आपमें से जिन लोगों को धार्मिक, पौराणिक कथाएं पढ़ने में रुचि है उन्होंने ऋषि दधीचि द्वारा अपनी अस्थियों का दान दिये जाने की बात मालूम होगी। हम आपको यह बता रहे हैं कि आखिर ऐसी कौन सी स्थिति आ गयी थी कि एक ऋषि को अपनी अस्थियों का दान करना पड़ा। क्या हुआ दधीचि की अस्थियों का।
देवराज इंद्र के बारे में यह प्रसिद्ध है कि जब कोई कठिन तप करने लगता था तो उन्हें तुरत अपने इंद्रासन पर संकट का भय सताने लगता था। देवराज इन्द्र अभिमानी भी बहुत थे जिसके चलते स्वयं उनको और देवताओं को भी संकट का सामना करना पड़ा। अपने इसी अभिमान के चलते एक बार उन्होंने देवगुरु बृहस्पति का भी अपमान कर दिया। उनके व्यवहार से क्षुब्ध होकर देवगुरु इन्द्रपुरी छोड़ कर अपने आश्रम चले गए। इसके बाद जब इन्द्र को अपनी भूल का आभास हुआ तो उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ क्योंकि अकेले देवगुरु बृहस्पति ही ऐसे थे, जिनके कारण देवता दैत्यों के कोप से बचे हुए थे।
पश्चाताप करते इन्द्र देवगुरु को मनाने उनके आश्रम में पहुंचे। उन्होंने हाथ जोड़कर देवगुरु को प्रणाम किया और बोले-,'आचार्य। मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया था। उस समय क्रोध में भर कर मैंने आपके लिए अनुचित शब्द कह दिए थे, मैं अपनी उस गलती के लिए आपसे क्षमा मांगता हूं। आप देवों के कल्याण के लिए पुनः इन्द्रपुरी लौट चलिए।' इन्द्र की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि देवगुरु अपने तपोबल से अदृश्य हो गये। इन्द्र ने उनकी बहुत खोज की पर देवगुरु का कुछ पता न चला। थक कर इंद्र इन्द्रपुरी वापस लौट आये।
दैत्य गुरु शुक्राचार्य को जब इसका पता चला तो उन्होंने दैत्यों से कहा- ' यही अवसर है जब तुम देवलोक पर अधिकार कर सकते हो। आचार्य बृहस्पति के चले जाने के बाद देवों की शक्ति आधी रह गई है। तुम लोग चाहो तो अब आसानी से देवलोक पर अधिकार कर सकते हो।'
उचित अवसर देख कर दैत्यों ने अमरावती को चारों ओर से घेर लिया और चारों ओर मार-काट मचानी प्रारंभ कर दी। इन्द्र किसी तरह प्राण बचा कर वहां से भाग निकले। भय से डरे इंद्र ब्रह्मा की शरण में पहुंचे। वे हाथ जोड़ कर उनसे बोले-,'पितामह, देवों की रक्षा कीजिए। दैत्यों ने अचानक हमला करके अमरावती में मार-काट मचा दी है। वे चुन-चुन कर देवताओं का वध कर रहे हैं। मैं किसी तरह जान बचाकर यहाँ पहुंचा हूं।'
पितामह ब्रह्मा आचार्य बृहस्पति के देवलोक छोड़ जाने की बात सुन चुके थे। ब्रह्मा जी इंद्र से बोले- 'यह सब तुम्हारे अहंकार के का परिणा है। अब भी यदि तुम आचार्य बृहस्पति को मना सको और उन्हें देवलोक में ले आओ तो वे दैत्यों पर विजय प्राने का कोई उपाय तुम्हें बता देंगे।'
इंद्र बोले-'मैं अपनी भूल पर बहुत पश्चाताप करता उन्हें खोजने के गया था किंतु मेरे देखते ही अपने तपोबल से अदृश्य हो गए।'
आचार्य तुमसे क्रुद्ध हैं, इन्द्र। ब्रह्मा जी ने कहा- 'अब जब तक तुम उनकी आराधना करके उन्हें स्वयं सम्मानपूर्वक देवलोक नहीं ले आओगे, वे अमरावती नहीं आएंगे।'
इंद्र ने कहा- 'मैं क्या करूं पितामह? आचार्य का कुछ पता-ठिकाना भी तो मेरे पास नहीं है। उन्हें खोजने में समय लगेगा। तब तक तो दैत्य संपूर्ण अमरावती को जला देंगे।'
इन्द्र की बात सुनकर ब्रह्मा जी ने अपने नेत्र बंद कर लिये। वे चिंतन में डूब गए। कुछ देर बाद उन्होंने अपने नेत्र खोले और इन्द्र से कहा-' इस समय भूंमडल में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति है जो तुम्हें इस आपदा से मुक्ति दिला सकता है और वह है महर्षि त्वष्टा का महाज्ञानी पुत्र विश्वरूप। अगर तुम उसे अपना पुरोहित नियुक्त कर लो तो वह तुम्हें इस संकट से मुक्त करा देगा।'
ब्रह्मा जी का परामर्श मान कर देवराज इन्द्र महर्षि विश्वरूप के पास पहुंचे। विश्वरूप के तीन मुख थे। पहले मुख से वे सोमवल्ली लता का रस निकालकर यज्ञ करते समय पीते थे। दूसरे मुख से मदिरा पान करते तथा तीसरे मुख से अन्न आदि भोजन का आहार करते थे। इन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया तो महर्षि ने पूछा, 'आज यहाँ कैसे आगमन हुआ, देवराज? आप किसी विपत्ति में तो नहीं फंस गए?'
