड़ी से बनती है इसे चरण पादुका, पदत्राण आदि के नाम से पुकारा जाता है। माना कि आजकल चरण पादुकाओं या खड़ाऊं का प्रचलन कम हो गया है लेकिन साधु-संतों में आज भी चरण पादुकाओं या खड़ाऊ का प्रचलन है। इसका कारण आध्यात्मिक के साथ-साथ यह भी माना जाता है कि खड़ाऊं पहनने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है।

रामायण में भी चरण पादुका का उल्लेख मिलता है। पिता दशरथ की आज्ञा मान राम अपने भाई लक्ष्मण और भार्या जानकी के साथ वन को चले जाते हैं। पिता दशरथ राम के वियोग में प्राण त्याग देते हैं। यह समाचार ननिहाल में जब राम के भाई भरत को मिलता है तो वे अयोध्या दौड़े आते हैं। पिता का अंतिम संस्कार संपन्न करने के बाद वे राम को मना कर अयोध्या वापस लानेके लिए चित्रकूट जाते हैं।राम जब उनका आग्रह नहीं मानते और कहते हैं कि उनके लिए पिता का आदेश ही सर्वोपरि है और भरत को चाहिए कि वे उनके वनवास से लौटने तक अयोध्या का राजकाज संभालें। इस भरत कहते हैं कि भैया मुझे कुछ तो आधार दीजिए जिसके सहारे मैं आपके आशीष से राजकाज संभाल सकूं। 

भरत के आग्रह से राम अपनी पादुकाएं भरत को दे देते हैं। उन्हें ले भरत अयोध्या वापस आते हैं और पादुकाओं को श्रद्धापूर्वक सिंहासन पर स्थापित कर स्वयं अयोध्या नगरी से कुछ दूर नंदीग्राम में जाकर तपस्या करने लगते हैं।वैदिक काल के ऋषि मुनियों से लेकर अब तक के साधु-संतों में लकड़ी की बनी खड़ाऊं का प्रचलन है। आपने स्वामी रामदेव को भी खड़ाऊं पहने देखा होगा। खड़ाऊं का चलन लाखो साल पहले से चला आ रहा है। यद्यपि अब इसका प्रचलन बहुत कम हो गया है।खड़ाऊं पहनने के पीछे धार्मिक के साथ-साथ वैज्ञानिक कारण भी हैं। खड़ाऊं पहनने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है और कई तरह की शारीरिक परेशानियां दूर होती हैं। खड़ाऊं से होने वाले लाभ को ऋषि मुनियो ने बरसो पहले जान लिया था। साधु-संतों के चरणों में चरण पादुका या खड़ाऊं को देख कर लोगों के मन में अवश्य ही विचार आया होगा कि आखिर ये इन्हें क्यों पहनते हैं। देखा जाए जो इसे पहनने के पीछे वैज्ञानिक कारण है जिसके बारे में वर्षों पूर्व हमारे यहां के साधु-संतों को ज्ञात था।  गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने स्थापित किया उसे हमारे ऋषि-मुनियों ने काफी पहले ही इसे समझ लिया था। उस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा सोख ली जाती हैं। कहते हैं कि यह प्रक्रिया अगर लगातार चलती रहे तो शरीर की जैविक शक्ति समाप्त हो जायेगी। इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए हमारे पूर्वजों ने पैरों में खड़ाऊं पहनने की प्रथा प्रारंभ की ताकि शरीर की विद्युत तंरगों का पृथ्वी की सोखने वाली शक्ति के साथ संपर्क न हो सके। इसी सिद्धांत के आधार पर खड़ाऊ पहनी जाने लगीं।इससे जुड़ी धार्मिक मान्यता के अनुसार उस समय चमड़े का जूता कई धार्मिक, सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग को मान्य न था और कपड़े के जूते का प्रयोग हर कहीं सफल नहीं हो पाया। इसलिए खड़ाऊं का ही इस्तेमाल करना पड़ता था। लकड़ी के खड़ाऊं पहनने से किसी भी धार्मिक या सामाजिक लोगों को कोई आपत्ति नहीं थी, इसलिए इसका अधिक प्रचलन था। यही खड़ाऊं बाद में जाकर साधु-संत की पहचान बन गयी बाद में यही खड़ाऊं ऋषि-मुनियों, साधु-संत के स्वरूप से जुड़ गए। खड़ाऊं के अतिरिक्त काठ की एक और वस्तु जो हमारे जीवन का अभिन्न अंग रही है वह है काठ का पीढ़ा या पाटा। भले ही शहरों में डाइनिंग टेबल ने इसकी जगह ले ली हो लेकिन गांवों में भोजन के वक्त पीढ़े पर बैठने की परंपरा अभी तक जीवित है इसका भी अपना अलग महत्व है। भोजन लकड़ी की चौकी पर रख कर तथा लकड़ी के पाटे पर बैठ कर खाने का प्रचलन अब भी गांवों में है। भोजन करते समय हमारे शरीर में सबसे अधिक रासायनिक क्रियाएं होती हैं। इन परिस्थिति में शारीरिक ऊर्जा के संरक्षण का सबसे उत्तम उपाय है चौकियों पर बैठ कर भोजन करना।खड़ाऊं धारण करने से हमारे शरीर में कई तरीके के बदलाव और फायदे होते हैं । खड़ाऊं को सिर्फ धर्म से हे जोड़ा जाये तो गलत होगा। खड़ाऊं का संबंध स्वास्थ्य से भी है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में लकड़ी की चप्पलों यानी खड़ाऊं का उल्लेख मिलता है। यजुर्वेद में उल्लेख है कि खड़ाऊं पहनने से कई बीमारियों से शरीर की रक्षा होती है। खड़ाऊं शरीर में रक्त संचार सुचारू रूप से चलता है। खडाऊं पहनने से मानसिक और शारीरिक थकान दूर होती है।खडाऊं पहनने से पैरों की मासपेशियां मजबूत होती हैं। इससे स्वास्थ्य ठीक रहता है और मानसिक तनाव नहीं होता। खड़ाऊं पहनने से रीढ़ की हड्डी सीधी रहती है और मजबूत बनती है जिससे स्लिप डिस्क होने का खतरा कम हो जाता है। 