'आपने ठीक अनुमान लगाया है मुनिश्रेष्ठ।' इन्द्र ने कहा, 'देवों पर इस समय बहुत बड़ा संकट आया है, दैत्यों ने अमरावती को घेर रखा है। चारों ओर हाहाकार मची है।' विश्वरूप मुस्कराए। बोले, 'यह तो देवों और दैत्यों का पुराना झगड़ा है, देवराज। दोनों ही महर्षि कश्यप की संतानें हैं। इसलिए कोई एक-दूसरे से छोटा नहीं बनना चाहता। तुम्हारे इस झगड़े में मैं क्या कर सकता हूं?'
'देवों को इस समय आपकी सहायता की आवश्यकता है मुनिश्रेष्ठ। सिर्फ़ आप ही उनका भय दूर कर सकते हैं।'
इस प्रकार इन्द्र ने जब विश्वरूप की बहुत अनुनय-विनय की तो विश्वरूप पिघल गए। उन्होंने देवों के यज्ञ का पुरोहित बनना स्वीकार कर लिया। वे बोले, 'देवों की दुर्दशा देखकर ही मैंने आपके यज्ञ का पुरोहित बनना स्वीकार किया है, देवराज।' तत्पश्चात् उन्होंने देवराज को नारायण कवच प्रदान करते हुए कहा, 'यह कवच ले जाओ देवराज। दैत्यों से युद्ध करते समय यह न सिर्फ़ तुम्हारी रक्षा करेगा बल्कि तुम्हें विजयश्री भी प्रदान करेगा।'
विश्वरुप से नारायण कवच प्रदान करके देवराज अमरावती पहुंचे। उनके वहां पहुंचने से देवों में नया उत्साह का भर गया और वे पूरी शक्ति के साथ दैत्यों पर टूट पड़े। भयंकर युद्ध छिड़ गया। इस बार इन्द्र के पास नारायण कवच होने के कारण दैत्य मैदान में नहीं ठहर सके। वे पराजित होकर भग खड़े हुए। विजयश्री देवताओं के हाथ लगी। युद्ध समाप्त होने पर देवराज विश्वरूप का आभार व्यक्त करने के लिए उनके पास पहुंचे।
इंद्र विस्वरूप बोले, 'आपके कृपा से हमने दैत्यों पर विजय प्राप्त कर ली है, मुनिवर। अब हम एक ऐसा यज्ञ करना चाहते हैं जिसके फलस्वरूप देवलोक हमेशा के लिए दैत्यों के भय से मुक्त रह सके। और आप हमें वचन दे ही चुके हैं कि उस यज्ञ के पुरोहित आप होंगे, तो कृपा करके अब आप हमारे साथ चलिए।'
देवराज के अनुरोध पर विश्वरूप अमरावती पहुंचे। उन्होंने यज्ञ में आहुतियां डालनी आरंभ कर दीं। उसी समय एक दैत्य ब्राह्मण का वेश धारण कर महर्षि विश्वरूप के पास आ बैठा। उसने धीरे से महर्षि विश्वरूप से कहा, 'महर्षि! देवताओं का पक्ष लेकर आप जो यज्ञ दैत्यों के विनाश के लिए कर रहे, यह उचित नहीं हैं।'
'क्यों उचित नहीं है?' विश्वरूप ने पूछा।
'इसलिए उचित नहीं कि देव और दैत्य एक ही पिता की संताने हैं। आप भूल रहे हैं कि स्वयं आपकी माता जी एक दैत्य परिवार से हैं। क्या आप चाहेंगे कि आपका मातृकुल हमेशा के लिए नष्ट हो जाए?' बात विश्वरूप की समझ में आ गई। उन्होंने आहुतियां देते समय देवों के साथ-साथ दैत्यों का नाम भी लेना आरंभ कर दिया। यज्ञ समाप्त हुआ, लेकिन उसका कोई लाभ देवों को नहीं मिला।
इस पर देवराज इन्द्र ने विश्वरूप से कहा,- 'मुनिवर! इतने बड़े यज्ञ का कोई अच्छा सुफल नहीं मिला। देवताओं की शक्ति में थोड़ा भी बदलाव नहीं आया।' तभी इन्द्र का एक गुप्तचर उनके पास पहुंचा उसने इन्द्र को बताया- 'यज्ञ का सुफल कैसे मिलता देवराज। मुनिवर देवों के साथ-साथ दैत्यों को भी तो आहुतियां देते रहे हैं। इस यज्ञ का जितना लाभ देवों को मिला है उतना ही दैत्यों को भी मिला हैं।'
गुप्तचर के मुख से यह बात सुन कर इन्द्र गुस्से से भर उठे। उन्होंने तलवार निकाल ली और ॠषि विश्वरूप पर झपटे और बोले-, 'ढोंगी ॠषि। तूने देवताओं के साथ विश्वासघात किया है। यज्ञ देवों ने कराया और तू आहुतियां अपने मातृकुल के लोगों को देता रहा। अब मैं तुझे जीवित नहीं छोड़ूंगा।' कहते हुए उसने तलवार के एक ही वार से विश्वरूप के तीनों सिर काट दिए।
इन्द्र द्वारा एक ब्राह्माण की यज्ञस्थल पर ही हत्या किए जाने की सभी निंदा करने लगी। देवों के साथ-साथ ॠषि-मुनि भी इंद्र को धिक्कारने लगे, 'इन्द्र तू हत्यारा है।–तूने ब्रह्महत्या की है, तेरे जैसे व्यक्ति को इन्द्र पद पर बने रहने का कोई अधिकार हक़ नहीं। तेरे लिए यही उचित है कि किसी कुएं या बावली में कूद कर अपने प्राण त्याग दे।'
रोज-रोज की धिक्कार और प्रताड़ना सुनकर इन्द्र दुखी रहने लगे। उधर, जब यह समाचार महर्षि त्वष्टा तक पहुंचा तो वे बेहद क्रोधित हुए। गुस्से से दहाड़ते हुए बोले- 'इन्द्र की ऐसी हिम्मत कैसे हुई कि वह मेरे पुत्र का वध करके इन्द्रासन पर बैठा रहे। मैं उसे मिट्टी में मिला दूंगा। मेरे पुत्र की हत्या करने का परिणाम उसे भोगना ही पड़ेगा।'
त्वष्टा उसी दिन यज्ञ करने के लिए बैठ गए। यज्ञ की समाप्ति पर यज्ञ वेदी से एक पर्वत के समान आकार वाला दैत्य प्रकट हुआ। उसके एक हाथ में गदा और दूसरे में शंख था। उसने झुक कर ॠषि को प्रणाम किया। ॠषि ने उसको नाम दिया—वृतासुर।
वृतासुर ने सिर झुकाकर कहा-'आज्ञा दीजिए ॠषिवर?'
'वृतासुर। तुम तत्काल अमरावती जाओ और कपटी इन्द्र के साथ-साथ समस्त देवताओं का विनाश कर दो।' महर्षि त्वष्टा ने क्रोध से आदेश दिया। त्वष्टा का आदेश पाते ही वृतासुर तेजी से देवलोक की ओर उड़ चला।
वृतासुर ने अमरावती में पहुंच कर देवों का विध्वंस करना शुरू कर दिया। जो भी सामने आता, वह उसका वध कर डालता। उसने अमरावती में ऐसा आतंक मचाया के देवता त्राहि-त्राहि कर उठे। इन्द्र अपने ऐरावत पर चढ़कर उसके सामने पहुंचा और उस पर व्रज प्रहार किया, किंतु वृतासुर ने एक ही झटके में उसके हाथ से व्रज छीनकर दूर फेंक दिया।
इस पर इन्द्र ने उस पर आग्नेय अस्त्रों से आक्रमण किया, किंतु उनका किंचित भी असर वृतासुर पर न हुआ। किसी खिलौने की तरह उसने इन्द्र के हाथ से उसका धनुष छीन लिया और उसे तोड़ कर ओर फेंक दिया।इसके बाद अपना भयंकर मुख खोलकर इन्द्र को खाने के लिए उनकी ओर झपटा। यह देख कर इन्द्र भयभीत हो गये और ऐरावत से कूदकर अपनी जान बचाने के लिए भाग निकले। वृतासुर अमरावती में भयंकर अट्टहास करता रहा। देवराज भाग कर सीधे विष्णुलोक पहुंचे। वे विष्णु जी से बोले- 'रक्षा कीजिए देव। देवताओं को बचाइए। देवों को वृतासुर के कोप से बचाइए अन्यथा वह समस्त देवों को नष्ट कर देगा।' यह सुनकर भगवान विष्णु ने भी उसे धिक्कारा। कहा, 'इन्द्र। एक ब्राह्मण, और वह भी ऐसा जो तुम्हारे यज्ञ का संचालन कर रहा हो, उसका यज्ञस्थल पर ही वध करके तुमने समस्त देवताओं को कलंकित कर दिया। तुमने अक्षम्य अपराध किया है। महर्षि त्वष्टा ने तुम्हारे लिए उचित ही दंड का निर्णय किया है।'
'मुझे अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हो रहा है, प्रभु। मैं उस समय क्रोध में अंधा हो रहा था, इसलिए ब्रह्महत्या जैसा पाप कर बैठा। मुझे क्षमा कर दीजिए और मुझे उस महाभयंकर दैत्य से मुक्ति दिलाइए।' इन्द्र ने कहा।
विष्णु बोले- 'इस समय मैं तो क्या स्वयं भगवान शिव अथवा ब्रह्मा जी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। तुम्हारी रक्षा तो पृथ्वी पर एक ही व्यक्ति कर सकता है।'
इंद्र ने पूछा-'वह कौन है, देव?'