खड़ाऊं पहनने का मुख्य लाभ ब्रह्मचर्य के रूप मे मिलता है। इसका अनुभव खड़ाऊं पहन कर किया जा सकता है। यह लाभ खूंटी वाली खड़ाऊं से होता है। यह खूंटी अंगूठे और पास वाली अंगुली के बीच होती है। यही खड़ाऊं पहन कर चलने में सहायक होती है। इसके चलते इस खूंटी से लगने वाली नर्व पर दबाव पड़ता रहता है जिससे भी बहुत लाभ होता है। अँगूठों पर पड़ने वाले दबाव से पाचन क्रिया ठीक रहती है। अगर नाभि अक्सर खिसक जाया करती हो कहते हैं कि अगर वे रोज सुबह कुछ कदम खड़ाऊं पहन कर चलें तो इस कष्ट से मुक्त मिल सकती है। 

पादुकाएं अनेक प्रकार की लकड़ियों से बनती हैं, जिनका शरीर पर अलग-अलग तरह से असर होता है। आम की लकड़ी से बनी पादुकाएं धार्मिक कार्यों में पहनी जाती हैं। इन्हें पहनने से शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर जाता है, जो मस्तिष्क को तरोताजा रखती है। तंत्रिका तंत्र मजबूत बनता सागवान की लकड़ी से बनी खड़ाऊं मजबूत होती हैं। इन्हें पहनने से शरीर का तंत्रिका तंत्र मजबूत बनता है। रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है। नीम की लकड़ी से बनी खड़ाऊं पहनने से शरीर के जीवाणु नष्ट होते हैं और इन्हें पहनने वाला व्यक्ति निरोगी रहता है। बबूल की लकड़ी से बनी खड़ाऊं से हड्डियों को मजबूती प्रदान करती हैं। इन्हें पहनने से शरीर का संतुलन सुधरता है। . पीपल की लकड़ी से बनी खड़ाऊं पहनने से शरीर का रक्त प्रवाह सुधरता है। इससे त्वचा संबंधी रोग दूर होते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि खड़ाऊं का मतलब क्या होता है। खड़ाऊं को आप लकड़ी की चप्पल कह  सकते हैं। खूंटी वाली खड़ाऊं के अतिरििक्त पट्टेवाली खड़ाऊं भी होती है जो आम लोग पहनते हैं जिसे पहनने में सुविधा होती है. इसमें जीन या रबड़ की मोटी पट्टी लगी होती है जिसके सहारे पांव खड़ाऊं में अटके रहते हैं। खड़ाऊं का चलन वैदिक काल से चला आ रहा है। एक जमाना था जब लकड़ी या पेड़ों की छाल या घास से जूते-चप्पल बनाए जाते थे। किसी जमाने में हर भारतीय के पांव में दिखने वाली  खड़ाऊं अब साधुओं, संतों तक ही सीमित होकर रह गयी है।

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