विष्णु बोले-'महर्षि दधीचि। सिर्फ़ वही तुम्हारी रक्षा कर सकते हैं। तुम महर्षि दधीचि के आश्रम में जाओ और उन्हें प्रसन्न करके किसी तरह उनके शरीर की हड्डियां प्राप्त कर लो। फिर उन हड्डियों से व्रज बना कर यदि तुम वृतासुर से युद्ध करोगे तो विजयश्री तुम्हें ही मिलेगी।'
भगवान विष्णु का परामर्श मान कर इन्द्र दधीचि के आश्रम में पहुंचा। महर्षि दधीचि उस समय समाधि लगाए बैठे थे। उनकी कामधेनु उनके निकट खड़ी थी। इन्द्र महर्षि की समाधि भंग होने की प्रतीक्षा करने लगा। फिर जब महर्षि ने अपनी समाधि भंग की तो उनकी दृष्टि करबद्ध खड़े इन्द्र पर पड़ी। महर्षि ने हंसते हुए पूछा, 'देवेंद्र! आज इस मृत्युलोक में तुम्हारा आगमन क्यों हुआ? देवलोक में सब कुशल तो है?'
'कुशलता कैसी महर्षि।' इन्द्र ने कहा, 'देवों के दुर्दिन आ गए हैं। वृतासुर के भय से देव अमरावती छोड़कर जंगलों और गिरि कंदराओं में छिपते फिर रहे हैं।'
फिर महर्षि के पूछने पर इन्द्र ने सारी बातें उन्हें बता दीं। सुनकर दधीचि बोले- 'यह तो बड़ी अशुभ बातें बताईं तुमने। अब इनका निराकरण कैसे हो?'
'महर्षि! मैं भगवान विष्णु के पास गया था।' इन्द्र बोले- 'उन्होंने परामर्श दिया है कि यदि आप प्रसन्न होकर मुझे अपनी अस्थियों का दान दे दें और उनसे व्रज बनाकर यदि वृतासुर से युद्ध किया जाए तो वह दैत्य उस व्रज के प्रहार से मर सकता है। हे ॠषिश्रेष्ठ। देवों पर कृपा करके मुझे अपनी अस्थियों का दान दे दीजिए।'
'देवेंद्र!' महर्षि दधीचि बोले-'यदि मेरी अस्थियों से मानव और देव जाति का कुछ हित होता है तो मैं सहर्ष अपनी अस्थियों का दान देने के लिए तैयार हूं।'
इसके बाद दधीच ने अपने शरीर पर मीठा लेप लगाया और समाधिस्थ हो गए। कामधेनु ने उनके शरीर को चाटना आरंभ कर दिया। कुछ देर में महर्षि के शरीर की त्वचा, मांस और मज्जा उनके शरीर से अलग हो गए। अब शरीर पर मात्र अस्थियां ही रह गईं। इन्द्र ने उन अस्थियों को श्रद्धापूर्वक नमन किया और उन्हें ले जाकर उन हड्डियों से तेजवान नामक व्रज बनाया।
उस वज्र को लेकर इंद्र ने वृतासुर को ललकारा। दोनों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। तेजवान वज्र के आगे वृतासुर देर तक नहीं टिक सका। इन्द्र ने व्रज प्रहार करके उसका वध कर डाला। अमरावती और देवता भी वृतासुर के भय से मुक्त हो गए।
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